-वीर विनोद छाबड़ा
जेठ के महीने का पहला मंगल। आसमान से आग के गोले बरस रहे हैं। उस पर पानी की भारी किल्लत। महंगाई आसमान छू रही है। मगर इन सबसे बाखबर अपने शहर लखनऊ के असंख्य भक्तों की भीड़ पूरे जोश व वेग से हनुमान जी के मंदिरों की ओर दर्शनार्थ बढ़ती हुई दिख रही है। ये सिलसिला पौ फटने से शुरू होकर रात देर तक चलता है। ऐसा सौ साल से ज्यादा अरसे से चल रहा
है। यह देख कर याद आता है वो दौर जब लखनऊ शहर के अलीगंज इलाके में स्थित बजरंग बली जी के मुख्य मंदिर में हर समय बड़ी शांति से खुले दर्शन उपलब्ध होते थे। वहीं बहुत बड़ा मेला लगता था। आज भक्तों में अधीरता है। पहले दर्शन प्राप्त करने के लिये मारा-मारी है। कहीं-कहीं सद्भावना की जगह धर्मान्द्धता ने ले ली है। हर समय भगदड़ की आशंका व्याप्त रहती है। पहले जेठ के पहले मंगल को भक्तों की भीड़ दिखती थी, मेला लगता था। इसे ‘बड़ा मंगल’कहते थे। शहर में इस दिन जिलाधीश महोदय के आदेश से प्रदेश के सरकारी दफतरों में स्थानीय अवकाश घोषित होता है। अब जेठ के प्रत्येक मंगल को बड़ा मंगल बोला जाता है। हर मंगल पर जनसैलाब पिछले मंगल से बढ़-चढ़ कर उमड़ता है। अब किसी भी मंदिर में बजरंग बली जी के दर्शन करके खुद को धन्य कर लीजिए।
तब प्याऊ थे जगह-जगह। इक्का-दुक्का भंडारे भी थे। वो नजारा भी आंखों के सामने तैरता है जिनमें भक्तगण अकेले या छोटे-छोटे समूह में कमर में लाल लंगोटी लपेट कर सड़क पर लेटते हुए, रेंगते हुए, बजरंग बली के दर्शन हेतु सुबह-सुबह अलीगंज मंदिर के लिये प्रस्थान करते थे। इनमें बच्चे भी शामिल होते थे। उनकी माताओं का एक हाथ झाड़ू से रास्ता साफ करता होता था तो दूसरा हाथ पंखा झलता रहता था। अब वो दिन हवा हो चुके हैं। सड़कें टूटी-फूटी हैं, कहीं-कहीं गहरे गड्डे हैं। अब भला कोई गड्डों में लेट कर तो जायेगा नहीं!
और बेतरह धूल-धक्कड़ भी तो है, उसे फांक कर अस्थमा कराना है क्या!
यों भी बदलाव नवजीवन का प्रतीत है। हर खासो-आम सड़क के दोनों तरफ प्रसाद स्वरूप् पूड़ी सब्जी के असंख्य भंडारों के स्टाल सजे हैं। सब्जी भी तरह-तरह की है। कहीं आलू-कद्दू की सब्जी है, तो कहीं
सिर्फ आलू की है। मसाला खूब तेज है। ताकि देर तक चल सके। यह भंडारे आयोजक की औक़ात यानी बजट के हिसाब से चलते हैं। दो- तीन घंटे से लेकर देर रात तक।
खाने वाले भी ज्यादा हैं। कहीं पर छोले भी मिलेंगे। साथ में बूंदी या बेसन के लड्डू भी है। बदलते दौर के साथ कहीं-कहीं आईसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक, चावल-राजमां व चाऊमीन भी मिलेगी। आने वाले दौर में शायद कुछ और वेज चाईनीज़ आईटम का प्रवेश होगा। खाने वालों में हर वर्ग, जाति व धर्म के महिला-पुरुष, बच्चे-बूढे़ हैं। किसी जमाने में भंडारा ग्रहण करने वालों में खुद को भद्रजन मानने वाले दूर खड़े रहते थे। मगर अब बाकायदा स्कूटर-कार से उतर कर स्वंय भंडारे से प्रसाद ग्रहण करने में उनको कोई झिझक महसूस नहीं होती है। अमीरी-गरीबी के बीच की खाई इस दिन पूरी तरह पटी हुई दिखती है। सुबह हर खासो-आम सिर्फ हल्का नाश्ता करता है। इस दिन लखनऊ में अगर कोई बाहर से मेहमान आया हो तो उसे होटल में खाने की आवश्यकता नहीं है। जितनी भी इच्छा है, खाईये। चाहें तो पैक कर घर ले जायें और इत्मीनान से ठंडे कमरे में बैठ कर खायें। हां, होटल-रेस्तरां और ढाबे वालों के लिए आज का दिन घाटे का रहता है। सन्नाटा पसरा रहता है। बहरहाल एकता का एक यह अद्भुत नज़ारा कहीं अन्य देखने को विरले ही मिलेगा। भंडारे और प्याऊ के स्टाल लगाने वाले हमारे मुस्लिम भाई भी शामिल होते हैं। यह शहर की सांझी सांस्कृतिक विरासत की नाक का सवाल है। सांप्रदायिक सौहार्द की विरली मिसाल है। यों भी भंडारे के स्टाल और प्याऊ के आयोजकों से यह सवाल कोई नहीं पूछता कि किस जाति और धर्म के हो। खाने से मतलब है। पेट भरना चाहिए, दोस्त।
भंडारे चूंकि अतिक्रमण करके लगे हैं और हर स्टाल पर खाने वालों की बेतरह भीड़ है, अतः हर सड़क पर भयंकर जाम है। यहां तक कि गलियों में भी जाम लगा है। वीरान मोहल्लों में भी भंडारे चलते हैं। यहां भक्तगण को मेन रोड से ढोकर लाया जाता है या फिर ‘प्रसाद’के पैकट घर-घर पहुंचाये जाते हैं।
इस दिन जनता-जनार्दन को आवागमन में भयंकर कष्ट होता है। पुलिस अतिक्रमण को हटाने और आवागमन को सहज करने के लिये डंडे भी नहीं फटकारती। धर्म का मामला है।
कौन
पंगा ले! दफ़तरों में वक्त पर हाज़िरी नहीं लग पाती। मगर आज का दिन सब क्षम्य होता है। ऊपर अफसरों को भी मालूम है कि आज जाम का कारण वास्तविक है, कोई बहाना नहीं है। वो खुद भी इस जाम का शिकार होते हैं। शाम को भी घर लौटने में देर हो जाती है। लेकिन पब्लिक खुशी-खुशी सहन करती है। किसी को कोई जल्दी नहीं है। बेसब्री चेहरे पर नहीं दिखती है। किसी के मन में अवसाद उत्पन्न नहीं होता। शाम होते होते झूठे पतलों-दोनों से पटी सड़कों और उसमें बचे-खुचे की तलाश में मुंह मारते छुट्टा जानवरों को देख कर कोई मुंह नहीं बिचकाता। संकट के मोचक के नाम पर भाई लोग हर तकलीफ़ आज के दिन बर्दाश्त करते हैं।
हाईस्कूल-इंटरमीडियेट परीक्षायें हो चुकी हैं। सबको परीक्षाफल का इंतज़ार है। बजरंगबली के दर्शनार्थियों में परीक्षार्थियों की भीड़ भी भारी मात्रा में है। तीसरे और
चौथे मंगल तक कई
बोर्डों
के परीक्षाफल घोषित हो चुके होते हैं। धन्यवाद देने वाले उर्तीर्ण परीक्षार्थी भारी संख्या में हैं। दरअसल बजरंग बली छात्रों के फेवरिट भगवान हैं। परीक्षा देने के लिये जाते हुए जितने भी मंदिर रास्ते में
दिखते हैं वहां बजरंग बली ही विद्यमान मिलते हैं। परीक्षा कक्ष में जब पर्चा हाथ में आता है तब आंख बंद कर सबसे पहले बजरंग बली का ही तो नाम लिया जाता है। छात्रों का बजरंग बली से प्यार आज का नहीं है, बहुत पुराना है। जब बंदा चालीस-पैंतालिस साल पहले परीक्षा देने जाता था तब भी आड़े वक्त में यह बजरंग बली ही तो बचाते थे। हनुमान सेतु वाले बजरंगबली मंदिर में छात्रों को आशीर्वाद देने की सर्विस राउंड दि क्लाक चलती थी। फ़र्क यह है कि पहले के बजरंग बली थोड़ा सख्त थे। हार्ड मार्किंग करते थे। बामुश्किल चालीस प्रतिशत ही उत्तीर्ण हो पाते थे। अब तो नब्बे के आस-पास पास रिज़ल्ट आता है। अस्सी से सतानवे-अठानवे प्रतिशत प्राप्तांक वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। दरअसल जनसंख्या बढ़ी है, उसी अनुपात में मंदिरों की संख्या और भक्तगणों की संख्या व आस्था भी बढ़ी है। भगवान भी कुछ बदले हैं। पहले मंदिर के सामने से गुजरते हुये भी बंदा साईकिल एक किनारे खड़ी कर दंडवत करके आगे बढ़ता था। फुर्सत होती थी तो अंदर जाकर टीका लगवा प्रसाद भी ग्रहण कर लेते थे। आज देखिये बाईक पर बैठे-बैठे ‘हाय हनु’ कहा और चलते बने। हैरानी होती है कि बजरंगबली ऐसों-वैसों को अच्छे नंबरों से पास भी कर देते हैं।
