Wednesday, July 30, 2014

देखो देखो, साहब चूहा छोड़ने जा रहे हैं!

-वीर विनोद छाबड़ा

अभी कल ही की तो बात है। मैं गजेटेड पोस्ट पर नया-नया प्रमोट हुआ था। वो कहते हैं न कि खुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है। मुझे भी गजेटेड पद की महिमा और गरिमा बनाये रखने के कई स्थापित मानक खुद ब खुद ज्ञात हो गये। मसलन, ढाबे पर खड़े होकर चाय नहीं पीनी, कोई नमस्ते करे तो उसका जवाब सिर हिला कर देना। यदि नमस्ते करने वाली महिला हो तो हौले से मुस्कुरा देना। चैयरमैन के रूम में घुसने से पहले शर्ट के बटन ऊपर गले तक बंद कर लेना और आस्तीन नीचे हाथों तक गिरा लेना। वगैरह, वगैरह। मगर घर में मेरी बिसात में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। पत्नी ने फ़रमान जारी
किया- ‘‘अफ़सर होगे आफ़िस में। घर में सिर्फ पति और बच्चों के पिता हो और जो अब तक करते आये हो वही पहले की तरह करने रहो।’’ निर्वहन हेतु इन्हीं प्रदत्त कार्यों में था- चूहेदानी में फंसे चूहे की कहीं दूर रिहाई। यह भी सख्त ताकीद दी गयी कि ध्यान रहे- ‘‘चूहा मारना पाप है। गणेशजी की सवारी है।’’

मैं सुबह सबसे मूषक महाराज को मेन रोड के परली तरफ बडे़ नाले में विदा करता था। चूहेदानी का मुंह खुलते ही चूहा छलांग लगा कर बाहर कूदता और फिर पलट कर बंदे की तरफ यों देखता मानों चिढ़ा रहा हो - ‘‘बच्चू तैयार रहना लौट कर आ रहा हूं।’’ मुझे लगता था कि सारी मूषक बिरादरी को मुझसे एलर्जी थी। एक दिन मुझे संदेह हुआ कि चूहा इतनी दूर से भीड़-भाड़ भरी सड़क क्रास करके कैसे मेरे घर लौट आता है। एक दिन कैदी चूहे पर मैंने लाल स्याही छिड़क दी। ताकि पता चल सके कि वो वाकई लौटता है या नहीं। लेकिन लाल स्याही वाला चूहा मुझे नहीं दिखा। तब मुझे इत्मीनान हुआ कि चूहा मुझे चिढ़ा नहीं रहा बल्कि आज़ाद करने का शुक्रिया अदा कर रहा है।

चूहेदानी में लगभग रोज़ाना एक आध-चूहा फंसता था। कभी छोटा तो कभी बड़ा। मुझे गुस्सा तब आता था जब रास्ते चलते मोहल्ले के स्वयंभू ज्ञानी-ध्यानी रोक कर चूहे की साईज़ की बावत पूछते लगते। कोई बड़े चूहे को राजसी या खलिहानी बताता और कमजोर को गरीब। कभी-कभी लांछन सुनने को मिलता - ‘‘लगता है आप के घर में कुछ खास खाने को मिलता नहीं। वरना इतना कमजोर नहीं होता।’’ एक साहब बेसुरी आवाज़ में गाने लगे- ‘‘कैद में है बुलबुल सैय्याद मुस्कुराये....।’’ हद तो तब हो गयी जब एक साहब ने चुहलबाजी की - ‘‘अच्छा, तो चूहा फंसा है। लगता है छोड़ने जा रहे हैं?’’ मुझे बहुत गुस्सा आता था कि चूहेदानी में चूहा या छछूंदर ही फंसता है कोई हाथी नहीं। मुझे हैरानी होती कि मैंने अपने अलावा किसी अन्य को चूहेदानी के साथ कभी नहीं देखा। क्या उनको चूहे का सुख नसीब नहीं है? बहुत गये गुज़रे हैं ये लोग। एक बार मैंने पता चलाया। मुझे यह शक़ भी था कि मेरे घर में चूहेदानी होने का फायदा उठाते हुये पड़ोसी अपने घर के चूहों को मेरे घर डायवर्ट करता है ताकि उसके सिर पर गणेश जी की सवारी को पकड़ने का पाप न चढ़े। बीकानेर में देवी जी का एक ऐसा मंदिर भी है जहां हज़ारों-हज़ार चूहे हैं जो वहां बेखटके घूमते हैं।


