Sunday, May 18, 2014

ललिता पवार - सात दशक और सात सौ फिल्मों का लंबा सफ़र!

सिनेमा
       
ललिता पवार - सात दशक और सात सौ फिल्मों का लंबा सफ़र!

- वीर विनोद छाबड़ा

हिंदी सिनेमा के गुज़रे सौ साल के सफ़र के सफ़े पलट कर जो भी पढ़ता है तो आलटाईम क्रूर सास, कठोर मां और बच्चों को हर वक़्त डांटती फटकाराती दिखने वाली दादी मां की जिस शक्ल का नाम पहले नंबर पर निर्विवाद रूप से लिया जाता है, उसका नाम ललिता पवार है। हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं है कि उन्होंने 70 साल के अपने फ़िल्मी सफ़र में सिर्फ़ खराब किरदारों को ही जिया है। ढेरों भले किरदार को भी उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ जिया। लेकिन हाय बदकिस्मती! शोहरत उनके नकारात्मक किरदारों को ही मिली और पहचान भी इन्हीं से बनी। वो पहली अदाकारा थीं जो परदे पर जब भी नायिका को प्रताड़ित करने की साज़िश में कामयाब होतीं थीं तो तमाम तमाशबीन नायिका के पक्ष में जज्बाती होकर उन्हें चुनींदा
असंसदीय गालियां देते जिनको भरे दिल से वो बर्दाश्त करती थीं। जाने ऐसा क्यों था कि बुरे किरदारों में ललिता पवार बड़ी सुगमता से जान फूंकती थी! परंतु यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि बुरे किरदारों को पूरे अहसास के साथ जीने के लिये उन्हें कभी कोई ईनाम नहीं मिला। उन्हें 1959 में हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित अनाड़ी में श्रेष्ठ सहनायिका का ईनाम एक नरम दिल किरदार मिसेज डिसुजा के लिये मिला था जिसके लिये उनकी कतई कोई पहचान नहीं थी। वो कहती थीं कि भद्र किरदारों में जान फूंकने के लिये उन्हें अथक मेहनत करनी पड़ती थी और इसी मेहनत से उनको तसल्ली भी मिलती थी।

ललिता पवार का फिल्मों में दाखिला किसी मजबूरी की वजह से नहीं बल्कि शूटिंग देखने के शौक के कारण हुआ था। महज़ नौ साल की थीं वह। तब वो अंबा के नाम से जानी जाती थी। वो 18 अप्रेल, 1916 को नासिक में जन्मी थी। पिता लक्ष्मण राव नासिक के एक अमीर व्यापारी थे। परिवार दकियानूसी था जो पुराने रीति-रिवाजों और धरम-करम में यकीन करता था। जब अंबा नौ साल की थी तो वह बंबई के एक
स्टूडियो में घूमने गयी थी। वहीं डायरेक्टर की निगाह अंबा पर पड़ी। उन्हें एक चुलबुली और बातूनी लड़की की बड़ी शिद्दत से तलाश थी। अंबा में उन्हें तलाश पूरी होती दिखी। पूछा- काम करोगी? सिनेमा में काम करना सभी को अच्छा लगता है। अंबा तो तुरंत तैयार हो गयी। परंतु उसके पिता को इससे परेशानी हुई। थोड़ी ना-नुकूर के बाद वो यह सोच कर मान गये कि अंबा अभी बच्ची ही तो है। बड़े होने पर घर-बार परिवार संभालेगी। दरअसल उन दिनों सिनेमा के परदे पर स्त्रियों का काम करना अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। जो स्त्रियां काम करती भी थीं तो उनमें खुलापन बहुत था। परदे अर्द्धनग्नता और चुंबन के दृश्य आम थे। बहरहाल, जिस मराठी फिल्म में अंबा को ब्रेक मिला था उसका नाम था - पतित उधार। इसमें अंबा बच्चे के जिस किरदार को कर रही थी उसका नाम ललिता था। और ये किरदार इतना पसंद किया गया कि अंबा को हमेशा के लिये अंबा का नाम दफन करके ललिता हो जाना पड़ा।


