परदे में रहने दो!
-वीर विनोद छाबड़ा
मुद्दत पहले की बात
है। सन १९७१ - ७२ की। लखनऊ यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन
कर रहा था।
स्टूडेंट लाइफ मीन्स
फक्कड़ जीवन। साइकिल से आना-जाना। और उसके अलावा ज्यादा से ज्यादा चवन्नी जेब में। बाकी
दोस्तों-यारों का प्यार। अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों, ये दिल तुम्हारे प्यार
का मारा है दोस्तों।
कभी-कभी सब पूल करके
भी चाय-शाय कर लेते थे। जब कभी छटे-छमाही जेब थोड़ी गर्म हुई तो रिक्शा।
एक बार ऐसा ही हुआ।
जेब में दो रुपए थे। बस में बैठे। हनुमान सेतु उतर लिए। वहां से वाकिंग डिस्टेंस पर
यूनिवर्सिटी। लेकिन बीस पैसे दिए रिक्शेवाले को-गेट नंबर एक छोड़ देना भैया।
दो चार लड़कियां तो
देख ही लेंगी। इम्प्रेशन जमेगा। मज़ा आ जायेगा। कार स्कूटर तो थी नहीं और न ही औकात
थी। बस यही रिक्शा ही था रुआब गांठने के लिए।
यही सिलसिला वापसी
पर भी अपनाया।
यूनिवर्सिटी से चले,
हज़रतगंज के लिए। वहां से हनुमान मंदिर से चारबाग़ के लिए बस।
वो दौर लंबे बाल का
फैशन का था। घने बाल वाले को देख कर लगता था मानो किसी ने टोकरा सर पर उलट रख दिया
है। आज की पीढ़ी उस युग को देख कर ज़रूर यही सोचती होगी - यार, उस युग की पीढ़ी के
लोगों के कान नहीं होते होंगे।
अलावा इसके प्रिंटेड
फूलदार फ्रॉकनुमा डिज़ाइन की बुशशर्ट और बेल्ल बॉटम पैंट जो अक्सर शरारे और पायजामे
के क्रॉस का अहसास कराती थी।
बहरहाल, गर्मी के दिन। तपती
धूप। तेज हवा। रिक्शावाले ने हुड चढ़ा दिया। हवा के गर्मागर्म थपेड़ों से पीछे का परदा
लगातार उड़ रहा था।
स्टेडियम के पास पहुंचे।
सन्नाटा पसरा पड़ा था। इतनी तेज़ धूप में निकले कौन? यों भी उस दौर में
स्टेडियम के आस-पास बिज़नेस एक्टिविटी न के बराबर थी।
तभी अहसास हुआ कि कुछ
लौंडे साइकिल से पीछा कर रहे हैं। और साथ में फ़िक़रेबाज़ी भी - वाह गुरू, माल है माल। पीछे से
तो बढ़िया दिख रहा है। चलो सामने से देखते हैं। ये कह कर लौंडों ने साइकिल तेज़ कर दी।
मैंने भी सोचा आने
दो सालों को सामने। देखते ही फट जाएगी।
और वही हुआ।
लौंडे तेज़ी से रिक्शे
को ओवरटेक कर आगे निकले। और बड़ी हसरत भरी निग़ाह से पलट कर देखा।
मुझे देखते ही उनके
होश फाख्ता हो गए। बड़ी-बड़ी होटों से नीचे तक लटकती 'एक्सक्यूज़ मी'
स्टाइल मूंछे। उनमें एक चीखा - अबे,
ये भी लौंडा निकला। फिर उसने एक भद्दी सी गाली दी।
पलट कर मैंने भी चैलेंज
करते हुए गाली दी -अबे, रुक साले। तेरी मां की.…देख तो। तेरा बाप बैठा
है यहां।
उनकी साइकिलें रुकी
नहीं। मेरे डर से नहीं। उनको भातखंडे संगीत विद्यालय की ओर मुड़ती एक और रिक्शा दिख
गयी। जिसका हुड चढ़ा हुआ था। पीछे का परदा बार-बार उड़ रहा था। ऐसा गुमान हो रहा था उसमें
ज़रूर कोई बैठी है।
मैं भी मुस्कुराया
- परदे में रहने दो, परदा जो उठ गया तो भेद खुल जायेगा।
-वीर विनोद छाबड़ा मो. ७५०५६६३६२६
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