-वीर विनोद छाबड़ा
.…गतांक से आगे.…
मैं चेन स्मोकर कभी नहीं रहा। मगर जब तक सिगरेट पीता रहा, शायद ही कोई दिन गुजरा हो जब मैंने चार-पांच से कम सिगरेट पी हो। आफिस में काम का प्रेशर बहुत ज्यादा होता था और इसकी वजह से टेंशन भी बहुत रहता था। इसे घटाने के लिये सिगरेट बहुत काम आती थी। ज्यादातर अफ़सर भी सिगरेट के नशेड़ी थे। मेरे एक अफ़सर कहा करते थे -‘टेंशन और सिगरेट दोनों ही सेहत के लिये ख़तरनाक हैं। लेकिन अगर सिगरेट पीने से टेंशन दूर होती है तो एक-आध सिगरेट पी लेनी चाहिये।’मेरे लेखन में भी सिगरेट का विशेष योगदान रहा है। क़लम उठाने की हिम्मत जुटाने और लेख का शुरूआती खाका बनाने में सिगरेट ज़रूरी जोश
भरती थी। हां, यहां उल्लेखनीय है कि यूनिवर्सटी काल से मेरे अभिन्न मित्रों, जिनके साथ मेरा ज्यादातर वक़्त गुज़रता था, में से कोई भी सिगरेट का सेवन नहीं करता। प्रमोद जोशी, रवि प्रकाश मिश्रा व विजय वीर सहाय को सिगरेट के धूंए तक से नफ़रत थी। हां, उदयवीर श्रीवास्तव कभी-कभी शौकिया कश लगा लेते थे। परिणामस्वरूप इनकी संगत में मेरा सिगरेट सेवन भी कम होता था। यानि संगत का असर होता था और आज भी है, कोई माने या न माने।
सन 1991 मेरे लिये बहुत खराब साल रहा। पेंक्रियाज़ की समस्या उत्पन्न हो गयी। डाक्टर की दवा और मेरे संयम ने मुझे ठीक कर दिया। लेकिन इसमें डाक्टर की नेक सलाह का भी योगदान रहा। उन्होंने मेरी सिगरेट बंद करा दी। शराब कभी-कभार होती थी, जिसे मैं कई महीने पहले एक मित्र की एक नेक टिप्पणी से आहत होकर छोड़ चुका था। आठ-नौ महीने तक मैंने सात्विक भोजन लिया और सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया। इस दौरान मैंने पार्टियों में जाना और लिखना बंद रखा। बिलकुल एकाकी जीवन बिताया। बहुत अच्छा भी लगा। लेकिन बहुत समय तक समाज में रहते हुए समाज से कट कर रहना अच्छी बात तो नहीं हो सकती। और फिर मैं पूरी तरह से चंगा भी घोषित हो चुका था। ब्लड प्रेशर, शुगर वगैरह सब नार्मल था। फिर आस्ट्रेलिया में एक दिनी का पांचवां विश्वकप भी शुरू होने को था। पहली बार रंगीन होने जा रहे क्रिकेट के इस महाकुंभ में नहाने का मुझे बड़ी शिद्दत से इंतज़ार था।
मैंने फिर से कलम उठायी। लेकिन ये क्या? कलम उठ ही नहीं रही थी। इन आठ महीनों में स्याही सूख गयी थी। पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। ऐसा लगता था कि ये पीड़ा जान लेकर ही छोड़ेगी। यहां सिगरेट ने इस पीड़ा से मुझे मुक्ति दिलायी। क़लम चल दी। धीरे-धीरे इसने रफ़तार पकड़ी और साथ ही सिगरेट ने भी। नवभारत टाइम्स, लखनऊ के फ़ीचर संपादक क़मर वहीद नक़वी के कहने पर एक महीना चले विश्वकप से जुड़े 63 बैकग्राऊंडर मैंने तैयार किये। मेरे लेखन जीवन का ये पहला श्रेष्ठ दौर था। खुद को ऊंचाई पर देख कर खुशी स्वाभाविक थी। और इसमें सिगरेट ने मेरा भरपूर साथ दिया था। हां, एक छोटा सा सुधार यह ज़रूर हुआ था कि मैंने घर में सिगरेट पीना बंद कर दिया था। तलब लगने पर घर से दूर जाकर पत्नी और बच्चों से छिपकर पीता था। इससे सिगरेट की संख्या में कुछ कमी भी आयी थी। मगर आफिस में मैं बदस्तूर आजाद रहा। सन 2002 तक ये सिलसिला जारी रहा।
