- वीर विनोद
छाबड़ा
एक ज़माना था
जब बंदा बहुत सोशल हुआ करता था। सगे-संबंधी व प्रिय मित्र ही नहीं, अपितु अड़ोस-पड़ोस
या आफ़िस के कलीग या किसी मित्र के परिजन भी बीमार पड़ते थे अथवा अस्पताल में भर्ती होते
थे, तो ख़ैरीयत पूछने, जल्दी ठीक होकर घर लौटने की कामना करने और तन-मन-धन से सेवा
के लिये सदैव तत्पर रहने वालों में सबसे आगे बंदा ही खड़ा मिलता था। लेकिन एक दिन उसने
अचानक ही यह समाज सेवा बंद कर दी। दरअसल हुआ ये था कि एक बार वह गंभीर रोग से ग्रस्त
परिजन को देख कर घर लौटा ही था कि पीछे-पीछे खबर आ गयी कि वो परिजन भगवान को प्यारे
हो गये। मरीज़ के संबंधियों ने बंदे पर इल्जाम लगा दिया कि बंदे के जाते ही उनकी तबीयत
बिगड़ गयी। न बंदा देखने जाता न यमदूत आते। ऐसा दो बार फिर हुआ। यद्यपि ये मात्र संयोग
के मामले थे, लेकिन दबी जुबान में बंदे को ही इसके लिये को दोषी माना गया। बंदे को
भी ऐसा लगा था कि जब वो अस्पताल में भरती प्रियजन को देखने जाता है तो यमदूत भी उसके
साथ हो लेते है।
डसके बाद से
बंदा अस्पताल के नाम से भी डरने लगा। वो सदैव भगवान से प्रार्थना करता था कि उसके अस्पताल
में भरती होने की कभी नौबत न आये। दो-तीन बार वो भरती होते होते बचा। एक बार सड़क पर
बिखरे चिकने तेल पर स्कूटर स्किट कर गया। नतीजे में उसका कंधा जगह से हट गया। डाक्टर
भरती करने पर तुल गया। बोला था- एनीथीसिया देना पड़ेगा। लेकिन बंदे ने बिना एनीथीसिया
लगवाये
असहनीय दर्द बर्दाश्त करके कंधा फिट करा लिया तो डाक्टर ने उसे बहादुर आदमी
का खिताब देकर छोड़ दिया। दूसरी बार पीठ पर निकली एक गिल्टी ने बहुत परेशान किया। लेकिन
आपरेशन के चार घंटे बाद उसे इसलिये छुट्टी दे दी कि अस्पताल में बेड खाली नहीं था।
मोतिया बिंदू के आपरेशन के दो घंटे बाद डाक्टरों ने खुद ही छुट्टी कर दी।
लेकिन एक दिन
बंदा ऐसा फंसा कि उसे मजबूरन अस्पताल में भरती होना ही पड़ा। डी-हाईड्रेशन के साथ टाईफाईड
भी था। हालांकि बंदे ने अस्पताल में भरती होना एक बहुत सीक्रेट मिशन रखा लेकिन पत्नीश्री
के अति उत्साह ने मिशन का बेड़ा ग़र्क कर दिया। दरअसल पत्नी को मरीजों को अस्पताल में
भरती परिजनों की मिजाज़पुरसी और सेवा करने का बड़ा शौक है। आज उसे भी अवसर मिला था कि
पति बीमार होकर भरती हैं और भारी मात्रा में लोग मिजाज़पुरसी को आयें। यानि बोई फसल
काटने का वक़्त आया था।
बंदे के अस्पताल
में भर्ती होने की ख़बर जंगल में आग की तरह चारों ओर फैली। पहले ही दिन से सुबह से
शाम तक मिलने वालों का तांता लगा रहा। बंदे को चेहरा पढ़ कर दिल के हाल का सटीक अंदाज़
लगाने की विशेषता प्रकृति प्रदत्त है। वो चेहरा देखते ही पहचान गया कि कुछ लोग उसके
आखिरी दीदार के लिये पधारे हैं। कुछ तो हाल जानने के बहाने पिकनिक मनाने मय पत्नी और
बच्चों के साथ दोपहर चढ़ने से पहले आये और शाम ढले लौटे। इस बीच उनके बच्चे अस्पताल
