-वीर विनोद छाबड़ा
कुछ दिन पहले की बात है। बरसों बाद पुराने सामान की झाड़-फूंक का ख्याल आया। इसी के दौरान अपनी यह तस्वीर दिख गयी। मैं अपने मूल कार्य को दरकिनार कर खट्टी-मीठी-कड़वी यादों पर पड़ी धूल की मोटी
परतों को झाड़ने में जुट गया। अब देखिये न हर तस्वीर अपने में एक कहानी समेटे होती है। बाज़ तस्वीरों में तो पूरा उपन्यास या लंबा-चौड़ा इतिहास भी छिपा होता है। अब इसी तस्वीर की बात को लीजिये। इसे मंत्र मुग्ध हो कर निहारता हुआ उससे जुड़ी यादों को कुरेदना शुरू करता हूं।
याद आया। सन 1985 अगस्त का महीना था। शाम का वक़्त था। मैं अपने आफिस से निकल कर के उत्तर रेलवे, लखनऊ के पार्सलघर में कार्यरत अपने मित्र अनिल कुमार द्विवेदी से मिलने गया था। वहीं कार्यरत अनिल के तीन मित्र और भी ड्यूटी खत्म करके आ जुटे। तब मैं करीब पैंतीस साल का था। मस्ती भरा जीवन था। मां-बाप राजी-खुशी थे। बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा का दौर था। उन्हें पत्नी बड़े शौक से और पूरे अधिकार के साथ संभालती थी। अभी बोफोर्स का जिन्न बोतल से बाहर नहीं निकाला गया था। राजनीतिक स्थिरता का माहौल था। हां, सैम पित्रोदा को लेकर सुगबुगाहट थी कि कंप्यूटर क्रांति आ रही है जो लाखों लोगों को बेरोजगार बना देगी। इसको लेकर खासतौर पर बैंक और एलआईसी कर्मियों में ज़बरदस्त रोष था। मित्रों से इसी पर विचार-विमर्श में डूबे हम लोग सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहे थे कि हाय मुल्क का क्या होगा। लाखों लोगों को बेरोज़गार बना देगा ये कंप्यूटर। तभी एक और खास मित्र सूरज शर्मा आ पहुंचे। सूरज शर्मा दि बनारस स्टेट बैंक में मुलाज़िम थे और शौकिया फोटोग्राफ़र। मित्रों के शादी-ब्याह के समारोह, बर्थ डे, उनकी पत्नियों की किट्टी पार्टियों आदि फंक्शनों के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक सम्मेलन, नाटक आदि भी कवर करते थे। अखबारों में उनके कैमरे से निकली तस्वीरें भी खूब छपा करती थीं। उन दिनों के लखनऊ के फोटोग्राफी सर्किल में वो चर्चित चेहरा थे। सूरज ने कब कैमरा निकाला, कब दनादन हम सबकी कई तस्वीरें खींच डालीं, हमें पता ही नहीं चला। उन्हीं में से थी ये एक तस्वीर।
बहरहाल मेमोरी लेन में विचरते हुए मेरा अगला और महत्वपूर्ण पड़ाव था, मुंह में लगी यह नामुराद सिगरेट। यह कभी हरदिल अज़ीज़ थी। यह मेरे जीवन का, सोच का एक अभिन्न हिस्सा थी। इसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर पाता था। सिगरेट नहीं पीने वालों के बारे में मुझे संदेह होता था कि वो बुद्धिजीवी हैं भी नहीं! छùभेषी तो नहीं! बाज़ सिगरेट न पीने वाले बुद्धिजीवियों के बारे में धारणा थी कि छुप-छुप कर ज़रूर पीते होंगे। जब मैंने होश संभाला था तो पिता जी को चारमीनार सिगरेट धूंआधार पीते हुए देखता था। बाद में कई बरस तक आखिरी कश तक मज़ा देने वाली पनामा पीते हुए देखा। घर में अदबी माहौल था। आये दिन लेखकों, शायरों व अदीबों का मेला लगता था। उनके लिये बाज़ार से सिगरेट लेने मैं ही जाता था। किस्म-किस्म की सिगरेट पीने के शौक थे उनके। चारमीनार, पनामा, कैंची, नंबर टेन, विल्स, सिमला, पासिंग शो, कूल, मार्कापोलो आदि ब्रैंड खूब पापुलर थे। कैवेंडर और रेड एंड व्हाईट की भी फ़रमाईश होती थी। परंतु ये ब्रैंड कुछ चुनींदा दुकानों पर ही उपलब्ध दिखते थे। विल्स सबसे महंगी थी। जावाडासन नाम के सिगार का भी कुछ को शौक था। ट्रिपल फाईव सिगरेट अमीरों को पीते हुए सिर्फ़ फ़िल्मों में देखा था।