फिर एक घटना ने मुझे झिंझोड़ दिया। मेरे मित्र महेश चंद्र सिन्हा (अब स्वर्गीय) ने सिगरेट त्याग दी। मुझे हैरत हुई। चार गहरे कश में पूरी सिगरेट नाप जाने में माहिर ये पक्का सिगरेटबाज़ सिगरेट कैसे छोड़ सकता है? कई दिन तक सिन्हा मेरे लिये यक्ष प्रश्न बने रहे़। दरअसल, कुछ दिन पहले मेरा यह मित्र अमृतसर घूमने गया था। वहां स्वर्ण मंदिर में जब उसने पवित्र सरोवर में स्नान किया और दरबार साहब के सामने मत्था टेका तो किसी ने बड़ी नेक सलाह दी कि सिखों के इस सबसे बड़े तीर्थस्थल आये हो तो यहां की याद में एक बुराई छोड़ दो। काफी मनन के बाद उसे लगा कि सिगरेट आसानी से छोड़ी जा सकती है। सिख बंधु भी इससे घृणा करते हैं। बस छोड़ दी सिगरेट। पिछले 40 साल से लगातार औसतन 10-12 सिगरेट प्रतिदिन पीने वाले बंदे को ज़रा भी देर नहीं लगी सिगरेट छोड़ने के निर्णय को लागू करने में और न ही कोई तकलीफ़ महसूस हुई। मैं बेहद प्रभावित हुआ। ईर्ष्या भी हुई। मैं बार-बार खुद से सवाल कर रहा था कि इतना मजबूत इरादा क्या मेरा नहीं हो सकता? आफ़िस में कार्य की अधिकता के कारण मेरा लेखन तो कबका बहुत पीछे छूट चुका था। कुछ घरेलू परेशानियों ने भी बुरी तरह घेर रखा था। आफ़िस में अधीनस्थ काम नहीं करते थे और उच्चाधिकारी निर्णय लेने में असमंजस्य की स्थिति में रहते थे। इस कारण से टेंशन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। जिससे बाहर निकलने के लिये सिगरेट एक मजबूत सहारा बने खड़ी दिखती थी। इसीलिये न मैं इस छोड़ रहा था और न ये मुझे। मैंने इसे छोड़ने के विचार करने के मुद्दे पर ही पूर्ण विराम लगा दिया। जबकि मैं अच्छी तरह से जान गया था कि अब मैं नहीं सिगरेट मुझे पी रही है। मैं इसका पूरी तरह गुलाम बन गया था। परंतु सिन्हा द्वारा सिगरेट छोड़ने ने मुझे बहुत असहज कर दिया था। मैंने दिल ही दिल में एक अटल इरादा कर लिया कि जब कभी मौका मिलेगा इस ससुरी सिगरेट को पीछे से एक लात ज़रूर मारूंगा।
आखिरकार मौका मिल ही गया। हुआ यों कि मेरे चेयरमैन ने एक बेहद ज़रूरी और गोपनीय नोट लिखने के लिये सुबह-सुबह ही अपने कमरे में ही बैठा लिया। सुबह से शाम हो गयी। काम खत्म नहीं हुआ। इस बीच सिगरेट की तलब कई बार शिद्दत से महसूस हुई। पर चेयरमैन सामने हो तो सिगरेट कैसे धौंकी जाये? जबकि खुद उन्होंने हर पंद्रह-बीस मिनट पर सिगरेट फूंकी। आखि़रकार काम खत्म हुआ। बाहर निकला। अंधेरा शुरू होने को था। सिगरेट मुंह में लगाई। अभी सुलगाने को ही था कि मैंने खुद से सवाल किया-‘यार सारा दिन निकाल दिया। अब दिन बचा ही कितना है? कल पी लेना।’मुझे लगा सिगरेट के चुंगल से बचने का यह पहला कदम हो सकता है। कोशिश करके देखने में क्या हर्ज़ है? और मैं घर आ गया। दिन भर का थका हुआ था। जल्दी आंख लग गयी। अगली सुबह जब उठा तो मैंने महसूस किया कि गुज़री रात मैंने बड़े इत्मीनान से काटी है। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे बड़ा भारी किला फतेह कर लिया हो। अपने आप पर जीत हासिल करना सचमुच जंग का मैदान मारने से कम नहीं होता। खुद पर यकीन होने लगा कि मैं सिगरेट छोड़ने का फैसला ले सकता हूं। वो दिन है और आज का दिन। ग्यारह साल से ज्यादा हो गये। मैंने सिगरेट नहीं छुई। कभी इच्छा भी नहीं हुई। यहां तक कि कोई साल भर पहले जब फिर से लेखन के क्षेत्र में बारह साल के अंतराल के बाद फिर से कदम रखा तो सूखी स्याही वाली कलम ने पुनः चलने में लेबर पेन जैसी वेदना दी। मुझे एकबारगी महसूस हुआ कि इस वेदना से बाहर आने के लिये शायद मुझे एक बार फिर सिगरेट के चंगुल में फंसना होगा। परंतु मेरे अहं ने मुझे फंसने नहीं दिया। बल्कि सामने आकर मुझे बेतरह लताड़ा। मुझे ललकारा। और मेरा अहं जीत गया। मैंने खूब तालियां बजायीं।
सिगरेट छोड़ने का एक दुख मुझे ये ज़रूर रहा कि सिगरेट छोड़ने की वेदना से मैं नहीं गुज़रा और न ही मुझे मौका मिला कि सचिन तेंदुलकर की तरह महीना भर पहले सिगरेट छोड़ने की घोषणा कर सकूं। कोई जश्न नहीं मना सका। इस सिलसिले में स्वर्गवासी महेश चंद्र सिन्हा के सिगरेट छोड़ने के वाक्ये के अलावा दो और वाक्ये याद आते हैं। इनमें से एक तो फिल्मी है। सन 1967 में ए0वी0एम0 की फिल्म ‘मेहरबान’का वो सीन मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, जब आर्थिक तंगियों से जूझ रहे परिवार के मुखिया अशोक कुमार, जो 555 ब्रांड जैसी महंगी विदेशी सिगरेट के आदी थे, सिगरेट छोड़ने का इरादा करते हैं। जब वो आखिरी सिगरेट पीकर फेंकते हैं तो ऐसा लगता था जैसे जिस्म के किसी जिगरी हिस्से को काट कर फेंक रहे हों। उनके चेहरे पर छायी वेदना को भूल नहीं पाया मैं आज तक। दूसरी बार 1993 का वाक्या है। मेरे पिता जी को कैंसर घोषित हो गया था। लखनऊ के एस.जी.पी.जी.आई. में भर्ती थे। जब उन्हें कैंसर होने का पता चला तो कुछ देर तक विचलित रहे। मुत्यु को करीब देखकर विचलित होना स्वाभाविक ही था। फिर सहज होकर बोले- ‘ज़िंदगी के इस ‘आखि़र’पर एक आखि़री सिगरेट पीना चाहता हूं।’उनकी निगाह मेरी जेब में रखी सिगरेट की डिब्बी पर थी। और मैंने उन्हें निराश नहीं किया था।
मित्रों, मैं वो बंदा हूं जिसे यकीन था कि सिगरेट के बिना जिंदगी है क्या? एकाकी और बकवास है जिंदगी। सिगरेट ही जिंदगी में रंग घोलती है। मगर मैने खुद को ग़लत साबित किया। छत्तीस साल तक मुझे पीती रही सिगरेट से मेरा अब छत्तीस का आंकड़ा है। ग्यारह साल से ज्यादा हो चुके हैं इसे अलविदा कहे। सिगरेट छोड़ते वक़्त मुझे कोई जिस्मानी तकलीफ़ नहीं थी। बस मलाल था कि मैंनें इसे शौकिया अपनाया था मगर इसने मुझे गुलाम बना दिया था। और गुलामी मुझे पसंद नहीं थी। इसे छोड़ने के बाद मुझे तब कोई तकलीफ़ नहीं हुई थी। मगर अब ज़रूर है। कोई साल भर हुआ। मुझे अस्थमा की शिकायत हो गयी। जांच पर पता चला कि सिगरेट पीने का नतीजा अब सामने आया है। अगर मैंने ग्यारह साल पहले सिगरेट को विदा नहीं कही होती तो सिगरेट कबकी मुझे इस संसार से विदा कर चुकी होती।
(समाप्त)
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
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दिनांक/ 31. 05.
2014
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