- वीर विनोद
छाबड़ा
बंदा जब कभी
आत्महत्या का समाचार पढ़ता या सुनता है तो उसे अस्सी और नब्बे के दशक के दौर के वो दिन
याद आते हैं जब वो आत्महत्या को सारी समस्याओं के समाधान के रूप में देखता था। दरअसल
उसे महसूस होने लगा था कि पत्नी को उसकी आवश्यकता नहीं है। वो बच्चों को बंदे से दूर
रखने के सतत प्रयास में रत रहती है। बंदे को पुस्तकों में खोया देखना, पत्र-पत्रिकाओं
के लिये लिखना उसे तनिक भी पसंद नहीं है। उसकी दृष्टि में ऐसे लोग प्रथम श्रेणी के
मूर्ख होते हैं। मित्रों का घर आना भी उसे सुहाता नहीं है। वस्तुतः वो बंदे को वह अपने
पिता के समान ढालना चाहती थी। उसे किंचित मात्र अच्छा नहीं लगता था जब कोई बंदे की
कोई प्रशंसा करता। ऐसे में बंदे को विश्वास हो गया कि उसे पति की नहीं एक ‘अल्सेशियन’
की आवश्यकता है, जिसकी डोर मालिक के हाथ में हो। उसकी आज्ञा से वो उठे-बैठे। लिखना-पढ़ना
छोड़ दे। निठल्ले बाबू की भांति विलंब से आफ़िस जाये और शीघ्र लौटे। थैला उठा कर उसके
निर्देशानुसार सब्जी-राशन लाये। चौका-बर्तन व झाड़ू बुहारने में हाथ बटाये। इस मामले
में उसके पिता के अतिरिक्त चंद पड़ोसी भी उसके आदर्श थे। बंदे ने उसे प्रसन्न करने की
बहुतेरी चेष्टा की, परंतु वो संतुष्ट नहीं हुई। तब बंदे को लगा कि कुत्ता बन कर भी
मिली फटकार से अच्छा तो परलोकवासी हो जाना है। यों भी उसके न रहने से पत्नी को लाभ
ही लाभ थे। बंदे के स्थान पर मृतक आश्रित कोटे से नौकरी मिलेगी। पारिवारिक पेंशन भी
प्राप्त करेगी। बंदे ने देखा है कि पति के असामायिक निधन पर कई परिवार टूटे नहीं, अपितु
मरणोपरांत देय सरकारी धनराशि प्राप्त करके पहले से कहीं अधिक दृढ़ता के साथ खड़े हुए
और निर्बाध गति से खूब फले-फूले।
यह सोच कर बंदे
में आत्महत्या करने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। डायरी में बैंक-बैलेंस, एलआईसी, प्राविडेंट
फंड में जमा धनराशि और मरणोपरांत देय लाभों का विस्तृत विवरण अंकित किया। मकान क्रय,
हाऊस टैक्स, वाटर व सीवेज टैक्स व बिजली व गैस संबंधी समस्त अभिलेख के यथा स्थान रखे
होने का भी उल्लेख किया। मरणोपरांत अंतिम संस्कार के सारे विधि-विधान तथा उस व्यय होने
वाली धनराशि को भी सविस्तार लिखा। बंदे की अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने हेतु रिश्तेदारों
व निकटवर्ती मित्रों के टेलीफोन व मोबाईल नंबर भी लिखे। उनकी सूची भी बनायी जिन्हें
विधि-विधान के अनुसार नहला-धुला कर अर्थी पर लिटा कर बैकुंठ धाम ले जाने की समस्त प्रक्रिया
का भी दीर्घ ज्ञान है। यह इच्छा भी व्यक्त की कि अंत्येष्टि हेतु विद्युत शवगृह उपयुक्त
होगा। वहां शवदाह फ्री है। मैनपावर की आवश्यकता भी न्यूनतम है। अल्प व्यय वाले कम क्रिया-कलाप
हैं। उन मित्रों के नाम अंकित किये जिन्होंने बरसों पूर्व ऊंची राशि ऋण स्वरूप ली थी
परंतु अनेक बार स्मरण कराने के उपरांत भी वापस नहीं की थी। सुझाव दिया कि उनके नाम
‘उठाले’ के दिन भरी सभा में घोषित किये जायें। यदि उनमें ज़रा सी शर्म शेष होगी तो ब्याज
सहित ऋण राशि को लौटा देंगे। उन सहयोगियों के नाम रेखांकित किये जो बंदे के दिवंगतोपरांत
सहायक होंगे और उनके नाम भी लिखे जिनसे विशेषकर दूर रहना है।
इस वसीयत के