बहरहाल मैं बड़ा आफ़िसर बनने के बाद जब पहली दफे़ चूहा छोड़ने गया तो महसूस किया कि हर आने-जाने वाला मुझे देख कर व्यंग्य से मुस्कुरा रहा है। कोई तिरछी नज़र से तो कोई हिकारत से देखता हुआ गुज़र रहा है। बर्दाश्त नहीं हुआ तो एक को रोक कर पूछ ही डाला। वह व्यंग्य से हंसा- ‘‘अरे भाई साहब, इतने बड़े अधिकारी को चूहेदानी के साथ देख कर हंसी तो आयेगी ही न!’’ मुझे भी लगा- हां यार, यह पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है।

उस दिन जब मैं दफ़्तर पहुंचा तो सीट पर बैठते ही अनेक अधीनस्थ और मित्र किसी न किसी बहाने मिलने आये। सब घुमा-फिरा कर चुस्की लेते रहे- ‘‘सर, सुना है आज सुबह-सुबह चूहेदानी लेकर चूहा छोड़ने जा रहे थे....अरे सर, चूहा भी धन्य हुआ होगा कि एक क्लास वन आफिसर के हाथों विदाई हुई है।’’ कई लोगो ने तो सुझाव दे डाले - ‘‘साब, आप इतने बड़े आफिसर हैं आपकी पर्सनाल्टी के साथ पर लकड़ी की परंपरागत चूहेदानी जंचती नहीं...लोहे की मोटी पत्ती वाली रखें तो चूहा उसे काट भी नहीं पायेगा...घर में फलानी बत्ती जलायें तो चूहे घर से भाग जायेंगे...एक सफेद चूहा ले आईये, चेहे भाग जायेंगे...सर एक अदद बिल्ली पाल लीजिये।’’ एक अन्यय शुभचिंतक ने बताया -‘‘बांसुरी की बेसुरी धुन की एक ऐसी सीडी बाजार में है जिसे सुन कर चूहे भाग जायेगें...फलां बांसुरी बाज़ को बुला लें जो चूहों को मंत्रमुग्ध करने वाली धुन जानता है। सारे चूहे उसके पीछे चल देते हैं। सबको कुकरैल नाले में डुबो देगा।’’ मगर ये सब समय से बहुत पीछे थे। उनको पता ही नहीं था कि चूहे आदमी की सोच से कई कदम आगे औैर सयाने हैं।

सुझावों को सुनते-सुनते मैं झल्ला उठा। शाम घर लौटा तो पत्नी को दास्तान बतायी और ऐलान किया कि कुछ भी हो जाये मैं आयंदा चूहा छोड़ने नहीं जाऊंगा। मगर पत्नी भी लालगंज के लालसिंह पहलवान की बेटी थी। बोली - ‘‘मैं जाऊं तो अच्छी लगूंगी? इतने बड़े अफ़सर की बीवी चूहा छोड़ने जा रही है! और
फिर बच्चे पढ़ने वाले हैं, उन्हें इन फालतू कामों में नहीं लगाना है। पढ़ाई में हरजा होता है। इस काम के लिये नौकर रखो, नहीं तो खुद करो।’’ एक चूहा छोड़ने के लिये नौकर रखना तो कतई मुनासिब नहीं था। लिहाज़ा पत्नी का फरमान सिर आंखों पर रखना ही ठीक था। जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है। मैंने तय किया कि देर रात में या अलसुबह अंधेरे में इस काम को अंजाम देना ठीक रहेगा।

यों मेरा और चूहों का संग बहुत पुराना है। लखनऊ के आलमबाग में बचपन गुज़रा था। वहां ढेरों चूहे थे। और जब चारबाग आये तो वहां चूहों की मानों खेती थी। दूर-दूर तक तक चूहे ही चूहे। मोटे मोटे पांच पांच किलो वाले वजन वाले। चारबाग रेलवे स्टेशन के पार्सलघर औार मालगोदाम में चूहों का साम्राज्य था। तब भी चूहों को पकड़ने एक ही कारगर उपाय था- चूहेदानी। इन्हें कही दूर छोड़ने का शुभ काम मेरे ही जिम्मे था। इनके सफाये के लिये कई बार बिल्ली भी रखी। मगर मोटे-मोटे चूहों का साईज देखकर भाग खड़ी हुर्हं। लगा जैसे बिल्ली के गले में घंटी बांधने में कामयाब हो गयी गणेश जी के मूषक की ये सेना। नतीजा यह हुआ कि चूहों की जनसंख्या बढ़ने लगी। मैंने चूहों की चतुराई के भी अनेक किस्से सुन-पढ़ रखे थे। कई कहानियां भी लिखी, जिनमें चूहों की बहादुरी और चतुराई के कई किस्से बयान किये।