दफ़तरों में भी सख्त अफसर के कमरे में प्रवेश करने से पूर्व मातहत बजरंग बली का स्मरण करना नहीं भूलते। अफसरान भी भगवान के नाम से डरते हैं। एक घनघोर नास्तिक अफसर ने भंडारे के लिये चंदा नहीं दिया। बोला-‘‘मेरे चंदा न देने से क्या फ़र्क पड़ेगा। नहीं दूंगा।’’ तब साथी ने
समझाया-‘‘ठीक है, आपको नहीं पड़ेगा। बजरंग बली को भी नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर भक्तगण को फर्क पड़ गया तो? इनसे टकराना महंगा पड़ सकता है। ये लोग जीना हराम कर देंगे। काम नहीं करेंगे। बात-बात में मीन-मेख निकाल कर काम की स्पीड में रुकावट पैदा करेंगे। और शायद आपके निजी काम या टूर के टीए-डीए बिल भी लटकायेंगे।’’ यह सुनते ही उन्होंने सबसे ज्यादा चंदा दिया। और ख्याल रखा कि आयोजन में कोई कमी न होने पाये।
अब ये मिथक बन गया है कि बजरंग बली का ‘प्रोटेक्शन’ है तो बड़े से बड़ा संकट भी दुम दबा कर भाग खड़ा होता है। कोई डरा नहीं सकता। भूत पिशाच निकट नहीं आवा महावीर जब नाम सुनाया। यही कारण है कि सबसे ज्यादा भंडारे दफतरों के आस-पास ही लगते हैं, चाहे सरकारी हों या प्राईवेट। तमाम अफसरान रुचि लेते दिखते हैं कि आयोजन ठीक-ठाक निपट जाये। भविष्य भी अच्छा दिखता है। कई कारपोरेट घराने भी भंडारों को अब तो प्रायोजित करने लगे हैं। शीघ्र ही श्रेष्ठ भंडारे को पुरुस्कृत करने की योजना भी चल सकती है। अच्छी बात है। इससे क्वालिटी और सफाई के प्रति जागरूकता उत्पन्न होगी।
कैसा भी मार्ग हो, संकरा हो या
चौड़ा। हर मोड़ पर हर तरह के संकट से बचाने वाले बजरंग बली विद्यमान मिलेंगे। एक भक्त बता रहा था कि उसके मोहल्ले में बीच सड़क पर बजरंग बली प्रकट हो गये। सरकार उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। भक्तगण भी पसड़ गये। आखिर में सड़क को ही रास्ता बदलना पड़ा। बहरहाल भक्तगणों को आशा है कि बड़े मंगलों की लोकप्रियता को देखते हुए शीघ्र ही सरकार जेठ के महीने में रविवार के स्थान पर मंगल को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर देगी।
‘ऊपर’से खबर आयी है कि भक्तगणों की लंबी-लंबी कतारों और उनकी ऊंची डिमांडों से परेशान हैं बजरंग बली। इनमें भ्रष्ट व काहिल बड़ी संख्या में हैं। एक सेवक ने सुझाया- शार्ट लिस्ट बनायी जाये। परंतु बजरंगबली जी ने विचारोपरांत मना कर दिया। दरअसल आशंका है कि सच्चे आस्थावानों की आस्था डगमगा जायेगी। और उससे भी बड़ी बात तो यह है कि भंडारों-प्याऊ के कारण शहर में जेठ के चारों मंगल को कोई भूखा-प्यासा नहीं रहता। तमाम लोग हल्का नाश्ता लेते हैं। भंडारे से भरपेट लंच की व्यवस्था होती है। कई भाई लोग इसी बहाने डिनर का भी प्रबंध कर लेते हैं। फ्रिज-ओवन वाले कुछ शरीफ लोग अगले दिन सुबह का नाश्ता भी इसी का करते हैं।
जय बजरंग बली!
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- वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ -
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दिनांक 20
05 2014
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