अंकन पश्चात बंदे के समक्ष यक्ष प्रश्न उत्पन्न हुआ कि आत्महत्या हेतु कौन सा मार्ग
श्रेष्ठ व सरल होगा? कई दिन तक इसी चक्कर में आत्महत्या स्थगित रखी। प्रथमतः नदी के
पुल से कूदने का विचार आया। इसके लिये दूर नहीं जाना था। बंदे के शहर लखनऊ के मध्य
में गोमती नदी बहती है। इस पर कई पुल हैं। यहां से कूद कर अक्सर लोग जान दिया करते
थे। लेकिन बढ़ती हुई आत्महत्याओं की दर के दृष्टिगत सरकार ने पुलों के दोनों ओर लोहे
की ऊंची व सुदृढ़ जालीदार ग्रिल लगा दी है। परंतु एक ऐसा प्रतिष्ठित पुल भी है जहां
जाली अभी तक इसलिये नहीं लगायी गयी है कि उससे पुल की शोभा नष्ट होती है।
बंदा उसी पुल
पर पहुंचा। एक विहंगम दृष्टि चारों दिशाओं में दौड़ाई। बंदे ने पुल से नीचे झांका। यह
देख कर विस्मय हुआ कि नदी में पानी बहुत कम है। वो नदी लग ही नहीं रही थी। अपितु एक
नाला सा बहता दिखा। परली तरफ देखा। वहां भी ठीक यही स्थिति थी। इतने कम पानी में हो
सकता है कि बंदा डूब ही न पाये! या यह भी संभव है कि कोई आता-जाता देख ले और वो यदि
तैराक हुआ तो तुरंत बचा भी लेगा। और यदि नहीं भी हुआ तो शोर मचा कर भीड़ जुटा लेगा।
उनमें से बचाने के लिये निश्चित ही कोई न कोई तैराक होगा ही। चलिये मान लिया कि यह
सब नहीं होगा। परंतु यह भी तो हो सकता है कि बंदे को मगरमच्छ निगल ले या मछलियां नोच
कर खा लें। बड़ा कष्टप्रद होगा ऐसा मरना तो। फिर ऐसे में किसी को पता भी नहीं चलेगा
कि बंदे को ज़मीं खा गयी या आकाश निगल गया। तलाश में पत्नी-बच्चे, माता-पिता और मित्रों-रिश्तेदारों
को कितनी दौ़ड़-धूप करनी पड़ेगी। पुलिस-थाना और कोर्ट-कचेहरी करते हुए युग निकलने से
पूर्व ही दम निकल जायेगा। ऐसे में तो मर कर भी चैन न मिलेगा। और तभी डूबने से बचे हुए
एक बंदे का आत्मकथ्य याद आया- ‘‘डूब कर मरना अत्यंत कष्टकारी है। ढेर गंदा पानी पेट
और फेफड़ों में घुस जाता है जिससे दम घुटता है। बचाओ-बचाओ की गुहार लगाता है।’’ बंदे
ने एक बार डूब के मरे आदमी की लाश देखी थी। बेहद फूली हुई थी। पहचान में नहीं आ रही
थी। गल भी गयी थी। बदबू भी इतनी अधिक थी कि एक पल खड़ा होना संभव नहीं था। मरणोपरांत
इतना वीभत्स दृश्य देख कर भयाक्रांत होने के साथ रोना भी आया था। क्या वो भी इसी गति
को प्राप्त होगा? यह सोच कर बंदे का भय से रोम-रोम कांप उठा था। अतः आत्महत्या का विचार
त्याग कर निर्णय लिया कि कोई अन्य विकल्प देखा जाये।
बंदे के संज्ञान
में आया कि कपड़ों पर मिट्टी का तेल या पेट्रोल डाल कर जल मरना भी अत्यधिक कष्टप्रद
है। इस तरह मरने से बचे एक आदमी ने बताया- ‘‘माचिस जलाने में ही हाथ-पांव कांपने लगे।
चमड़ी जलने की वेदना सहन नहीं हुई। तब जान बचाने का ख्याल आया। कष्ट से बिलबिला कर जान
बचाने की गुहार लगाई -बचाओ! बचाओ!! और बेतरह उछलते हुए एक आदमी से लिपट गया। यह तो
अच्छा हुआ कि वो सर्दी के दिन थे। उस आदमी के प्रेजेंस आफ माइंड ने काम किया। अपनी
जान बचाने के लिये उसने अपनी शाल मेरे पर डाल दी। इस तरह बच गया था। सिर्फ़ तीस प्रतिशत
जला था। परंतु हफ्तों अस्पताल में भर्ती रहा। यदि जलने का प्रतिशत अधिक होता तो कराहते
हुए दम तोड़ना पड़ता।’’ यह वृतांत सुन भय से बंदे की रूह कांप गयी। तुरंत ही इस विधि
से आत्महत्या का विचार त्याग दिया।