कुछ साल बाद जब ललिता ने गणपत राव पवार से शादी की तो वह ललिता पवार हो गयी। परंतु यह गठजोड़ ज्यादा चला नहीं। गणपत राव द्वारा ललिता की बहन में रुचि लेने के कारण दोनों में अलगाव हो गया। तब ललिता ने अंबिका स्टूडियो के मालिक राज प्रकाश गुप्ता से शादी कर ली। परंतु ललिता ने पवार
सरनेम नहीं छोड़ा क्योंकि  फिल्मी दुनिया और दर्शक तब तक उसके इस नाम से भली-भांति परिचित हो चुके थे। फिल्मी लोग तब भी दकियानूस होते थे। प्रचलित नाम बदलने का रिस्क नहीं लेते थे। फिर ललिता पवार तो अपने इस नाम के साथ कामयाबी का लंबा सफर भी तय कर चुकी थी।

शुरूआत के कई साल तक बाल कलाकार ललिता मराठी फिल्मों में काम करती रही। बालिग होने पर उसने फिल्मी दुनिया छोड़ी नहीं जैसा कि उनके पिता का ख्याल था कि वह बड़ी होने पर घर बसाने की भारतीय परंपरा निबाहेगी। बताते हैं कि ललिता ने लगभग 700 मराठी और हिंदी फिल्में की जिनमें कई तो बहुत बोल्ड किरदार भी थे। लेकिन यह फिल्मों का शुरूआती दौर था। शुरू के दौर में उनकी हिट फिल्में थीं-नेताजी पालेकर (1938), संत दामाजी, अमृत, गोरा कुंभर आदि। वो साईलेंट फिल्मों का दौर था जब 1932 में ललिता ने महज़ 17 साल की आयु में तहलका मचाया था। कैलाश में उन्होंने नायिका, मां और खलनायिका की तिहरी भूमिकायें कीं। ये फिल्म उन्होंने स्वंय निर्मित की थी। तिहरी
भूमिकायें करने की वजह यह बतायी गयी कि उन दिनों महिला पात्रों के लिये महिलाओं का अभाव था और फिल्म के लिये धन प्रबंधन भी एक बड़ी समस्या थी। ललिता ने तिहरी भूमिका करके इस समस्या का हल कर दिया और साथ ही साथ एक प्रतिमान भी स्थापित कर दिया। इस फिल्म को जबरदस्त ख्याति प्राप्त हुई। इसके अलावा 1938 में दुनिया क्या हैबनायी। मगर कुल मिला कर नाकामी हाथ लगी।

चतुर सुंदरी’ में ललिता ने 17 किरदार अदा किये। तहलका मचना तो स्वाभाविक ही था। ललिता का कैरीयर बतौर नायिका परवान चढ़ रहा था। मगर नहीं मालूम था कि एक ऐसी त्रासदी उनका इंतजार कर रही थी जो ललिता को सातवें आसमान नीचे गिरा देगी। उसके अरमानों पर पानी फेर देगी। मगर कहते हैं कि ऊपर वाले के खेल निराले होते हैं। तकलीफ देता है तो उसका ईलाज भी बताता है। ट्रेजडी के बाद कामयाबी का एक और रास्ता खुलता नजर आता है जो पहले से ज्यादा खूबसूरत और शोहरत से भरा होता है।

दरअसल हुआ ये था कि 1942 में जंगे आज़ादी’ के सेट पर अभिनेता भगवान, जो आगे चल कर भगवान दादा के नाम से मशहूर हुये, को एक शाट में नायिका ललिता को थप्पड़ मारना था। भगवान उन दिनों नये-
नये ही आये थे। दो-तीन फिल्में ही कीं थीं। मगर कोई खास असर नहीं छोड़ पाये थे। थप्पड़ मारने के उस शाट से ठीक पहले भगवान ने सोचा कि मौका बढ़िया है एक्टिंग की धाक जमाने का, थोड़ा रीयल्टी पैदा करने का। इधर जैसे ही डायरेक्टर ने टेक के लिये एक्शन बोला, भगवान ने पूरी ताकत से थप्पड़ मारने के लिये बहुत तेजी से हाथ घुमाया। भगवान की इस तेजी की डायरेक्टर को उम्मीद थी और ललिता को। वो अपना चेहरा फौरन हटा नहीं सकी। तड़ाक....

