Saturday, July 22, 2017

आग लगी हमरी झोंपड़िया में हम गावें मल्हार!


-वीर विनोद छाबड़ा
वो भी क्या सुखद दिन थे! साठ के दशक की शुरुआत। लखनऊ के आलमबाग का चौराहा। वहीं होता था चार टांगों पर खड़ा एक विशाल ट्रांसफार्मर। 
याद पड़ता है पूरे चंदर नगर और आस-पास के कई मोहल्लों को यहीं से थी बिजली की सप्लाई। मार्टिन एंड बर्न के ज़िम्मे था लखनऊ में बिजली सप्लाई। ऐशबाग़ और तालकटोरा दो तापीय पावर हाउस थे। बिल जमा करने रेसीडेंसी तक दौड़ लगती। टाइम पर बिल जमा नहीं हुआ तो अगले दिन बिजली कट।
कभी-कभार ही जाती थी बिजली। ट्रांसफर भी कभी-कभी दगते, ज़बरदस्त ब्लास्ट के साथ। चौबीस से छत्तीस घंटे लगते थे इसे बदलने में। गर्मी के दिनों में तो जान निकल जाती। लेकिन जनता भी थी कमाल के सबर वाली। चूं तक न करती। हाथ से झलने वाले तरह-तरह के पंखे। और फिर जनता इतनी सुविधा-परस्त भी नहीं थी। दिन किसी तरह कट जाता और रात के लिए तो वैसे भी खुली छत। ठंडी-ठंडी हवा। दरी बिछाई और सो गए। 
बहरहाल ट्रांसफार्मर का दगना बहुत बड़ा इवेंट होता। तमाम बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े तक जमा हो जाते। टकटकी लगाये फूंके ट्रांसफार्मर को रस्सियों के सहारे उतारते और फिर दूसरे-तीसरे दिन नया या उसी को मरम्मत होकर चढ़ाते देखना। यह जटिल और कौतुहलपूर्ण प्रक्रिया होती। और जैसे ही बत्ती आती एक साथ कई मोहल्लों से ख़ुशी का शोर उठता। आस-पास खड़े लोग खूब जोर-जोर से तालियां बजाते। बिजली कर्मियों को लोग शुक्रिया कहते। ऐसे ही आत्मिक सुख का अहसास टूटे तार को जोड़ते हुए देखने पर भी होता।
बचपन से लेकर जवानी तक फूंके ट्रांसफॉर्मरों की तलाश और उन्हें उतरते-चढ़ते देखने का शौक जारी रहा।
बड़े हुए। संयोग से नौकरी बिजली विभाग में मिली। बड़े-बड़े ट्रांसफार्मर और विशालकाय पावर हाउस देखे। लेकिन जले ट्रांसफार्मर की जगह नया लगते देखने की चाह नहीं चूकी।
अस्सी के दशक में इंदिरा नगर आये तब पता चली बिजली की अहमियत और दिक्कत । कभी तार का टूटना तो कभी टीपीओ उड़ जाना। कभी बस-बार तो लीड जल जाती। ट्रांसफर तो अक्सर उड़ा करते। डिमांड ज्यादा सप्लाई कम। ट्रांसफार्मर और तारें लोड न ले पातीं। ऊपर से आंधी तूफ़ान जैसी दैवीय आपदाएं।

बिजली जाती तो कई-कई घंटे बाद आती है। टेलीफोन-मोबाइल तो हमेशा बिज़ी टोन सुनाता है। कई-कई बार सब-स्टेशन की दौड़ लगती है। लाइनमैन और दूसरा स्टाफ़ बड़े तरलों के बाद है।
बिन बत्ती के न दिन कटता और न रात। इन्वर्टर से कुछ तो राहत है। लेकिन आत्मिक सुख उठाने की आदत तो पड़ी ही हुई है। बत्ती गयी नहीं कि न दिन देखा और न रात, सूंघते-सांघते पहुंच गए जहां लाइन टूटी है या ट्रांसफार्मर दगा है।
वहां पहुंचने वाला मैं पहला बंदा कभी नहीं होता हूं। मुझसे पहले ही मेरे जैसे टाइम पास करने वाले निठल्ले रिटायर्ड मौजूद होते हैं। कम्पटीशन की तैयारी में लगे आस-पास के अनेक नौजवान भी मदद के लिए जुटे होते हैं। सबको चिंता रहती है कि जल्दी बिजली आये। इन्वर्टर पर ज्यादा देर तक भरोसा नहीं होता।
महिलाएं भी निकल आती हैं। ठंडे पानी की बोतलें लेकर। आख़िर इंसान ही तो होते हैं ये पसीने से तर-बतर खंबे पर चढ़े बिजली वाले। इनके पास कभी रबड़ के दस्ताने नहीं होते तो कभी इंसुलेटेड प्लास। फ्यूज़ बांधने के तार और फंटी की तो अक्सर किल्लत रहती है। आस-पास के घरों से ही जुगाड़ हो पाता है।

लीजिये अभी-अभी ट्रांसफार्मर के दगने की आवाज़ आई है। चल के देखूं।
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22 July 2017
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