- वीर विनोद छाबड़ा
सन १९४७ की तक़सीम की वज़ह से पैदा हुए फसादों में लाखों हिन्दू- मूसलमानों की जानें
गयीं। यह वाक्या मामूली नहीं है । दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में शुमार
है।
लाखों परिवार उधर से उजड़ कर इधर आये और इधर से उधर गए। तिजारत अर्श से फर्श पर
आ गिरी। लेकिन इस संबंध में मुझे एक भी क्लासिक या दस्तावेज़ी फ़िल्म याद नहीं आती है
सिवाय भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' पर आधारित इसी नाम की टेलीफिल्म। जो दंगों की भयावता और रोशनी
ही नहीं डालती बल्कि उद्वेलित भी करती है।
बीआर चोपड़ा की १९६१ में बनी 'धर्मपुत्र' एक नाकाम प्रयास के बावजूद एक अच्छी फिल्म थी। लेकिन यादगार
नहीं बन पायी। आचार्य चतुरसेन के इसी नाम के नॉवल पर आधारित इस फ़िल्म का आने से पहले
बड़ा शोर था। नामी बीआर के छोटे भाई, 'धूल का फूल वाले' मशहूर यश चोपड़ा इसे डायरेक्ट कर
रहे हैं। नेहरू की सेक्युलर सोच आगे बढ़ेगी। शशिकपूर की बतौर एडल्ट पहली फ़िल्म थी।
'धूल का फूल' में एक अवैध हिंदू संतान मुसलमान के घर में परवरिश पाती है.…न तू हिन्दू
बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा…लेकिन पालक उसे हिंदू ही रखता
है।
लेकिन 'धर्मपुत्र' ने इसे पलट दिया। एक हिंदू के घर मुस्लिम संतान परवरिश पाकर
कट्टर मुस्लिम विरोधी बनती है। तक़सीम की वज़ह से पैदा फसादों की रोह में बहकर वो उस
घर के लोगों की जान लेने पर उतारू हो गया, जिसने उसे जन्म दिया था। लेकिन
जब वो असलियत से रूबरू हुआ तो उसे कोफ़्त हुई।
इस फ़िल्म ने बहुत सवाल पैदा किये। उस मुस्लिम बच्चे को असलियत बताने के कई मौके
आये तो पालक मां-बाप ने असलियत क्यों न बताई? बावजूद बेहतरीन परवरिश के चलते
बच्चा कट्टर क्यों हुआ? हज़म न होने वाले और भी तमाम वाकये थे फिल्म में।
जब किसी ऐतिहासिक घटना को लेकर फ़िल्म बनती है तो उसे पूरी तरह दस्तावेज़ी न होने
का बावजूद दस्तावेज़ी होने के क़रीब दिखना चाहिए। ट्रीटमेंट बहुत प्रभावशाली होना चाहिए।
यहीं यह फिल्म मात खा गयी। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। निराश बीआर चोपड़ा/यश
चोपड़ा ने दुबारा सांप्रदायिक एकता जैसे ज्वलनशील कथानक पर फ़िल्म नहीं बनाई।
काबे में रहो चाहे काशी में (बलबीर, महेंद्र कपूर)
निस्बत तो उसी की जात से है
तुम राम कहो के रहीम कहो
मतलब तो उसी की बात से है
यह मस्जिद है वो बुतख़ाना
चाहे यह मानो चाहे वो मानो…
धरती की सुलगती छाती के बेचैन शरारे पूछते हैं (महेंद्र कपूर)
तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो खून के धारे पूछते हैं
सड़कों की जुबां चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते हैं
ये किसका लहू है कौन मरा
ये जलते हुए घर किसके हैं
ये कटते हुए तन किसके हैं
तक़सीम के अंधे तूफ़ां में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं
बदबख़्त फ़िज़ाएं किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं.…
मैं जब भी अकेली होती हूँ (आशा भोंसले)
तुम चुपके से आ जाते हो
और झांक के मेरी आंखों में
बीते दिन याद दिलाते हो
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लेकिन त्रासदी यह रही कि किसी को भी अवार्ड नहीं मिला
---17 July 2017
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Lucknow - 226016
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