नतीजा ये हुआ कि भगवान का जन्नाटेदार थप्पड़ ललिता के बायें गाल पर चिपक गया। इससे प्रभाव से ललिता की बायीं आंख सूज गयी। शुरू में लगा कि मामूली सूजन है। दो-चार दिन में ठीक हो जायेगी। ललिता शूटिंग पर वापस जायेगी। मगर जल्दी ही साफ हो गया कि यह सूजन मामूली नहीं है। बल्कि उस हिस्से में पैरालैसिस हो गया है। डाक्टर ने बताया कि इसका ईलाज लंबा चलेगा और यह कभी ठीक भी होगी, इसमें भी संदेह था। पूरे तीन साल तक ईलाज चला। इन सालों में ललिता ने ठीक होने के इंतज़ार में कैसे एक-एक पल काटा, इसे सिर्फ़ ललिता ही जानती थी। बहरहाल, ललिता ठीक हो गयी। मगर आईने ने
कुछ और ही बताया। उसकी बायीं आंख हमेशा के लिये थोड़ी छोटी हो चुकी थी। जाहिर था कि अब ललिता नायिका के किरदार के लिये अयोग्य घोषित हो गयी थी। वो जार-जार रोयी, कल्पी। अभिनेता भगवान को लाख लाख गालियां दीं और ऊपर वाले भगवान से पूछा कि इसमें उसकी क्या गलती थी। भगवान के हर घर की दर पर दस्तक दी। मगर नियतिके विरूद्ध कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। किसी को छोटी हो गयी बायीं आंख वाली नायिका के रूप स्वीकार्य नहीं हुई।

जहां चाह, वहां राह। एक हमदर्द ने ललिता पवार को सलाह दी कि अगर सहायक भूमिकाएं मिलें तो उन्हें को स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। अब पहले ज़रूरी है पैर जमाना। अपनी प्रतिभा का लोहा तो किसी भी भूमिका में मनवाया जा सकता है। बात जंच गयी। एक आंख छोटी होने के कारण ललिता का लुक शातिराना हो गया था। इस सच को भी पचाने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी ललिता को। मगर ललिता को यह
नहीं मालूम था कि मुकद्दर में एक और बेहतरीन और कामयाब सफर शुरू होना लिखा था। जैसे ही फिल्म जगत में संदेश गया कि ललिता कैसी भी भूमिका स्वीकार करने को तैयार है, उन्हें फिल्मों में मां, बहन आदि की सहायक भूमिकाओं के साथ-साथ खलनायिका की भूमिकायें भी मिलनी शुरू हो गयी। लेकिन इस पारी में उसे मराठी के स्थान पर हिंदी फिल्मों में ज्यादा पहचान मिली। धीरे-धीरे यह स्थापित हो गया कि कठोर सास, क्रूर ननद, षणयंत्रकारी जेठानी की भूमिकाओं में ललिता चेहरे-मोहरे के हिसाब से फिट बैठती ही हैं। उसमें सहज भी ज्यादा हैं, पूरे परफेक्शन के साथ करने में भी माहिर हैं।