उन्हीं दिनों मैंने अपने शहर लखनऊ के प्रिंस में घटी दर पर पुरानी फ़िल्म बिमल राय की दिलीप-वैजयंती माला की ‘मधुमती’देखी थी। उसमें विलेन थे प्राणनाथ सिकंद उर्फ़ प्राण। उसमें उनका सिगरेट पीने का
अंदाज़ बड़ा निराला था। वो सिगरेट का कश खींचते और फिर मुंह से खींचते धुएं के छल्ले निकालते थे। इस दृश्य को हम लोग बड़े कौतुहल से देखते थे और वाह-वाह करते हुए तालियां बजाते थे। मैं सोचता था कि जब मैं बडा़ होकर सिगरेट पीना शुरू करूंगा तो प्राण की तरह मुंह धूंयें के छल्ले ज़रूर निकालूंगा। यों ये धारणा भी बनी थी कि मुंह से धूंयें के छल्ले निकालना नार्मल आदमी का नहीं बल्कि खलनायकी का कृत है। उन्हीं दिनों घटी दर पर देवानंद की ‘हमदोनों’देखने का भी इत्तेफ़ाक हुआ। उसका यह गाना - हर शोक को, हर फ़िक्र को धूंएं में उड़ाता चला गया...दिल को छू गया। धारणा बन गयी कि ज़िंदगी में हर ग़म का ईलाज सिगरेट के धूंएं में मौजूद है। वो दिन कुछ साल बाद आ ही गया। मेरी उम्र महज़ सत्रह साल की रही होगी। विद्यांत कालेज में पढ़ता था। अच्छी-बुरी संगत क्या होती है, इसकी ज्यादा तमीज़ नहीं थी। बस ये मालुम था कि मौज-मस्ती वाली संगत मज़ेदार होती है। कुछ ऐसी ही संगत थी। साथी लोग खूब सिगरेट पीते थे। मुझे भी सिगरेट के लिये उकसाते थे। अपना मन भी करता था। परंतु संकोच के साथ-साथ डर भी लगता था कि कोई मुझे उनके साथ सिगरेट पीते देख न ले। मुंह से बदबू आयेगी। कोई शिकायत भी कर सकता है। घर में पकड़े भी जा सकते हैं। खूब सुताई होगी।
एक दिन (मार्च 1967) बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने अपने मित्र कन्हैया लाल और सैयद अब्बास नक्वी से सिगरेट शेयर कर ही ली। पनामा थी वो। पहले थोड़ी खांसी आयी। फिर सामान्य हो गया। भैया, मज़ा आ गया। कई सालों तक सिगरेट किसी सुनसान जगह या गली में या अंधेरे में पी, ताकि कोई देख न ले। मैं मल्टी स्टोरी बिल्डिंग, चारबाग में रहता था। पिता जी रेलवे में मुलाज़िम थे। सिगरेट पीने वाले अपने मित्र जल्दी ही तलाश लेते हैं। मुझे दूर नहीं जाना पड़ा। अपनी ही कालोनी में मिल गये। रात को भोजन करने के बाद हम तीन मित्र, मैं, सुरेंद्र वर्मा उर्फ मन्ना/मन्ने और मनमोहन खन्ना, मोहन होटल के बगल वाली दुकान से सिगरेट खरीदते थे और फिर उसी के बगल से के0के0सी0 कालेज की तरफ जा रही ए0पी0 सेन रोड पकड़ लेते थे। सन्नाटे वाली लगभग एक किलोमीटर लंबी थी ये सड़क। यहां बेख़ौफ़ होकर सिगरेट पीते थे। मजे की बात ये थी इस सुनसान सड़क पर हम अकेले नहीं थे सिगरेट पीने वाले। हम लोग की तरह बीसियों और लड़के भी सिगरेट का कश खींचते दिखते थे। सिगरेट पीने के बाद हम लोग दो&तीन बार कुल्ला करते थे। अगर जेब में कभी पैसे बच रहते होते थे तो सिगरेट फूंकने के बाद पान भी चबा लेते थे। इससे मुंह से बदबू आने का सारा डर जाता रहता था। तब आराम से घर आते, थोड़ा बहुत पढ़ाई करके सो जाते थे। ये मन्ना मेरा सबसे करीबी दोस्त था। सिगरेट के अलावा हम दोनों सिनेमा देखने भी साथ साथ निकलते थे। हम दोनों इंटर तक विद्यांत कालेज में पढ़ते थे। शुरूआती दौर तो छात्र जीवन था। मुफ़लिसी छायी रहती थी। इस वजह से सिगरेट शेयर करके ही पीते थे। अक्सर एक ही दुकान से सिगरेट खरीदते तो दुकानदार भी पहचानने लगा था। जब कभी जेब में पैसे नहीं होते थे तो उधार में भी मिल जाती थी सिगरेट। पता ही नहीं चला कि सिगरेट का शौक कब तलब में बदल गया। कमाने लगे तो मानो पंख लग गये। जेब में डिब्बी रखने लगे थे।