के चिकने फर्श पर स्किट करते हुए जोर-जोर से किलकारियां भरते रहे। लंच भी वहीं किया
और चाय-नाश्ता भी। दरअसल ऐसे लोगों के लिये अस्पताल किसी पिकनिक स्पाट से कम नहीं होता
है। अस्पताल के आस-पास दुकानों और ठेलों पर बच्चों के तरह तरह के खिलौने व गुब्बारे
प्रचुरता में उपलब्ध हैं। आईसक्रीम और कोल्डड्रिंक भी भरपूर है। चाय-नाश्ते और खाने-पीने
में पूड़ी-कचौड़ी चाइनीज़ व साऊथ इंडियन टेस्ट
के खूब सारे ढाबे भी हैं। इनमें कोई क्वालिटी प्रिपेरेशन नहीं होता। साथ ही दाम भी
दूसरी जगह से ड्योढ़े हैं। परंतु मरीज़ की ज़रूरत वाला खाना नहीं मिलता। वो घर से ही लाना
पड़ता है। लेकिन दूर से या दूसरे शहर से आये मरीज़ और परिजन यही खाने पर बाध्य हैं। मिजाज़पुरसी
करने आने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक रही जो दोपहर की रसोई का काम खत्म करके
बच्चों सहित आ धमकती हैं और दिन भर पंचायत करती हैं।
शाम का वक़्त
दफतर से लौटते हुए कर्मियों का है। उनकी शाम की चाय वहीं होती है। बंदे के सामने बैठ
कर चटखारे लेते हुए समोसा व ब्रेड पकौड़ा भकोसते हैं। रिवाज़ के मुताबिक कुछ सलाह भी
दे गये कि बंदे को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। ईलाज की विधियां भी बताई - ‘‘अरे
इस मर्ज़ का ईलाज तो फलां पैथी में बहुत कारगर है...फलां हकीम जी को जानता हूं। हाथ
में कमाल का जादू है...मेरी सास को तो दो दिन की मेहमान थी, मगर उनके ईलाज से दो दिन
बाद उठ कर सरपट दौड़ने लगीं...अरे, यहां नहीं वहां भरती करते...फलां अस्पताल के डाक्टर
बहुत अच्छे हैं...इस बीमारी का ऐलोपैथी कारगर ट्रीटमेंट तो है लेकिन साईड अफेक्ट बहुत
हैं...मेरे जीजा जी ठीक तो हो गये थे मगर महीनों भूख गायब रही।’’ कुछ मिलने वालों ने
तो बंदे हाल का पूछने की बजाय अजीबो-गरीब बीमारियों के किस्से-कहानियां सुना डाले।
हंसी ठट्ठा करने वालों की भी कमी नहीं रही।
जल्दी ही बंदा
इन मिलने वालों से उकता जाता है। आगंतुको के कारण उसका आराम करना हराम हो गया। अस्पताल
का प्रशासन भी आगंतुकों पर सख्त कार्यवाही करने में असमर्थ था क्योंकि वहां भरती लगभग
सारे मरीज़ खुद को वीआईपी तो समझते ही थे, आगंतुक भी खुद को किसी न किसी मंत्री-संत्री
या माननीय के रिश्तेदार या उनसे संबंधित बताते थे।
बंदे की पत्नी
शुरू में तो बेहद प्रसन्न थीं कि उनके पति को लेकर सारी दुनिया चिंतित हैं। उसे लगता
था कि इससे वहां भरती दूसरें मरीजों और अस्पताल के स्टाफ़ पर खासा रुआब पड़ा है। परंतु
अब वो इस बात को लेकर परेशान है कि बीमार पति की सेवा करे या आगंतुकों की आवभगत। और
फिर हर शख्स को सविस्तार बताना भी जरूरी होता था कि बंदे को यह तकलीफ कैसे हुई? क्या
खाया था? तकलीफ के लक्ष्ण कैसे पता चले? कब भरती किया? कैसे भरती किया? एंबुलेंस से
ले गये या रिक्शे से या आटो में लाद कर लाये?