मगर इसके बावजूद ललिता सहृदय मां की भूमिकाओं में भी अरसा तक पहली पसंद रहीं। दाग़ (1952) में वो नशेड़ी दिलीप कुमार की मां बनी थी। रीयल लाईफ में उस वक्त वो दिलीप कुमार से महज़ चार साल बड़ी थीं। 1955 में राजकपूर की श्री 420 में फुटपाथ रह कर केले बेचने वाली हरदिल अज़ीज गंगा माई और गुरूदत्त की मिस्टर एंड मिसेज़ 55 में सीतादेवी की दिल लुभाने वाली भूमिकाएं की। देवानंद की नौ-दो ग्यारह (1957) में भी काफी सराही गयी। हृषीकेश मुकर्जी ने अनाड़ी (1959) में उनकी प्रतिभा में एक नया आयाम खोजा। ऊपर से कठोर परंतु दिल की नर्म मिसेज डिसूजा की भूमिका को जिस सहजता तथा मनायोग से किया उसने लाखों दिल जीत लिये। इस फिल्म के लिये ललिता पवार को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला।

हालांकि ललिता पवार ने इसके बाद भी अनेक अच्छे और खराब किरदारों को पहले से कहीं ज्यादा बेहतर किया, दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा भी कि अभिनय ललिता के लिये बायें हाथ का खेल हो गया है। वो किसी भी तरह की भूमिका को चुनौती की तरह स्वीकार करती हैं। परंतु इसके बावजूद वो पुरुस्कारों से वंचित रहीं। इसका मुख्य कारण यह था कि पुरुस्कार पर कब्जा करने के लिये तिकड़मबाजी चलन में चुकी थी। इसमें ललिता को कतई महारथ हासिल नहीं थी। वस्तुतः ललिता इस मामले में इतनी कमजोर थी कि उनकी पैरवी करने को किसी से अनुरोध नहीं कर सकती थीं। इस सच के बावजूद कि ललिता कैरीयर के सात दशक के लंबे दौर के हर दौर के टाप नायकों की मां के लिये पहली पसंद थी। मगर परदे के बाहर उन्होंने अपनी मां के लिये किसी से सिफारिश करने की ज़हमत नहीं उठायी। हो सकता है कि उन्हें लगता हो कि मां ललिता के लिये बेटे के प्यार से बढ़ कर कुछ नहीं होता और जिसे वे परदे पर दे ही रहे हैं। मगर
ललिता इससे कतई निराश नहीं थी क्योंकि उन्हें अपने अभिनय के लिये अपने साथी कलाकारों और दर्शकों से अथाह प्यार मिलता था और तमाम बड़े निर्माता-निर्देशक उनके दरवाजे पर आकर उन्हें साईन करने आते थे। दर्शकों का उनके किरदारों के प्रति गुस्सा और प्यार ही उनको असली ईनाम था। सुजाता (1959) की बुआजी, हम दोनों (1961) में मेजर देवानंद की मां, संपूर्ण रामायण (1961) की मंथरा, जंगली (1961) के शम्मीकपूर की कभी नहीं हंसने का प्रण कर चुकी मां मिसेस वर्मा, प्रोफेसर (1962) में जवान भतीजियों को कड़े अनुशासन में रखने वाली आंटी सीता देवी, घराना (1962) की बात-बात में रूठने वाली शरारती बच्चों की जिद्दी दादी मां, खानदान (1965) की दुष्ट फूफी, आंखें (1968) की नर्स के भेष में दुश्मन की जासूस और आनंद (1970) की मेटरन को भला कौन भूल सकता है। जिस देश में गंगा बहती है (१९६०) की मीरा, कोहरा (१९६४) की दाई माँ,  संगम (१९६४) में राजेंद्र कुमार की माँ मिसेस वर्मा को भी भुलाया जाना नामुमकिन है। बांबे टू गोवा (1972) में लेडी अघोड़न का छोटा सा कामिक रोल बताता है कि ललिता को हास्य की भी अच्छी समझ थी। परंतु ऐसे मौके ज्यादा मिले नहीं। अलावा इसके दूसरी सीता (1974), तपस्या (1976), आईना (1977), कालीघटा (1980), फिर वही रात (1980) नसीब (1980) में भी यादगार भूमिकायें की।