तलब कितनी ख़तरनाक होती है और क्या-क्या करने को मजबूर करती है? इसका पहली बार सामना मैंने तब किया जब 1970 में मैं राजस्थान के बीकानेर शहर में ब्याही अपनी बड़ी बहन से मिलने जा रहा था। राजस्थान कनाल प्रोजेक्ट में कार्यरत थे मेरे जीजा जी। सर्दी के दिन थे। मैं बी.ए. में था तब। लखनऊ से दिल्ली और फिर वहां से मीटरगेज की ट्रेन से सीधा बीकानेर। बलां की सर्दी के दिन थे। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मैंने पांच अदद सिगरेट और माचिस की डिब्बी खरीदी थी। ट्रेन में मुझे नींद नहीं न तब आती थी और न आज आती है। जिस भी स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी वहां उतर कर वहां की मिट्टी और आबो-हवा की गंध को नथुनों में भरपूर ज़रूर ले लेता था। पांचों सिगरेट आधी रात होते होते फुंक गयीं।
अभी आधी रात का सफ़र बाकी था। सादलपुर के बाद कई स्टेशन आये। लेकिन चाय नहीं मिली। सिगरेट तो दूर की बात थी। जब कोई स्टेशन आता था तो बड़ी उम्मीद से प्लेटफार्म पर उतरता था। हर बार कोहरे में लिपटा गहरा सन्नाटा पसरा मिला। ड्राकुला की कई डरावनी फिल्मों की याद बेसाख्ता आ जाती थी। पूरा बदन ऊपर से नीचे तक सिहर उठता था। मैं फौरन डिब्बे में वापस हो लेता था। कोहरे की वजह से बड़ी मंथर गति से ट्रेन चल रही थी। उस दिन स्लीपर डिब्बे में तकरीबन सन्नाटा था। कंबल में लिपटे कुल पांच-छह यात्री रहे होंगे मुझे मिला कर। सब सो रहे थे। बिना सिगरेट-चाय के मेरा तो बुरा हाल था। मिल जाती तो कड़ाके की ठंड का मुकाबला करना आसान हो जाता। निगोड़ी नींद तो कोसों दूर थी। जरूरत अविष्कार की जननी होती है। हाई स्कूल के एक्ज़ाम में लिखा ये निबंध याद आया। मैंने डिब्बे में सो रहे यात्रियों को ध्यान से देखना शुरू किया। कुल जमा पांच थे। शायद उसमें कोई सिगरेट पीने वाला हो। और शायद सिरहाने के पास डिब्बी पास ही रखी मिल जाये। दैवयोग से एक मिल ही गया। वो ऊपर की बर्थ पर सो रहा था। नीचे सिगरेट के ढेर सारे अधपिये टुकड़े, जिसे टुर्रा कहा जाता है, बिखरे पड़े थे। वो ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे मार रहा था जो ट्रेन चलने के शोर के बावजूद साफ़-साफ़ सुनाई दे रहे थे। उसे मैंने हिम्मत करके उसे खूब टटोला। मगर कहीं डिब्बी नहीं दिखी। आखिर मेरी तलब ने उस सोते बंदे को जगाने पर मजबूर कर दिया। बंदा बामुश्किल कई बार हिलाने के बाद उठा। मैंने याचक बन कर बड़ी आत्मीयता से अपनी विपदा सुना कर एक सिगरेट की मांग की। बंदा झुल्लाकर बोला - ‘खत्म हो गयी कबकी। इत्ती सी बात के लिये नींद खराब कर दी। सिगरेट होती तो क्या मैं सो रहा होता?’ ये कह कर वो फिर सो गया और दो मिनट बाद ही पहले की तरह खर्राटे भरने लगा। मगर मेरी तलब हार मानने वालों में से नहीं थी। इसने मुझे नीचे गिरने पर मजबूर कर दिया। मैंने नीचे गिरे टुर्रों को हसरत भरी निगाह से देखा। कोई फिल्टर सिगरेट थी। शायद रेड एंड व्हाईट थी। उस इलाके में यही चला करती थी। चार-पांच टुर्रों में चार-पांच कश भर की गुंजाईश दिखी। मैंने इधर- उधर देखा। कोई भी तो नहीं था आस-पास। फौरन ही उन टुर्रों को बटोरा ताकि कोई दूसरा न आये जाये हिस्सा-बांट करने को। माचिस तो थी ही मेरे पास। मज़ा आ गया। इतने में रतनगढ़ स्टेशन आ गया। सुबह होने को थी। यहां चाय के साथ-साथ उस इलाके में खासी चलन वाली कैवेंडर सिगरेट भी मिल गयी। यहां से मेरा बीकानेर तक का बाकी सफ़र बड़े आराम से कट गया।
