- वीर विनोद छाबड़ा
यूं तो हमें दिलो जान से
चाहने वालों की कमी नहीं है। लेकिन एक हैं रवि प्रकाश मिश्रा मेरे पक्के भाजपाई
दोस्त। लेकिन दोस्ती पहले और पॉलिटिक्स बाद में। मुझसे महीने भर ही बड़े होंगे।
कहीं खाया-पीया और पेमेंट का नंबर आया तो इन्होंने मुझे कभी जेब में हाथ नहीं
डालने दिया।
सत्तर के दशक का शुरुआती दौर
था। हमने इनकी हवेली (मिश्रा भवन) में बहुत चाय पी है। पटियाला साइज़ के शीशे वाले
गिलास में।
चाय वाकई बहुत बढ़िया होती
थी। दो वजहों से।
एक तो प्यार की मिठास। और
दूजे चीनी की मिठास। गिलास के पैंदे में इतनी ज्यादा चीनी जमा रहती थी कि चम्मच
खड़ा हो जाए। यह समझिए की चाश्नी घुली चाय पी रहें हैं।
बीच बीच में मिश्रा जी पूछते
भी रहते थे - चाय ठीक लग रही है न?
हम लोग सिर्फ़ हां ही बोलते
थे। बहुत बढ़िया कहने की गलती नहीं करते थे। जब कभी गलती हुई तो समझिए कि फिर एक
पटियाला गिलास में ऊपर तक भरी चाय, चाश्नी वाली चाय हाज़िर।
लेकिन हमारी मित्रता तो भी 'दिल क्या चीज़ है जां लीजिए' वाली थी, और आज भी। जितनी मीठी चाय उतनी ही गहरी दोस्ती। ऐसे में तो
दो क्या कई पटियाला गिलास भर चाय पीना भी मंज़ूर होता था।
मिश्रा जी के घर अब कभी कभी
ही जाना होता है। चाय अब पटियाला साईज़ गिलास में नहीं सर्व होती। गिलास की जगह मग
ने ली है। और मिठास? दोस्ती वाली मिठास तो जस की
तस है लेकिन चीनी की मिठास कम हो गयी है। इस कारण नहीं कि चीनी अब महंगी हो चली
है। दरअसल, अब उम्र हो चली है। और फिर
मिश्रा जी ने चाय पीनी ही बंद कर दी है।
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25 July 2017
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वाह!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....