Monday, November 10, 2014

अपने अपने नसीब!

-वीर विनोद छाबड़ा
बात १९६६ की है। मैं हाई स्कूल में था।

लामर्ट, क्राइस्ट चर्च आदि अंग्रेजी माध्यम के मिशनरीओं के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चो को जहां तहां अंग्रेजी में गिटपिटाते देख कर अहसास--कमतरी होती थी। काश! हमारे माता पिता भी ऊंचे दरजे के खानदान से ताल्लुक रखते होते तो हम भी किसी लामर्ट कान्वेंट में पढ़ रहे होते।

हमें ये भी कोफ़्त होती थी कि ऊपर वाले ने हमें पैदा करने के लिए गरीब का ही घर क्यों चुना? किसी अमीर की झोली में दाल देता तो क्या जाता?

कभी-कभी ये सुखद कल्पना करके गुदगुदी भी होती कि हम मेले में अमीर माता पिता से  बिछुड़ी संतान हैं। वो हमें लेने आये हैं और हमें पाल पोस कर बड़ा करने वाले माता-पिता भारी मन से हमें विदा कर रहे हैं।

इसके आगे हम जब भी कुछ सोचने लगते माताजी आवाज़ लगा देतीं - जा दूध ले आ। लौटते पे सब्जी भी ले आना। फिर पढ़ना भी है....फिर झमेलों की भीड़ में हम गुम हो जाते।

कभी ये भी सोचते कि ये गरीब माता-पिता ही ठीक हैं। बंदर-भालू का तमाशा तो देख लेते हैं। सड़क किनारे जादू का खेल भी कभी कभार देखने को मिल जाता है। हाफरेट सिनेमाहाल में चालीस पैसे की फ्रंट क्लास में बिंदास बैठ तो जाते हैं।

एक दिन क्या हुआ कि वज़ीरहसन रोड इलाके के अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से हमारे चन्दर नगर के लड़कों का क्रिकेट मैच लग गया। दरअसल हम में से एक की वहां रिश्तेदारी थी। उसकी एक अंग्रेज़ी वाले से बहस हो गयी कि पटौदी बढ़िया है या सरदेसाई। बात इतनी आगे निकली कि तय हुआ कि मैच हो जाये। हम जीते तो पटौदी बढ़िया और तुम यानी हम फुकरों की टीम जीती तो सरदेसाई।

गोमती किनारे मैदान में मैच हुआ। सरदेसाई टीम की ज़बरदस्त हार हुई और पटौदी की जीत। यों उन्हें जीतना ही था। उनकी क्रिकेट कोचिंग बढ़िया थी, उनके हरेक सदस्य की किट में बढ़िया बैट, ग्लव्स, पैड आदि है और हमारे पास कुछ नहीं, ठन ठन गोपाल।

कपडे धोने वाले सोटे को बैट बना कर क्रिकेट खेलना सीखे थे। बैट-गेंद खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे। चंदा करके बामुश्किल काम चलता था। ईटों की विकेट बनाते थे। खेलते कम और झगड़ते ज्यादा थे।

हम उस दिन हारे ज़रूर लेकिन हमने हार से कहीं ज्यादा बड़ी ख़ुशी पायी। हमारे दिमाग में ठुंसा हुआ बरसों पुराना सारा का सारा कॉमप्लेक्स दूर हो गया।  अमीर और गरीब का भेद मिट गया। पटौदी का सरदेसाई पर सदियों से स्थापित वर्चस्व ख़त्म हो गया।


हमने देखा कि ये पटौदी वाले भी आपस में खूब झगड़ते हैं, इतनी गंदी-गंदी गालियां एक दूसरे को देते हैं कि सरदेसाई की बदबूदार गली की टीम वालों को भी शर्म गयी। हमने उस दिन खुद को खूब शाबाशी दी - अमां ये तो हमारे जैसे ही निकले। हम तो खामख्वाह ही इनको बहुत भला आदमी समझते थे।

हमारी रही-सही हीन भावना उस दिन बिलकुल ही खत्म हो गयी जब एक दिन पटौदी टीम के एक सदस्य को हमने हज़रतगंज के प्रिंस सिनेमा की बगल वाली गली में देखा। वो वहां पर छुप कर सिगरेट का धुआं उड़ा रहा था। उसने हमें देख सिगरेट ऑफर की। लेकिन हमने मना कर दिया। तब हम सिगरेट पीते नहीं थे।

कुछ वक्त बाद  हमें ये भी पता चला कि कम्पटीशन में यूपी बोर्ड के हिंदी मीडियम से पढ़े स्टूडेंट्स की ज्यादा पौ बारह रहती थी। सिर्फ रहन-सहन छोड़ दें तो पटौदी और सरदेसाई में कोई फर्क नहीं। बल्कि ज़िंदगी के कई तजुर्बों से पटौदी वाले महरूम रहते हैं। भालू  बंदर का तमाशा उनके नसीब में नहीं। कंचे और गुल्ली -डंडा को ललचाई नज़रों से देखते हैं। सिगरेट की खाली डिब्बियों से वो कभी नहीं खेले। और गीटों को कभी नहीं देखा उन्होंने। मेहरा और जगत जैसे हाफ रेट के सिनेमाहालों के अंदर से कभी दर्शन नहीं कर पाये।

गेट पर कोई खड़ा पुकार रहा है। कॉलबेल ख़राब हैं

हमने खुद को डांटा - ये क्या गुज़रे दिनों की बेकार की बहस की याद ले के  बैठ गया है तू भी। खाली जो ठहरा! खैर,चलो छोड़ो यार ये सब।

सबके अपने-अपने नसीब हैं।

- वीर विनोद छाबड़ा मोबाइल ७५०५६६३६२६

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