Tuesday, July 15, 2014

ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद !

- वीर विनोद छाबड़ा

लखनऊ यूनिवर्सिटी। सत्तर के दशक का शुरुआती दौर।
मस्त ज़िंदगी। कोई दुःख नहीं, गम भी नहीं। हर शोक और फिक्र को धुंए में उडाते चले जाने वाले  मोड का युग।
हम पांच साथी थे। मैं, रवि प्रकाश मिश्रा, प्रमोद जोशी, विजय वीर सहाय और उदय वीर श्रीवास्तव। हमारा ग्रुप हरफनमौला था। किसी को कोई दिक्कत होती थी तो हमारी शरण में आता था। उसकी परेशानी ज़मीन आसमान एक कर के दूर देते।  
एक बार परेशां सहपाठी बड़ी आस लिए मिले। दिल खोल दिया। मामला एक तरफ़ा दिल का था। हमारे दिल पसीज गए। उसे यकीन दिलाया कि इस मोहब्बत को अंजाम तक पहुंचाएंगे। इसके अंजाम पर रोना नहीं होगा और न दूर खड़े होकर गुब्बार देखना होगा। यह बहारों फूल बरसाओ में कन्वर्ट होगा।
वो आश्वस्त हुआ। हम होंगे कामयाब एक दिन।
बस फिर क्या था। हम जुट गए। खून-ए-जिगर से लबरेज़ एक खत महबूब की ओर से महबूबा को लिखा। न पाने वाले का नाम लिखा और न देने वाले का। ताकि पकड़े जाने पर मुकर जाने की गुंजाईश बनी रहे। चांद-तारे तोड़ कर सब महबूबा के नाम पर कर दिए। मोहब्बत के लिए सारी खुदाई तक छोड़ने की क़सम। जाने क्या-क्या लिखा। दावा किया कि इस ख़त को पढ़ कर खिंची चली आएगी। उसे महबूब की शक्ल में सारी क़ायनात दिखेगी।
ख़त के बॉर्डर और हर खाली जगह पर तमाम फूल-पत्ती की नक्काशकारी की गयी। एक गुलाबी रंग के एनवलप में उस इज़हार-ए-मोहब्बत वाले  खत को रख कर उस प्रेमरोगी को पकड़ाया - जा बेटा। पकड़ा दे महबूबा को और फिर देख कमाल। खिंची चली आएगी। बड़े से बड़ा तांत्रिक और जादूगर भी महबूबा को सम्मोहित होने से नहीं रोक सकता।

अगले रोज़ चंदन-मंडन लगा और कलफ लगे इस्त्री किये शर्ट-पतलून पहन वो प्रेमरोगी उस प्रेमिका के पीछे चल दिया जो अपने इस प्रेमी के पागलपन से पूरी तरह अनजान थी। पीछे-पीछे हमलोग भी थे।
प्रेमिका के साथ उसकी सहेली भी थी। परंतु प्रेमी महोदय प्रेमिका के करीब पहुंच कर इतना घबराये कि वो ख़त प्रेमिका को देने की जगह उसकी सहेली को पकड़ा बैठे। और भाग खड़े हुए। साथ में हम भी।
हमें मालूम था कि उस सहेली के घर वाले दबंग लोग थे। अब तो हम सब गए काम से! जाने हमारी हड्डी-पसली का क्या होगा!
उस सहेली ने वो खत अपने घर वालों के हवाले कर दिया। खत उसके पिता और उसके चार पहलवाननुमा भाइयों ने पढ़ा। परंतु हैरत की बात कि उन्होंने पिटाई वाला कोई एक्शन नहीं लिया। बल्कि यह सोचा कि जो लड़का खून-ए-जिगर से इतना खूबसूरत खत लिख सकता है वो उनकी बेटी से कितनी मोहब्बत करता होगा। और आगे भी करता रहेगा। उसे खूब खुश रखेगा।
बस फिर क्या था। वे उस प्रेमी के माता-पिता से मिले। उनके लखते जिगर की करतूत से वाकिफ कराया। और शादी का दबाव बनाया।
 
लड़के वाले भी तैयार हो गए। अच्छा पैसे वाला दबंग खानदान मिल रहा है। लड़का ताउम्र सुखी रहेगा।
प्रेमी महोदय ने हमें हज़ार-हज़ार बार कोसा कि ऐसा खत लिखा ही क्यों।
न चाहते हुए भी उन प्रेमी महोदय को प्रेमिका की सहेली से ब्याह करना पड़ा।
आज चालीस से ज्यादा बरस गुज़र चुके हैं। वो प्रेमी अपनी कथित प्रेमिका की सहेली के साथ बेहद सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बच्चों की अच्छे घर शादी कर चुके हैं।
परंतु अपने पहले प्यार को वो प्रेमी आज तक नहीं भूले हैं। हसरत लिए फिरते हैं कि बस एक बार देख लूं। उस प्रेमिका की भी शादी हो चुकी है। उसके घर की गली का भी पता है उन्हें। हफ्ते में एक दिन उस गली का चक्कर ज़रूर लगाते हैं। मेरे अच्छे मित्रों में हैं।
 
एक दिन मैंने समझाया कि अब वहां क्या रखा है। वो भी तुम्हारी तरह बूढी हो चुकी होगी। न तुम उसे पहचान पाओगे और न वो तुम्हें। खामखाँ बुढ़ापे में पिटने का इंतिज़ाम कर रहे हो। लेकिन वो मानते नहीं। बोलते हैं वो भले न पहचाने। मैं तो पहचान लूंगा। मेरे दिल में रहती है। वो जनाज़े में लिपटी होगी तब भी पहचान लूंगा। बस एक बार दिखे तो। हम इन्तिज़ार करेंगे क़यामत तक।
वाकई प्यार दीवाना होता है! और इसके साथ ही मुझे अपने ही ज़माने के किसी अनाम शायर का यह मशहूर शेर याद आता है -
ख़ुदा करे हसीनों के मां-बाप मर जाएं
बहाना ग़मी का हो और हम उनके घर जाएं।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी० २२९० , इंदिरा नगर,
लखनऊ - २२६०१६
मोबाइल नं० ७५०५६६३६२६

दिनांक १६ जुलाई २०१४

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