-वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह-सुबह दो बहुत पुराने मित्रों का फ़ोन आया - पंडित रवि प्रकाश मिश्र और पंडित
अशोक दुबे का।
हालांकि दोनों में पांडित्य जैसे गुण दूर-दूर तक नहीं है। लेकिन मैं इसलिए उन्हें
पंडित कहता रहा कि शायद उनके ज्ञान चक्षु खुल जाएं।
बहरहाल ये तो मैं डंके की चोट पर कहता था, कहता हूं और कहता रहूंगा
कि दोस्त हों तो उनके जैसे। हर दुःख सुख में तन, मन और धन के साथ हाज़िर
रहते हैं। इससे ज्यादा आदमी को 'इंसान' कहलाने के लिए और क्या चाहिए।
फिर ये दोनों हमारी यूनियन के शीर्षस्थ नेता भी रहे हैं। एक प्रेजिडेंट तो दूसरा
जनरल सेक्रेटरी। दोनों ही हम दोस्तों की महफ़िल की जान और शान। एक भी नहीं तो मज़ा किरकिरा।
दोनों हों तो सोने पे सुहागा।
ऑफिस के दिनों में लंच ब्रेक में हम आठ-दस दोस्त (यूसी पांडे, संजीव कपूर, अनिल ध्यानी, अजय श्रीवास्तव, अनिल सिंह, युधिष्ठिर सिंह, टीपू, मुरारी भाई आदि)
तो जमा हो जाते थे। एक-दो तमाशबीन भी आ जाते थे, हम लोगों की आपस में चकल्ल्स
को फ्री में देखने। चाय स्नैक्स अलग से सूत जाते।
अक्सर शुरआत मिश्र जी में और दुबे जी में 'धत तेरे की, लत तेरे की' से होती थी। नालापारी, घटोत्कच, धरती पर बोझ, निकृष्ट, लल्लू, कल्लू आदि शब्दों
के बाण चलते और जल्दी ही गोलों में कन्वर्ट हो जाते।
फिर हुम दोस्तों की ड्यूटी शुरू होती। मैं मिश्र जी से पूछता - वो कल आप ब्राह्मणो में श्रेष्ठता की कोई सूची
बता रहे थे। क्या वो फाइनल हो गयी?
बस ये सुनते ही दुबेजी का पारा चढ़ जाता। मिश्रजी से भिड़ जाते।
मैं हस्तक्षेप करता तो दोनों मिल कर हम पर अटैक करते - ये हम ब्राह्मणों के बीच
का मामला है। चाहे कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो? मुल्क क्या दुनिया
के किसी भी हिस्से का क्यों न हो? चाहे मैदान हो या देवभूमि (पहाड़ी) …हम एक हैं। कोई
तीसरा नहीं बोल सकता।
इस बीच मैं छोटी ऊँगली दिखा निकल जाता। पांच मिनट बाद लौटता तो चाय और स्नैक्स
आ चुके होते थे। टॉपिक भी चेंज होकर बीजेपी बनाम कांग्रेस चल रहा होता। फिर गावसकर
बड़े या कपिल, सचिन आगे या द्राविड़…जैसे ज्वलंतशील मुद्दे डिस्कस होते। लंच ब्रेक ख़त्म होता। सब अपनी मज़िल की ओर।
मिश्रजी और दुबेजी गले में बाहें डाले दूर दूर ता जाते देखते रहते।
हम लोगों ने कई बार प्रयास किया कि कुट्टी हो जाएं एक बार। ताकि फिर भरत मिलाप
हो, कोई ज़बरदस्त पार्टी-शार्टी हो। लेकिन वो पट्ठे भिड़े नहीं।
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे…
अब सब ख़त्म हो गया। कुछ परलोकवासी हो गए और बाकी रिटायर हो गए। कभी-कभी किसी शादी-ब्याह
में या शमशानघाट-कब्रिस्तान में मिलना हो जाता है। घाव हरे हो जाते हैं। वही पुरानी
वाली चक्कलस। मगर जल्दी ही बिछड़ों की याद में गुम हो जाते हैं।
फिर माहौल को हल्का करने कोई हंसते हुए कहता है - चलो, देर-सवेर तो ऊपर जाना ही
है। वहीं फिर जमेंगे।
-वीर विनोद छाबड़ा मो.७५०५६६३६२६
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