एक और आईडिया
आया। ट्रक के सामने कूद कर किसी तरह एक्सीडेंट करा लिया जाये। फिर सोचा कि नहीं यार
यह भी ठीक नहीं होगा। इसमें भी मरने और बचने के चांसेज़ फिफ्टी-फिफ्टी हैं। लेकिन दोनों
ही सूरतों में यदि ड्राईवर व क्लीनर पकड़ में आ गये तो उनकी खै़र नहीं। उनकी जिंदगी
बेवजह नरक बन जायेगी। एक बार प्रयास किया भी था। परंतु ड्राईवर ने ठीक समय पर कस कर
ब्रेक लगा कर ट्रक रोक लिया। ड्राईवर समेत बहुत लोगों ने बेतरह फटकारा था- ‘‘अबे अंधा
है क्या? देखता नहीं सामने से सड़क का बाप चला आ रहा है।’’
ज़हर खा कर मरने
के तरीके पर भी विचार किया। सुना है इसमें भी कई बेशर्म बच जाते हैं। हो सकता है कि
बंदे की गिनती भी उन बेशर्मों में हो जाये।
अगला बिंदू गले
में रस्सी का फंदा लगा कर मरने का था। इसके लिये परम आवश्यक है कि घर में कोई न हो।
परंतु यहां तो पत्नी दिन भर साये की भांति चिपकी रहती है। हर पंद्रह मिनट पर झांकने
आती है कि निठल्ला बंदा कर क्या रहा है? बंदे के कमरे की छत पर लगे हुक से एक पंखा
टंगा है, जिसे देख कर बार-बार यही ख्याल आता है कि ये हुक टूटा गया तो पंखा सीधा बंदे
के सिर पर गिरेगा। बंदे का वज़न भी अस्सी किलो है। इतना वज़न हुक बर्दाश्त नहीं कर पाया
तो आत्महत्या के प्रयास की इंसल्ट हो जायेगी।
एक डर ये भी
लगा कि आत्महत्या में नाकाम रहने पर समाज व परिवार भले ही रहम कर जाये पर कानून नहीं
करेगा। मुकदमा चलेगा है। वकील करना पड़ेगा। अच्छा खासा पैसा खर्च होगा। इतनी भाग-दौड़
करनी होगी कि आदमी जीते जी मर जाए। और खुद को प्रताड़ित करना सिद्ध होने पर तीन साल
की सजा का भी प्राविधान है।
अब अंत में एक
ही रास्ता शेष था। ट्रेन के सामने कूद जाऊं या ट्रेन आने से ठीक पूर्व पटरी पर लेट
जाऊं। मगर पटरी पर लेटने का यह सुझाव अपील नहीं किया। क्या मालूम ट्रेन लेट हो जाये
या जैसे ही ट्रेन निकट आये तो मन बेईमान हो जाये और जल्दी से पटरी के दूसरी तरफ़ कूद
जाऊं। यह भी संभव है कि ड्राईवर दूर से किसी को लेटा देख कर ट्रेन रोक दे। या आस-पास
खेतों में काम करने वाले देख लें और बचा लें। अब ट्रेन आने से ठीक पहने उसके सामने
कूदने का विकल्प शेष था। हालांकि इसके लिये बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। बंदे ने स्वयं को
चुनौती दी - ‘‘अब इतना कमजोर तो नहीं है तू कि ट्रेन के सामने कूदने का दम न जुटा पाये।’’
उस दिन इतवार
था। सुबह का टाईम। सब सो रहे थे अभी। बंदे ने दिल मजबूत किया। डायरी को यथास्थान रखा।
उसमें सुसाईड नोट रखा। दूसरी प्रति जेब में। जिसमें लिखा था- ‘‘बंदे को दिव्य ज्ञान
की प्राप्ति हो चुकी है। यह संसार मिथ्या है। अतः अपनी इच्छा से ब्रम्हलीन होने जा
रहा हूं। परिवार के किसी भी सदस्य को प्रताड़ित न किया जाये।’’ उसने अंतिम बार अपनी
गाढ़े खून-पसीने की कमाई से निर्मित अपने भवन को देखा। उसे संतोष था कि इसके लिये लिया
ऋण भी मय ब्याज चुकता हो चुका है। स्कूटर उठाया और निकटवर्ती बादशाहनगर रेलवे स्टेशन
की ओर चल दिया। यह ठीक भीड़-भाड़ वाला स्टेशन है। ट्रेनों का आवागमन भी अच्छा है। बंदा
सोचने लगा- ‘‘लाभ यह है कि ट्रेन के सामने कूदते हुए अनेक लोग देख लेंगे। (नोट-उन दिनों
