Thursday, August 10, 2017

छपवा ही लें पुस्तक

- वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह सुबह ही आ धमके हमारे एक बड़े भाई। दद्दा कहते हैं हम उन्हें। बोले - क्या लिख पढ़ रहे हो?
हमने कहा - फेस बुक भर रहा हूं और उसी में से कुछ चुनींदा लेख और ज़िंदगी से उठाये किस्से-कहानियां ब्लॉग में भी डालते चलता हूं।
दद्दा भन्नाये - बस यही करते रहना। किसी दिन निकल लोगे ऊपर। अब अपने ऊपर जाने की ख़बर तुम खुद तो फेस बुक पर डालोगे नहीं और तुम्हारे आस-पास रहने वाले दोस्तों-रिश्तेदारों को फेस बुक पर ठीक से नाक पौंछने तक की भी तमीज नहीं। किसी को तुम्हारे अंतर्ध्यान होने का कैसे पता चलेगा?
हमने कहा - नहीं दद्दा, ऐसी बात नहीं। कई सयाने हैं। हमारे पल-पल की ख़बर रखते हैं। कोई न कोई देर-सवेर फेस बुक पर चेंप देगा।
दद्दा बोले - अच्छा ठीक। फेस बुक पर ख़बर भर होने से क्या होगा? पांच-छह सौ लोग तुम्हारा मरना लाईक करेंगे। सौ के करीब कमेंट आ जायेंगे - दुखद। बुड्ढे को विन्रम श्रद्धांजलि। हो गया तुम्हारा पटाक्षेप। दो-चार दिन यही चेलगा। इसके बाद कोई कोई नाम लेवा नहीं रहेगा। कोई पुस्तक नहीं लिखोगे तो यही होगा। पुस्तक होगी तो लोग पढ़ेंगे, हो सकता है सहानुभूति में मरणोपरांत कोई ईनाम-विनाम मिल जाए।
हमने कहा - दद्दा, क्या लाभ। हम तो जीते-जी तो एन्जॉय कर नहीं पाएंगे। और फिर हमें कोई शेक्सपीयर या मुंशी प्रेमचंद तो बनना नहीं।
दद्दा बोले - तुम रहोगे लल्लू के लल्लू। तो मत मरो। कौन मरने को कहता है? सब इंतेज़ाम अब जीते जी होने लगा है। हर प्रोग्राम का पैकेज है। कल्लू हलवाई से लेकर प्रदेश मुखिया तक से विमोचन करा दें। फिफ्टी-फिफ्टी करो तो किसी कॉरपोरेट घराने से पचास लाख ईनाम दिलवा दूं। इत्ता जुगाड़ तो है हमारा। फिर घूमना मुर्गे की तरह गर्दन ऊंची करके, जगह जगह बांगे देते फिरना।
हम दद्दा की बातों में बह गए। हमें याद आया कि किशोरावस्था में जिस दिन स्वतंत्र भारत में हमारा लेख छपता था तो चारबाग़ की गुरुनानक मार्किट में हम सीना फुला कर टहला करते थे। एक दिन हमारा ही छपा आर्टिकल पढ़ रहे एक किरयाने वाले ने हमें टोक दिया - पिताजी से कहना, पिछले महीने का उधार नहीं चुकाया तो अगले महीने राशन नहीं मिलेगा।
इधर दद्दा बता रहे थे - अगर चाहते हो कि तमाम लायब्रेरियों में तुम पड़े रहो तो कम से कम दो-चार किताबें तुम्हारी ज़रूर आनी चाहियें। और कुछ न सही ब्रेन वेव पर ही लिख दो। हवा-हवाई किले। उड़न तश्तरियां। आजकल यह मैटेरियल भी खूब बिक रहा है। सरकारें भी खूब खरीद रहीं हैं। किसी पाठ्यक्रम में लगवा दूंगा। वैसे अंग्रेजी के प्रकाशक भी इसी की तलाश में रहते हैं।
हमने शंका ज़ाहिर की - लेकिन हमारी लिखी पुस्तकें पढ़ेगा कौन
दद्दा ने छूटते ही जवाब दिया -  कौन दूसरों को पढ़ने के लिए छपवाता है? किसे फुरसत है? और पढ़ने वाले हैं ही कितने। बहुत ज्यादा आधा परसेंट। तुम मेरी पढ़ लो और मैं तुम्हारी। चाहो तो एक-दूसरे की प्रशंसा कर लो या आलोचना। हर किताब के आठ-दस विमोचन। ऊपर का कवर और टाईटिल बदल दो हो गयी नई किताब। फिर आठ-दस विमोचन। पुस्तक मेलों में टहल लेना। जहां कोई नामी गिरामी लेखक मिले, ज़बरदस्ती उसके हाथ में पकड़ा दो किताब और चिपक जाओ, सेल्फ़ी के लिए। और फिर चेंप फेस बुक पर।
हमने कहा - व्हाट ऐन आईडिया सर जी।
दद्दा तब तक हमारी तीन बार चाय सुड़ुक चुके थे। अगर मोबाईल न बजा होता तो चौथी भी हलक़ के नीचे उतारते।

वैसे हम दद्दा की इतनी बात से सहमत हैं कि एक पुस्तक हम अब छपवा ही लें। बाकी जो होगा, देखा जायेगा। 
---
11 August 2017

1 comment:

  1. नमस्कार सर, हम गाँव कनेक्शन अख़बार और वेबसाइट www.gaonconnection.com के सोशल मीडिया चौपाल में आपका ब्लॉग पब्लिश करना चाहते हैं। अगर अाप अनुमति दें तो हम इसे अपने पोर्टल पर जगह देना चाहेंगे। आप हमें featuresdesk@gaonconnection.com पर अपनी लिखी बाकी रचनाएं भी भेज सकते हैं।
    सादर

    ReplyDelete