-वीर विनोद छाबड़ा
सहालग लगी है। बैंड-बाजे, डीजे, आतिशबाज़ी आदि का खूब शोर है और साथ ही है दावतों का भी जोर है। बंदे को आए दिन न्यौते पे न्यौते मिल रहे है। एक दिन बंदे का एक चालीस साल पहले बिछुड़ा ‘निक्कर
फ्रेंड’ जाने कहां-कहां से ढूंढ़ते हुए आ पहुंचा। दोनों को एक-दूसरे को पहचानने में थोड़ी दिक्कत हुई। क्योंकि उनके दिलो-दिमाग में वही चालीस साल पुरानी निक्करवाली छवि जो थी। दोनों ने बार बार एक-दूसरे को सीने से लगा कर खूब आंसू बहाए। फिर मि़त्र ने बड़ी आत्मीयता से पुत्र के ब्याह में शामिल होने का जबरदस्त आग्रह किया। बंदे ने भी पक्का वादा किया कि वो उस दिन के बाकी सारे न्यौते दरकिनार कर उनके बेटे की शादी में ज़रूर आएगा।
बंदे को चूंकि बैंड-बाजे के शोर से एलर्जी थी अतः वो सीधा प्रीतिभोज स्थल पर पहुंचा। बड़ा हैरान परेशान हुआ बंदा वहां पहुंच कर। एक दो नहीं पूरे चार पंडाल अगल-बगल सजे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि इसमें मित्र वाला पंडाल कौन सा है? बड़ी भीड़ थी। किस पंडाल में मित्र को ढूंढू? मित्र के अलावा बंदा किसी को पहचानता भी तो नहीं। मित्र के भाई-बंधु भी तो इन चालीस बरस में कितने बदल चुके हैं। हर
पंडाल के बाहर चमचमाती व झिलमिलाती झालरों की रोशनी के बीच बोर्ड लगे थे - फलां वेड्स फलाना। दुर्भाग्यवश बंदे को दूल्हे-दुल्हन का नाम याद नहीं रहा। और फिर निमंत्रण पत्र भी साथ नहीं लाया था। अरे भाई, भला हर कोई साथ लेकर चलता है निमंत्रण पत्र? और फिर ऐसा कोई रिवाज़ भी नहीं है कि नो ‘एडमीशन विदआऊट इनविटेशन’। बंदा खुद को क्लीन चिट देता है।
आखिरकार एक बुज़ुर्ग से दिखते बंदे से पता चला कि फलां पंडाल में मित्र के पुत्र की बारात आई हुई है। सैकड़ों लोग जमा थे वहां। स्नैक्स और खाना लबर-लबर पेट में ढकेला जा रहा था। बंदे ने मित्र को इस भीड़
में बेतरह तलाशा। मोबाईल भी लगाया। मगर डीजे-डिस्को के भयंकर शोर की वजह से बात करना और सुनना नामुमकिन था। दो-तीन बंदों से बामुश्किल पूछ पाया। पता चला अभी-अभी यहीं थे मित्र । उधर देख लीजिए।
बंदे ने टाईम देखा। ग्यारह बजने को थे। बंदे को बड़ी शिद्दत से भूख लगी थी। लेकिन प्लेट उठाने से पहले बंदे का मित्र से मिलना ज़रूरी था ताकि खुद को यकीन हो जाए कि वो सही जगह पर है। बधाई के साथ-साथ उपहार स्वरूप धनराशि वाला लिफ़ाफ़ा उसके हवाले करे और फिर पूरे इत्मीनान से प्लेट उठाए। बंदे को लिफाफा देने के बाद ये अहसास होता है कि खाने का मानों टोकन मिल गया है और अब वो बिना रोक-टोक पूरे कांन्फीडेंस से प्लेट उठा सकता है।
बंदे को बरसों पहले का वो दिन अच्छी तरह से याद है जब ऐसे ही मौके पर भरपेट भोजन के बाद पता चला था कि वो गल्ती से से दूसरे के पंडाल में आ गया था और जहां जाना था वो पंडाल तो बगल वाला था। बंदे को इसके साथ ही छा़त्र जीवन के वो दिन भी याद हैं जब बिन बुलाए उसने मित्रों के साथ अनेक बारातों में खाना खाया था। बढ़िया सलीकेदार कपड़े पहन कर वे किसी भी पंडाल में घुस जाते थे। इतनी भीड़-भीड़ में फुरसत भी किसे होती है कि ये जानने की कोशिश करे कि कौन किसका रिश्तेदार या मित्र है। कौन घराती है और कौन बाराती। आमतौर पर जिसके गले में माला पड़ी होती थी वो बाराती माना जाता था। ये रिवाज आज भी बदस्तूर कायम है। एक कैटरर मित्र ने बताया था कि अमूमन हर प्रीतिभोज में पंद्रह-बीस फीसदी लोग बाहरी होते हैं। बाराती-घराती उन्हें नहीं पहचान पाते। परंत कैटरर्स को खूब पहचान है। रोज़ का धंधा है उनका। ऐसे लोगों से अक्सर सामना होता है। लेकिन वे किसी को कुछ कहते नहीं। इसी बहाने कुछ भूखों का पेट भर जाता है। भरपेट खाना भी यही बाहरी ही खाते हैं। बाकी तो खाते कम और वेस्ट ज्यादा करते हैं। बंदे को यह सोच कर डर लगा कि कहीं उसे बाहरी समझ कर कोई बाहर न कर दे।