दूसरी बार मुझे सिगरेट न होने का मलाल तब हुआ जब मेरा अचानक एक ज़रूरी सरकारी काम से अचानक इलाहाबाद जाना हुआ। गर्मी के दिन थे। लखनऊ से इलाहाबाद होते हुए मुगलसराय पैसेंजर रात दस बजे चारबाग के गदहा लाईन प्लेटफार्म से छूटती थी। ये अप्रैल , 1985 की बात है। सफ़र काटने के लिये एक डिब्बी सिगरेट और माचिस जेब में रख ही ली थी। बामुश्किल एक डिब्बे में घुसने को मिला। लगता था कि पूरी रात खड़े-खड़े गुज़रेगी। तभी मुझे एक उपाय सूझा। जेब से सिगरेट निकाली। मुंह में लगाने से पहले औपचारिकतावश किनारे की सीट पर बड़े इत्मीनान से बड़ी सी चौकड़ी लगा कर बैठे या़त्री को आफ़र की। उसे हैरानी हुई कि मैं उसे सिगरेट क्यों पेश कर रहा हूं। मेरे ज़रा से इसरार करने पर तनिक संकोच के साथ उसने सिगरेट स्वीकार कर ली। ये वो ज़माना था जब तनिक संकोच के साथ किसी अंजान से लोग सिगरेट का आफ़र स्वीकार कर लिया करते थे। बहरहाल, उसके तीन साथी और भी थे जो पूरी बर्थ पर चौकड़ी लगा कर कब्जा किये बैठे थे। मैंने उन्हें भी सिगरेट बढ़ा दी। मेरी ट्रिक काम कर गयी। उन्होंने खुद को तनिक समेटा और मेरे बैठने भर की जगह निकाल दी।
थोड़ी देर में एक स्टेशन आया। चाय की तलब अपनी भी पूरी की और नये बने सहयात्री मित्रों की भी। ना-ना करते वो चाय सुड़क गये थे। बातों से पता चला कि वे मजदूर थे। शहर से कमाई करके घर जा रहे थे। अब चार-पांच हफ़्ते बाद फिर शहर लौटेंगे। चाय के बाद सिगरेट की इच्छा जाग्रत होना लाज़िमी थी। खुद भी मुंह में दबायी और उन्हें भी पिलायी। सिगरेट की डिब्बी खाली हो चुकी थी। थोड़ी देर और गुज़री। इलाहाबाद अभी काफ़ी दूर था। नींद भी कोसों दूर थी। जेब में सिगरेट नहीं थी। जब कोई चीज नहीं होती है तो उसकी ज़रूरत शिद्दत से महसूस होती है। तभी कोई स्टेशन आया। ट्रेन में भीड़ इतनी ज्यादा थी कि बाहर निकलना मुश्किल था। खिड़की के पास बैठे बंदे को बोल ही रखा था कि कोई सिगरेट वाला दिखे तो दो डिब्बी ले लेना, चाहे कोई भी ब्रेंड हो। कोई छोटा स्टेशन था। फिर रात का सन्नाटा। भले कोहरा नहीं था। मगर ज़रूरी नहीं भूत-प्रेत कोहरे में दिखें। बहरहाल, सिगरेट के लिये कैसा भी माहौल हो रिस्क लेना ही पड़ेगा। मगर कोई सिगरेट वाला दिखे तो सही। उन ट्रेन मित्रों ने तो बीड़ी सुलगा ली। मैंने कभी पी नहीं थी बीड़ी। कुछ संकोच भी था कि कैसे मांगे बीड़ी। लेकिन तलब ने इतना ज्यादा जोर मारा कि सारे बंधन तोड़ने पड़े। मगर अब संकोच करने की बारी उनकी थी। एक बोला- ‘साहेब हम हरीजन हैं। चलेगी?’ मैंने जात-पात, धर्म में कभी भेद नहीं किया था- ‘अरे भाई इंसान तो हो न! लाओ, एक अदद। आज तुम्हारी बीड़ी पीते हैं।’पता ही नहीं चला कि बीड़ियां पीते-पीते कब सवेरा हो गया और फिर इलाहाबाद आ गया। इलाहाबाद में अपने उन ट्रेन मित्रों को धन्यवाद बोला। हाथ मिलाया। फिर मिलने की उम्मीद के साथ विदा ली।
…बाकी ‘भाग - दो’ में
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मोबईल नं0 7505663626
दिनांक/ 28. 05.
2014
सन 1985 में आप 45 साल के नहीं 35 के थे।
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