मुझे अभी तक याद है कि मैंने दोस्तों संग मिलकर एक प्रयोग किया था। एक तसले में खूब सारा तेल भर दिया। और फिर उसके बीचों-बीच एक कटोरे में लड्डू रख दिये। और छुप कर देखने लगे। चूहे उस तसले के ऊपर से गुजर रही रस्सी के सहारे एक-दूसरे की दुम मंह में पकड़ कर लटक गये और सारे लड्डू एक-एक करके गप्प कर गये। एक दिन की बात है। मेरा परिवार कुछ दिन के लिये बाहर गया।
गल्ती से चूहेदानी खुली रह गयी। उसमें चूहा फंस गया। जब उसे बहुत देर तक मुक्ति नहीं मिली तो उसने गुस्से में चूहेदानी ही काट डाली। इसमें इसका सहयोग निसंदेह चूहेदानी से बाहर बड़ी मात्रा में स्वछंद घूम रहे चूहों ने भी बखूबी दिया था।

इतिफ़ाक देखिये कि बड़े होने पर मुझे जिस आफिस में नौकरी मिली वहां भी चूहों का साम्राज्य स्थापित था। यह एक बहुमंजिली इमारत थी जिसमें पहली से पंद्रहवीं मंजिल तक कार्यालय बंद होने के बाद चूहों की अठखेलियां शुरू होती थीं। उनका मुख्य निशाना फाईल कवर की स्पाईन पर चिपकी मैदे की लेई से चिपकी कपड़े की पट्टी होती थी। इसे कुतरने में उनको विशेष स्वाद मिलता था। एक बार प्रयोग के तौर पर लेई में तूतिया मिलाया गया। चूहों ने उसे सूंघा और खिसक लिये। लेकिन यह सिस्टम चल नहीं पाया क्योंकि फाईल कवर बनाने वाले के स्वास्थ्य के लिये तूतिया हानिकारक था। यों लंच समय में भी ये चूहे बाबू लोगों के लंच करने के दौरान ज़मीन पर गिराई सामग्री साफ करने का शुभ कार्य करते थे।

एक दिन मैं काम में इतना व्यस्त रहा कि लंच करना याद नहीं रहा और दैवयोग से शाम लंच बाक्स भी वहीं छूट गया। दूसरे दिन देखा तो लंच बाक्स ज़मीन पर गिरा पड़ा था। खाने का एक कतरा भी नहीं बचा था। मजबूत फाईबर शीट से बना डिब्बा कई जगह से कटा हुआ था। यकीनन चूहों का पूरा गिरोह जुटा होगा। एक साहित्यकार ने चीनी के मर्तबान पर पर्ची चिपका रही थी-नमक। मैंने पूछा। ऐसा क्यों? वो बोले- ‘‘पढ़े लिखों का घर है। किताबें कुतरने वाले चूहों में इतनी अकल तो होगी ही कि नमक पढ़ कर इसे बक्श दें।’’ मगर चूहों को मूर्ख बनाने का उनका यह प्रयोग सफल नहीं हुआ।


जब मैं रिटायर हुआ तो लगा कि अब तो छाती ठोंक कर दिन चढ़े भी चूहा छोड़ने जा सकता हूं। देखें अब कौन माई का लाल आफिस में इसका प्रचार करता है। मगर अतीत के भूत ने पीछा नहीं छोड़ा। मैं दिन चढ़े चूहे की बिदायी करने निकला। पड़ोसी ने टोक ही दिया- ‘‘अच्छा तो रिटायरमेंट के बाद आपको काम मिल ही गया। अच्छा है, लगे रहो।’’ वो यहीं नहीं रुके। आगे बोले - ‘‘ऐसा क्यों नहीं करते कि मोहल्ले भर की चूहेदानियां बटोरिये और बहुत दूर छोड़ आने की गारंटी लीजिये। काम काज बढ़े तो सामान ढोने वाली छोटी गाड़ी भी खरीद लीजियेगा। अच्छी आमदनी होगी।’’ एक और साहब ने छींटा फेंका - ‘‘आ गये औकात पर। अरे मैंने तो बड़े-बड़े बत्ती वालों को ढक्कन बने देखा है। अब इन्हें देखो चूहा छोड़ने जा रहे हैं। एक्सटेंशन तो मिला नहीं, यही करो।’’

मैं सिर पीट कर रह गया। साले, मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ेंगे। अगले दिन से मैंने मूषक रिहाई का कार्यक्रम फिर से पौ फटने से पहले शुरू कर दिया।

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर
लखनऊ- 226016
मोबाईल - 7505663626

दिनांक 31, जुलाई 2014

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