तभी बंदे के कंधे पर किसी ने हाथ रखा। बंदे को लगा वो रंगे हाथ पकड़ लिया गया है। वो सिहर उठा। बंदा अचकचा कर पीछे मुड़ा तो देखा निक्कर मित्र सामने खड़े थे। बंदे का दिल वापस जगह पर लौटा। मानों भगवान मिल गए हों। उन्होंने लपक कर मित्र को जोर से भींच लिया। अचानक बंदे को महसूस हुआ कि मित्र की ‘जफ्फी में गर्मजोशी कुछ कम है। शायद उसके इस तरह मिलने से मित्र कुछ असहज हो गया है या फिर उसके सूट को इससे मुचड़ने का खतरा है। मित्र ने बस औपचारिक खींसे निपोर दीं।
बहरहाल बंदे ने बधाई दी। और उपहार वाला लिफाफा पकड़ाया। मित्र ने लपक कर लिफाफा यों पकड़ा मानों वो इसी का इंतज़ार कर रहा हो। औपचारिकतावश ये भी नहीं कहा- ‘अरे भाई, इसकी क्या ज़रूरत थी?’ ये भी नहीं पूछा- ‘दोस्त, कब आए? भाभी भी साथ आई है न? कुछ खाया कि नहीं? आओ तम्हें अपनी पत्नी और बच्चों से मिलाऊं और उन्हें बताऊं कि देखो मेरा चालीस साल से बिछुड़ा निक्कर फ्रेंड आया है!’
मगर इसकी बजाए मित्र की आंखें किसी अन्य को तलाशती सी दिखीं। और सचमुच मित्र को कोई दिखा और वे उधर लपक गए। मानों उससे लिफाफा छीनने के लिए भागे हों। बंदे को धक्का सा लगा । मगर फिर दिल को समझाया- छोड़ यार, शादी-ब्याह में ये सब होता ही है। इतनी भीड़, ढेर सारा काम और फिर बीसियों लोगों से मिलना होता है। ऐसे में ये सब कहां याद रहता है। बंधु, आज का ज़माना ही ऐसा है। ये कोई हमारा वक़्त तो है नहीं कि मेहमान के स्वागत में पलकें बिछाई जाएं। अब तो सिर्फ़ भीड़ जमा करने का शौक है। और फिर ये मित्र अपनी जेब से खिला भी नहीं रहा। सारा बोझ लड़की पक्ष पर डाला है।
अचानक बंदे को याद आया कि उसे तो जोर की भूख लगी है। उसने भीड़़ में किसी तरह घुस कर प्लेट उठायी। तरह-तरह के व्यंजनों से भरा और खुद से बोला - खाओ यार। पेट भर के खा ले। मुफ़्त का माल नहीं खा रहे हो। पेमेंट किया है।
भरपेट खाने के बाद बंदा पंडाल से बाहर आता है। चंद कदम पर मैले-कुचैले वस्त्रों में लिपटे अनेक बच्चे, जवान और बूढ़े झंड बनाकर बैठे थे। वो सर्दी से बेतरह ठिठुर रहे थे। चार-पांच कुत्ते और गाय-बैल भी पास ही खड़े थे। उन सभी की ललचाई आंखें पंडालों को घूर रही थीं। उनको इंतज़ार था कि कब दावत खत्म हो और उनको भी बचे हुए खाने में से उनके हिस्से का कुछ हिस्सा मिले।
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मई 2014 के प्रथम सप्ताह में निर्गत सिडबी की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘संकल्प’के जुलाई-दिसंबर, 2013 के अंक 67-68 (संयुक्तांक) में प्रकाशित।
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-वीर विनोद छाबड़ा
D 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ - 226016
मो0 7505663626
दिनांक 09/05/2014
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