Friday, September 19, 2014

अभी फुरसत नहीं ऊपर जाने की !

-वीर विनोद छाबड़ा

बाज़ लोगों को बीमारी है। किसी बीमार को देखने जाते हैं तो बीमार का हाल पूछते-पूछते अपना हाल बताने लगते हैं।अपने किसी फलां के फलाने के जीजा जी की सास का किस्सा ले कर बैठ जायेंगे और उसे मार कर दम लेते हैं। बस चलता है तो वहीं बैठे-बैठे क्रिया कर्म और चौथा-तेरवीं और बरसी भी कर देते हैं।

अंदाज़ा लगाया जा सकता है मरीज़ का क्या हाल होता रहा होगा।

ख़ुदा किसी को बीमार करे। बीमार करे तो इतना नहीं कि अस्पताल में भर्ती होना पड़े। और ऐसे सज्जन मिजाज़पुर्सी के लिए तशरीफ़ लाएं।

एक बार हमें दुश्मनों की नज़र लग गयी। अब हम ठहरे हम। कोई सर्दी जुकाम जैसी छोटी-मोटी  बीमारी तो लगेगी नहीं। दिलो जां की तकलीफ़ के साथ भर्ती होना पड़ा।

हमने कभी कसर नहीं रख छोड़ी थी। चाहे दूर का रहा हो या नज़दीक का। चाहे दोस्त के पिता हों या उनकी सास। बस ख़बर मिली नहीं कि तबियत नासाज़ है, दिन देखा रात, पहुंच गए मिजाज़पुर्सी को। तन मन धन से सेवाएं हाज़िर कर दीं। कई बोतल खून तक उनकी नसों में पहुंचा दिया।

अब ऐसी खिदमात का सिला तो मिलना लाज़िमी ही था न। लाख चाहा खबर हो किसी को। नाहक परेशान होंगे लोग। मगर मेमसाब की ढिंढोरा पीटो नीति ने हमें फेल कर दिया। लाइन लग गयी।


चूंकि रिटायर होने में काफ़ी वक़्त था लिहाज़ा भीड़ कुछ ज्यादा ही जोश में थी। कुछ तो आख़िरी दीदार की हसरत के साथ आये थे, बाकायदा हरी पत्ती वाला बड़ा सा गोला लेकर। इन्हीं में थे दस घर छोड़ कर रहने वाले हमारी पत्नी की नज़र में आइकॉन पड़ोसी मिश्रा। बाज़ार से सस्ती सब्जी खरीद कर लाने की वज़ह से महिलाओं में उनकी रेपुटेशन अच्छी है। जबकि मरदों की दुनिया में वो ख़ासा बदनाम है। मरीज़ को इहलोक के दर्शन कराने के बाद ही उठने वालों में है।

मुझे इसका अच्छी तरह इल्म था। मैंने बहुत कोशिश की, सोने का नाटक करने की।

मगर उसे अपनी रेपुटेशन की इज़्ज़त की पड़ी थी। मेरे मरज़ जैसे कोई दर्जन भर केसेस गिना डाले, जिसमें खुदा ने मरीज़ को ज़न्नत बुलाया था।

अब चूंकि हम उनकी हरकतों से वाकिफ़ थे लिहाज़ा हम पर कोई असर नहीं हुआ। हमारी जगह कोई और होता तो यकीनन ज़न्नत की सैर पर निकल लिया होता।

बहरहाल हम सही सलामत अस्पताल से बाहर गए। सीने में मामूली सी गैस फंस गयी थी। मिश्रा देखने आया
उसे बड़ी निराशा हुई थी। बोला - किस्मत अच्छी थी वरना ऊपर ही जाते देखा है लोगों को।

कुछ दिनों बाद मिश्रा की बारी आई। उसे लीवर में कुछ प्रॉब्लम थी। हम देखने गए।

हमें देखते ही वो भल भल कर रोने लगा - अब मैं नहीं बचूंगा। मेरे बीवी बच्चों का कौन ध्यान रखेगा?

जी में आया दो धर दूं। ज़िंदगी भर दूसरों को रुलाया है तुमने आज खुद पे आई तो रो रहा है!

हम किसी तरह सब्र का घूंट पी गए। उन्हें सांत्वना दी। लेकिन वो थे कि चुप होने का नाम नहीं ले रहे थे। मेरे कंधे पे सर रख लिया। उनकी पत्नी और बेटी भी वहीँ पास बैठे थे। वे भी रुआंसे हो चले। हमने फिर कोशिश की। लेकिन वो चुप होने का नाम लें। उलटे उनका रुदन बढ़ता ही चला गया।

अब हमारे सब्र का बांध टूट गया। उन्हें जोर से डपट दिया- अबे चुप साले। तुम्हें कुछ नहीं हुआ। तुम्हें अच्छी तरह ये बात तुन्हें मालूम है। नौटंकी करता है। भाभी और इस नहीं बच्ची को परेशान करता है। सोचा है कभी जब मिजाज़ पुरसी के बहाने तू दूसरों की जान लेता था तो उसके और उसके घर वालों के दिलों पे क्या गुज़रती थी।

हमारे इस तरह जोर से डांटने से मिश्रा की घिग्घी बंध गयी। वो चुप हो गया

सहसा उनकी पत्नी और बेटी खूब ज़ोर से खिलाखिला कर हंस बड़े। मैंने उनकी और हैरानी से देखा।

उनकी बेटी बोली -अंकल बहुत अच्छा किया। आज तक हम पापा की डांट ही सुनते आये हैं।आज पता चला पापा को भी भी कोई डांट सकता है। मज़ा गया। रोज़ आकर डांट पिलाया करिये। रहा प्रॉमिस।

ये सुनकर हमारी भी हंसी फूट पड़ी। और मिश्रा भी हंस पड़ा। मैंने उसे गले लगा लिया- ऊपर इकट्ठे चलेंगे दोस्त।

आज बीस बरस गुज़र चुके हैं। मिश्रा मिजाज़पुर्सी करने जाता है तो नेगेटिव बात नहीं करता। ढांढस बंधाता है। मुझे जब कभी मिलता है तो पूछता हूं- कब चल रहे हो?

वो कहता है- अभी वक़्त नहीं आया। बहुत काम करना बाकी है। फुरसत मिली तो सोचा जायेगा।
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-वीर विनोद छाबड़ा 19.09.2014 Mob 7505663626

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