Tuesday, July 8, 2014

ओ बिजली वाले बिजली बना!

-वीर विनोद छाबड़ा

सुबह-सुबह दरवाजा कोई बुरी तरह पीट रहा था। लगा कोई बहुत गुस्से में है या भयंकर आफत आई है। बंदा जल्दी से उठा। देखा पड़ोसी शाहजी मोहल्ले भर को बटोर कर बंदे के द्वारे मजमा लगाये हैं। इससे पहले कि बंदा पूछने का साहस करता शाहजी चिंग्घाड़े- ‘‘तान के सो रहे हो। होश है कि नहीं? मोहल्ले की बिजली गायब है। अब यह न कहना कि सब्र करो, थोड़ी देर में आती होगी। अरे, ट्रासंफारमर दगा है, ट्रासंफारमर। अब दिन भर हम ही झेलेंगे। तम्हारा क्या? बिजली वाले हो। स्पेशल अंडरग्राऊंग केबिल बिछी है।’’

ऐसी जली-कटी व उत्तेजित भाषा से बंदा तनिक विचलित नहीं होता। ऐसे नज़ारे आये दिन देखता है। उसका यह समझाना हमेशा व्यर्थ जाता है कि हम मामूली बिजली कर्मी हैं। न तो बिजली उत्पादन से संबंध है और न ही प्रेषण या वितरण से। मगर इन शाहजी को और मोहल्ले वालों को क्या समझाऊं। बिजली संबंधी हर मुसीबत के लिये बंदे को ही जिम्मेदार मानते हैं। दरअसल बिजली वालों पर गुस्सा उतारने के लिये उन्हें यह निरीह बंदा ही सबसे निकट दिखता है। करे कोई, भरे कोई।

हृदय विदीर्ण तो तब होता है जब पत्नी और बच्चे भी कोसने वालों के सुर में सुर मिलाते हैं। पत्नी आये दिन ताना मारती है- ‘‘बड़ी शान से कहते हैं राजधानी है प्रदेश की। चैबीस घंटे बिजली। यही सोच कर ब्याह किये थे। मगर असलियत देखो। कभी जंपर उड़ा है तो कभी तार टूटा। और कभी मुआ ट्रांसफारमर फुंक गया। न जाने का टाईम और न आने का। अच्छा हुआ मेरी मां नहीं आयी। टी0वी0 पर राजधानी की बिजली का बुरा हाल सुन के प्रोग्राम कैंसिल कर दिया। गंगा बाबू की बेटी ने भी सगाई तोड़ दी है। कहती है ब्याह वहीं करेगी जहां चैबीस घंटे बिजली होगी।’’


पत्नी धाराप्रवाह बोले जा रही है और बंदा अपने उस युग में टहलने चल दिया जब बिजली थी ही नहीं। मगर फिर भी कोई त्राहि-त्राहि नहीं। सकून था। उजाले की आशा थी। किरोसीन की लालटेन और ढिबरी का युग। रात इसी की रोशनी में धूंआ-धूंआ रसोई में भोजन बनना। पर्याप्त रोशनी के अभाव में थाली में से टटोल कर खाना। भीष्ण उमस गर्मी, पसीने से लथ-पथ, घुमौरियों से भरा जिस्म। रात भर बिलबिलाना। नींद न आना। तब मां का पंखा झलते हुए लोरी सुनाना। जाने कब नींद आ जाना। भोर में उठने पर मां को फिर रसोई में जूझते हुए देखना। लगता था मां जैसे कभी सोती ही नहीं।

यादों की गलियों में साफ-साफ दिखता है। स्कूल में बिजली नहीं है। तपती हुई टीन की छत वाले कमरे में पढ़ाते मास्टर जी। बिना प्लास्टर की दीवारों में अनगिनित डिज़ाईनदार चाकोर छेद जिनसे छन कर आती रोशनी और गर्म हवा। टाट पर बैठा कर इमला बोलना और पहाड़े याद कराना। सेठे की कलम से तख्ती पर हिंदी और होल्डर में जी निब लगा कर अंग्रेजी लिखना। कभी-कभी मास्टर जी का स्वंय गर्मी से बेहाल होने पर स्कूल के पीछे मैदान के किनारे लगे नीम के पेड़ की घनी छांव तले ठंडी हवा के झोंकों संग झूम झूम कर पढ़ाना। इतने कष्टों के उपरांत भी कोई शिकवा नहीं। सरल व सादा जीवन।

तभी आहट हुई। बंदे की तंद्रा टूटी। वर्तमान में लौटा। देखा, पड़ोसी गिरि प्रसाद जी की पोती खड़ी है। हाथ में कटोरा है। बंदे के कुछ पूछने से पहले बोली- ‘‘अंकल, मेरे पापा कहते हैं पड़ोस वाले शैतान अंकल सारी बिजली खा जाते हैं। बड़ी गर्मी लग रही है। थोड़ी बिजली दे दो न।’’ यह कहते हुए वो कटोरी आगे कर देती है।

बंदा निरुत्तर हो जाता है। काश वो मौजूदा निजाम का चीफ़ होता या फिर अलादीन के चिराग़ का जिन्न उसके कब्जे़ में होता! वो ज़रूर कुछ ऐसा करता कि जनता-जनार्दन बिजली को न तरसती। फिलहाल बंदा उस नन्हीं बच्ची को यह कह कर वापस भेजता है -‘‘अपने पापा को कहना कि पड़ोसी अंकल बत्ती लाने बिजली घर जा रहे हैं। वो भी पीछे आयें। हम बिजली ज़रूर लायेंगे।’’ हमारी पीढ़ी ने अभाव में भी खुशी-खुशी गुज़ारा कर लिया। लगता है मौजूदा पीढ़ी तरसती रहेगी।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
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मोबाईल नं0 7505663626

दिनांक 09. 07. 2014

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