बंदे ने वहां
रहते हुए गौर किया कि कुछ मरीज़ ऐसे भी भरती थे जिनकी ठीक-ठाक होने के बावजूद वहां से
जाने की कतई इच्छा नहीं थी। डाक्टर से तरह-तरह की तकलीफें होने का बहाना बनाते दिखे।
शायद वो घर से ऊब हुए थे। इसी बहाने दफ़तर के काम के बोझ से कुछ दिन मुक्ति मिलती है
और पत्नी व बच्चों को उसकी अहमियत का अहसास भी होता है। कुछ तो आये दिन भरती होना पसंद
करते थे। बाज़ तीमारदारों और मिजाज़पुर्सी करने वालों को भी अस्पताल के चक्कर लगाने में
बड़ा आनंद प्राप्त करते देखा मानों अस्पताल ‘प्लीज़र हंट’ है।
एक दिन पड़ोसी
प्रेमजी आये। देखते ही बोले - ‘‘मेरे साले को भी ठीक यही थी। लेकिन वो सुधर नहीं सके
थे। दो दिन में ही टांय-टांय फिस्स कर गये। यह बीमारी ही ऐसी है।’’ तेजी से स्वास्थ्य
लाभ कर रहे बंदे की यह सुन कर मानों सांस रुकने को हो गयी। दिल बैठने लगा। बंदे ने
उनको कई बार चुप रहने का इशारा किया। लेकिन प्रेमजी चुप न रहने की क़सम खाकर आये था।
मरीजों को शमशान घाट तक पहुंचाने के किस्से बताने बदस्तूर जारी रखे। अंततः बंदे की
पत्नी को साफ-साफ कहना पड़ा- ‘‘भाई साहब, प्लीज़ ऐसी बातें यहां मत करें। लोग यहां आकर
ठीक होने की शुभकामना देते हैं और आप हैं कि इनकी बिदाई की तैयारी कर रहे हैं। अब इनके
आराम करने का समय हो गया है।’’ साफ इशारा था कि खिसक लो। प्रेमजी चुप तो हो गये मगर
चिपक कर बैठे रहे। बंदा उनके चेहरे को पढ़ रहा था। वो अभी और कुलाचें भरना चाहते थे।
तभी एक अन्य पड़ोसी आ गये। पत्नी ने उनके कान में धीरे से अनुरोध किया कि जाते वक़्त
प्रेमजी को भी ज़रूर साथ लेते जायें। वो समझदार थे। दस मिनट में चले गये और प्रेमजी
को भी लगभग घसीटते हुए बाहर ले गये।
दो दिन बाद बंदा
डिस्चार्ज हो गया। घर पर भी मिलने वालों का तांता लगा रहा। शुक्र है बंदे को ऊपर रवाना
करने वाले प्रेमजी ने शकल नहीं दिखाई। बंदे ने मज़ाक में एक मित्र से उनका ज़िक्र छेड़
दिया। वो बोले- ‘‘अमां नाम न लो उस बेहूदे का। कईयों को ऊपर भेज चुका है। एक बार मुझे
भी। जिसको भी अस्पताल देखने जाता है ऐसा ही करता है। साले की आदत है। तुमसे अपने साले
को ऊपर भेजने के बारे में बता रहा था तो मेरे सामने फूफा को जहन्नुम भेजा था।’’
यह सुन कर बंदे
की जान में जान आयी। उसने प्रण किया कि ठीक होने के बाद वह अस्पतालों में जा कर प्रचार
करेगा कि मिजाज़पुरसी करने वालों को जितना दूर रखेंगे उतनी ही जल्दी स्वस्थ्य होंगे।
और दुष्ट प्रवृति और सोच वाले को कभी निकट नहीं आने दें। ये सिर्फ़ उम्र घटाने का काम
करते हैं।
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वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा
नगर
लखनऊ -
226016
मोबाईल 7505663626
दिनांक 11
07 2014
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