-वीर विनोद छाबड़ा
हर साल का ०४ अक्टूबर
मेरे लिए महत्व का दिन होता है।
नहीं, नहीं। न मेरा जन्मदिन
है और न पत्नी का। न बच्चों का। न विवाह का दिन है। न माता-पिता या भाई-बहन का जन्मदिन।
न ही साली-साडू या साल साले की पत्नी का जन्मदिन।
प्रेमिका कोई थी नहीं। एक जो थी भी तो वो एकतरफा थी। न वो कुछ बोली और न कुछ हम बोले।
एक दिन दिल कड़ा किया कि आज मन की बात कर लूंगा। लेकिन वो उस दिन यूनिवर्सिटी नहीं आई।
हफ्ते भर बाद दिखी। दिल को धक्का लगा। मांग भरो सजना!
दरअसल १९७१ को आज ही
का दिन था। लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा पहला कदम। उस साल ज़बरदस्त बाढ़ के कारण सेशन देर
से शुरू हुआ। यूनिवर्सिटी में भी पानी घुस गया था। पॉलिटिक्स में पोस्टग्रेजुएट डिग्री
हासिल करने के लिए दाखिला लिया था।
जहां तक मुझे याद है
आज ही के दिन मेरी रवि मिश्रा, प्रमोद जोशी, उदय वीर श्रीवास्तव
और विजय वीर सहाय से भेंट हुई थी। पढाई पूरी करने के बाद प्रमोद जोशी और विजय वीर पत्रकारिता
में चले गये। आज भी वहीं हैं। मैं, रवि और उदय अब पॉवर सेक्टर से रिटायर्ड हैं।
विजय भारत मिश्र कुछ समय बाद मिले। वो अमीनाबाद इंटर कॉलेज में वाईस प्रिसिपल से रिटायर
हुए।
सुप्रसिद्ध समालोचक
वीरेंद्र यादव मुझसे एक क्लास आगे थे। हरीश रावत,पूर्व मुख्य मंत्री
उत्तरांचल भी सीनियर थे।
अच्छी बात यह है कि
हम सब ज़िंदा हैं और फेस बुक पर हैं।
यूनिवर्सिटी में पढ़ने
का अलग ही आनंद है। को-एजुकेशन भी एक बड़ा फैक्टर होता है। बहुत से लड़के-लड़कियां अलग-अलग
शहरों से आते हैं पढ़ने। कोई अमीर और कोई ग़रीब। सबके अपने अपने सपने।
कोई नाना प्रकार के
वस्त्रों में सुसज्जित। और कुछ मस्ती के लिए आते हैं। उछल-फांद यही जीवन है इनके लिये।
बाप-दादाओं की कमाई इतनी ज्यादा है कि सात पुश्तें उस पर पल जायें।
और कुछ वास्तव में
पढ़ने के लिए। कुछ बनने। दीन-दुनिया से बिलकुल बेख़बर। परीक्षा नज़दीक आते ही ज्यादातर
को कैरियर की फ़िक्र लग जाती है। माहौल बहुत
प्रतिस्पर्धा वाला बन जाता है। कोई किसी को एक शब्द भी बताने से कतराता है।
मैंने यहां पोलिटिकल
साइंस में एम.ए. किया और फिर एम.ए. स्पेशल।
इरादा था पत्रकार बनने का। लेकिन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी लग गयी। फिर
भी पढ़ता रहा। सुबह की क्लासेज अटेंड करते हुए सोशियोलॉजी में एम.ए. कर डाला। एलएलबी
में एडमिशन हो गया था। फीस देने के लिए कैशियर ऑफिस गया। पैसों के साथ विंडो में हाथ
डाला। लेकिन अगले क्षण खींच लिया। बस और नहीं, बस और नहीं। भाग खड़ा
हुआ। जम के नौकरी भी तो करनी थी।
मित्रों आपको याद है
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नोट - उन दिनों की
एक तस्वीर। इसमें हम वो पांचों दोस्त हैं जो ०४ अक्टूबर १९७१ को मिले थे। सबसे ऊपर
बायें मैं, मेरे बाद विजय वीर सहाय दूसरी पंक्ति में बाएं से दूसरे उदय
वीर, दायें से दूसरे प्रमोद जोशी और पहली पंक्ति में सबस दायें बैठे
हैं रवि मिश्रा।
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२३ जुलाई २०१७
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