जब फिल्म सौ दिन सास के(1980) की स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी तो तय हो गया था कि क्रूर सास की भूमिका में ललिता पवार ही होंगी इसलिये उनके व्यक्तित्व को ज़हन में रखकर ही सास का किरदार लिखा जाये। ये फिल्म सुपर-डुपर हिट साबित हुई थी तो इसमें ललिता पवार का बुरा चरित्र भी एक मेजर फेफ्टर था। इसी तरह रामानंद सागर को अपने ऐतिहासिक टी0वी0 सीरायल रामायणकी मंथरा के बारे में कतई नहीं सोचना पड़ा। इस रोल के लिये शुरू से ही उनके ज़हन में 1961 में प्रदर्शित सुपर-डुपर हिट संपूर्ण
रामायणकी मंथरा यानि ललिता पवार ही थी। इसका दूसरा विकल्प भी नहीं सोचा गया था। जबकि उन दिनों ललिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। उनकी आखिरी फिल्म सुनील शेट्टी -पूजा बत्रा अभिनित भाईथी। नब्बे का दशक आते-आते ललिता खराब स्वास्थ्य के कारणों से फिल्मों और फिल्म इंडस्ट्री से गायब हो गयी।

अनेक सहृदय दुष्ट अविस्मरणीय चरित्रों को जीवंत करने वाली ललिता पवार की मृत्यु अत्यंत दुर्भाग्यशाली परिस्थितियों में हुई थी। सन 1990 में उनके जबड़े में कैंसर पाया गया था। उनकी दुनिया पुणे शिफ्ट हो गयी, जहां उनका बेटा-बहू और पति थे। ईलाज के दौरान रेडियाथेरेपी कीमोथेरेपी के असहनीय दर्द से गुज़रना पड़ा। वो कहती थीं शायद मैंने खराब करेक्टर्स ज्यादा दिल से किये। इसी की सजा भुगत रही हूं। बीमारी के कारण उनका वजन बहतु कम हो गया था और याददाश्त भी प्रभावित हुई थी। उनकी मृत्यु तनहाई में उस वक्त हुई जब वो घर में अकेली थीं। पति राज प्रकाश गुप्ता के ईलाज के सिलसिले में बेटा बहू मंबई गये हुये थे। उन्हें घर में अकेला छोड़ गये थे। बड़े शहरों में ऐसा ही होता है।
26 फरवरी 1998 को पति ने ललिता को फोन किया। पर फोन नहीं उठा। ऐसे में शक का उठना स्वाभाविक था। फौरन पुणे वापस पहुंचा परिवार। दरवाजा खोला गया तो ललिता का निर्जीव शरीर मिला। पोस्ट मार्टम से पता चला कि ललिता तो दो दिन पहल अर्थात 24 फरवरी को ही दुनिया छोड़ चुकी थी। यानि दो दिन तक किसी ने ललिता की सुध तक नहीं ली। तब उनकी उम्र 88 साल थी। पर्दे पर बुरी सास के किरदार में तबाही मचाने वाली और अनाड़ीकी तालियां की गड़गड़ाहट के बीच हमदर्द नरम दिल मिसेज डिसुजा बेहद खामोशी के साथ अलविदा हो गयीं।

मौजूदा पीढ़ी उनको नहीं जानती-पहचानती है। उन्हें ये भी नहीं मालूम कि ललिता पवार को 1961 में भारत सरकार की संगीत नाटक अकादमी ने भारतीय सिनेमा की पहली नारी के रूप में सम्मानित किया था। सिर्फ पुरानी फिल्मों के शौकीन और उस दौर के बचे-खुचे लोग ही उनको जानते हैं कभी-कभी याद कर लेते हैं। सबके साथ ऐसा ही होता है। एक दिन सभी को इतिहास का पृष्ठ बनना पड़ता है।

-----

-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा नगर
लखनऊ - 226016
मोबाईल नंबर 7505663626

दिनांक 18 5 2014

No comments:

Post a Comment