सीसीटीवी कैमरे नहीं होते थे।) प्लेटफार्म पर आते हुए ट्रेन की स्पीड बहुत कम होती
है। उसके सामने कूदने से शरीर छिन्न-भिन्न नहीं होगा अपितु दो-तीन टुकड़े ही होंगे,
जिसे पहचाने में कतई दिक्कत नहीं होगी। और यदि आवश्यक हुआ भी तो जो लोग कूदते हुए देखेंगे
वे अपनी याददाश्त से रेखाचित्र बनवा देंगे। तब पहचान में होने वाली रही-सही समस्या
की आशंका भी समाप्त हो जायेगी।’’ ये सोचते हुए बंदा स्टेशन पहुंच गया। ज्ञात हुआ कि
ट्रेन दो घंटे लेट है। इस मध्य कोई अन्य ट्रेन नहीं थी। मन मसोस कर बंदा एक खाली बेंच
पर बैठ गया। और मरणोपरांत के दृश्य को पुनः विजुलाईज़ करने लगा...सबसे पहले उसकी बाडी
के विभिन्न हिस्सों को पुलिस ने जमा किया और फिर बाहर खड़े स्कूटर का भी बंदे को ख्याल
आया कि अरे, स्कूटर के बारे में तो उसने सोचा ही नहीं। अभी तीन महीने पहले ही तो क्रय
किया है। न सुसाईड नोट में उसने स्कूटर का उल्लेख किया और न ही वसीयत में। देर तक लावारिस
खड़ा रहा तो चोर उचक्के उठा ले जायेंगे। यदि स्कूटर घर पर रहा तो पत्नी उसे बेच कर दो
पैसे कमा लेगी या बड़े होकर बच्चे इस धरोहर को चलायेंगे। ये सोच कर बंदा स्कूटर छोड़ने
घर लौट आता है।
उसे देखते ही
चिड़चिड़ी पत्नी आदत अनुसार झल्ला कर बोली - ‘‘कहां निकल गये थे सुबह-सुबह? मोबाईल भी घर छोड़ गये थे। कहां नहीं तलाश किया! अब थाना बचा था।
बस रिपोर्ट दर्ज कराने जा ही रही थी। खै़र, अब तो आ ही गये हो। नाश्ता तैयार है। जल्दी
से मुंह-हाथ धो लो। उसके बाद बाज़ार के बहुत काम करने हैं।’’ नाश्ते के नाम पर बंदे
को याद आया कि वो सुबह से भूखा है। उसके मुंह में पानी भर आता है। वो हड़बड़ा कर बोला-
’’सारी। वो पार्क गया था टहलने। बस अभी पांच मिनट में स्नान करके आया।’’
पत्नी ने गोभी
के गर्मा-गर्म परांठे बनाये थे। मक्खन से चुपड़े हुए। और साथ में झक सफेद गाढ़ा दही भी
था। यह बंदे का सबसे पसंदीदा आईटम है। वाकई मजा आ गया खाने में। पत्नी कितनी ही नाराज
क्यों न हो, बंदे का मूड भी कितना ही खराब क्यों न हो, खाने से कभी नाराज नहीं हुए।
अन्न का अपमान नहीं करना चाहिये। यह संस्कार बचपन से ही माता-पिता ने मन-मस्तिष्क में
ठूंस दिया था। सदियों से चली आ रही यह पारिवारिक परंपरा है। पत्नी ने भी सहर्ष इस संस्कार
का निर्वाह किया है। और सच तो यह है कि बंदे की पत्नी जैसी भी है खाना बहुत अच्छा बनाती
है। और दिल से खिलाती भी है। उसकी यही बात बंदे को उससे बांधे रखती है। और बंदा उसके
खाने की प्रशंसा उसके समक्ष ही नहीं पीठ पीछे भी करते नहीं अघाता है। यह बात पत्नी
भी जानती है। तभी आकाशवाणी होती है- ‘‘जब तक आशा की एक भी किरण बाकी है, हिम्मत मत
हारो।’’
तबसे आज तक तक
बीस बरस हो चुके हैं। बच्चे बड़े होकर काम पर लग चुके हैं। पत्नी के स्वभाव में लेशमात्र
भी परिवर्तन नहीं हुआ है। बूढ़ा हो चुका बंदा तय कर चुका है कि जिस दिन पत्नी भोजन नहीं
परोसेगी वो दिन अंतिम होगा। परंतु प्रतीक्षा की यह घड़ी समाप्त नहीं होती है। क्योंकि
पत्नी अपनी इस संस्कारी आदत से बाज़ नहीं आती है, चाहे उसकी तबीयत कितनी ही खराब क्यों
न हो।
--
-वीर विनोद छाबड़ा
डी 2290, इंदिरा
नगर,
लखनऊ-
226016
मोबाईल
7505663626
दिनांक
04.07.2014
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