-वीर विनोद छाबड़ा
आज मित्र उदयवीर के
घर जाना हुआ। वो छत पर था। गमलों में लगे पौधों का हाल-चाल पूछ रहा था। बोला - इनसे
बात करनी पड़ती है कभी-कभी।
अचानक मेरी निगाह गुड़हल
पर गयी। अनार की बोन्साई के पीछे से झांक रहा था। एक हलके सिंदूरी रंग का फूल झूम रहा
है। एक पुरानी याद फड़फड़ाती है।
हम १९८१ में इंदिरा
नगर आये थे। तब इक्का-दुक्का ही रहते थे इस ब्लॉक में। पत्नी ने मायके से लाकर एक गुड़हल
का पौधा रोपा। मायके के धन पर मेरा रवैया सख्त रहा है। लेकिन पेड़ पत्ती के मामले में
मैं हमेशा पॉजिटिव रहा हूं।
धीरे-धीरे वो पौधा
बड़ा हुआ और पेड़ में कन्वर्ट हो गया। खूब फूल निकलते हैं । सुर्ख लाल। सुबह-सुबह फूलों की डिमांड बहुत होती है। चूंकि
पेड़ चारदीवारी के काफी अंदर था, इसलिए सुबह गेट जल्दी खोल देता। नही तो लोग
चारदीवारी पर चढ़ जाते हैं। कुछ अंदर भी कूदते हैं । फूल तोड़ने वालों में महिलाओं की
संख्या ज्यादा है। मैं भी सुबह वहां कुर्सी डाल बैठ जाता हूं। चाय पीते-पीते अख़बार
पढता रहता।
करीब बीस साल गुज़र
गए।
चाय पीते हुए अखबार
पढ़ रहा हूं। सुबह का वक़्त है। किसी ने गेट भड़भड़ाया। मैंने उठ कर देखा। एक भद्र महिला
खड़ी हैं। उस भद्र महिला ने भद्रतापूर्वक नमस्कार किया। मैंने भी सर झुका कर अभिवादन
स्वीकार किया और पूछा - कहिये मैडम, क्या खिदमत कर सकता
हूं?
वो बोलीं - खिदमत नहीं।
थोड़ा कष्ट देना है।
मैं सकते में आया - कैसा कष्ट।
वो मुस्कुराई - घबराएं
नहीं। बस दो-चार फूल चाहिए।
मुझे राहत मिली - हां,
हां क्यों नहीं।
मैंने गेट खोल दिया।
उसने शुक्रिया कहा। वो अंदर आयी। फूल तोड़ते-तोड़ते खुद ही बताने लगी - हमें कुछ ही दिन
हुए हैं यहां आये। पिछली गली में किराये पर लिया है। दो-तीन साल में चले जायेंगे। अपना
बनवा रहे हैं न सेक्टर बारह में….
फूल थोड़ा ऊंचा लगा
था। हाथ नहीं पहुंच पा रहा था। मैंने कोशिश की। लेकिन मेरे हाथ भी नहीं आया। मैं अंदर
से स्टूल उठा लाया। स्टूल पर चढ़ गया। थोड़ा डर लगा। गिर न जाऊं।
जाने कैसे वो दिल के
भाव की मैपिंग कर गई - मैंने स्टूल पकड़ रखा है।
फूल हाथ में आ गया।
मेरा सीन गर्व से फूल उठा। जैसे कोई किला फ़तेह कर लिया है। वो भी बड़ी खुश हुई। बच्चों
की तरह ताली बजाने लगी। मैं मुस्कुराया। कुर्सी आगे कर दी - बैठिये।
वो बिना हिचक बैठ गयीं।
शिष्टाचारवश मैंने
पूछा - चाय पियेंगी?
वो हंस दी। मैंने इसे
हां समझ कर पत्नी को आवाज़ दी। उस वक्त वो ऊपर छत पर सफाई करने गयी हुई थी। वो नीचे
आई। उसने सर से पांव उस भद्र महिला का एक परीक्षक की भांति परिक्षण किया। मुझे कुछ
ठीक नहीं लगा। मौसम में दरजाये हरारत ज्यादा महसूस की। मैंने परिचय देना चाहा। परंतु
पत्नी ने मौका ही नहीं दिया - मैं जानती हूं। पीछे गली में आई हैं, वर्माइन के मकान में
किरायेदार हैं।
मैंने महसूस किया कि
पत्नी की आवाज़ में थोड़ी तल्खी है। तभी उसकी निगाह स्टूल पर पड़ी। इससे पहले कि वो पूछती
मैंने बताया - फूल ऊंचा लगा था। इसलिए……
पत्नी स्टूल उठा कर
अंदर ले जाती हुई बोली - अभी बनाती हूं चाय।
उस भद्र महिला ने खुद
से दोबारा बोलना शुरू किया - मेरे पति बिजली के सामान की ठेकेदारी करते हैं। बड़ी-बड़ी
बिल्डिंगों में। यहां रिटेल में भी दूकान खोलनी है.…
इतने में पत्नी चाय
ले आयी। चाय रिकॉर्ड टाइम में बनी है।
खैर ये तो अच्छा हुआ
कि पत्नी भी साथ में चाय पीने बैठ गयी। मुझे उठ कर भागने का मौका मिल गया। जल्दी से
तौलिया उठाया और बाथरूम में नहाने घुस गया। दस मिनट बाद बाहर निकला।
तब तक वो फूलवाली भद्र
महिला जा चुकी थी। पत्नी के चेहरे पर तनाव की लकीरें थीं। मैंने खामोश रहना बेहतर समझा।
इससे पहले इतने ख़ामोशी भरे माहौल में मैं दफ्तर कभी नहीं गया।
सारा दिन बड़ी टेंशन
में कटा - आखिर मेरी गलती क्या है? और उसकी भी नहीं है। बेचारी फूल ही तो तोड़ने
आई थी।
शाम भारी दिल से दबे
पांव घर पहुंचा।
पैरों तले से ज़मीन
खिसक गयी।
गुड़हल का पेड़ वहां
नहीं था।
इससे पहले कि कुछ पूछता
पत्नी बोली - कटवा दिया। दीमक बहुत आ गयी थी।
ये सुनते ही मुझे हंसी
आ गई। शक़ का ईलाज न धन्वंतरि वैद्य के पास है और न हकीम लुक़मान के पास। दुःख हुआ बेचारा
गुड़हल बलि चढ़ गया।
दूसरे दिन वो फूलवाली
उधर से गुज़री। मुझे देख मुस्कुराई। मानो मुझे चिढ़ा रही हो।
तीन महीने बाद वो दिखनी
बंद हो गई। चली गई होगी किसी और मोहल्ले में। एक और गुड़हल की बलि चढ़ेगी।
-वीर विनोद छाबड़ा मो.७५०५६६३६२६
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