Sunday, September 28, 2014

निर्वासन में निर्वासन!

‘निर्वासन’ में कितने सारे निर्वासन!
-के0के0चतुर्वेदी

अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ पर हालांकि मैं पूर्व में संक्षिप्त टिप्पणी कर चुका हूं लेकिन हाल ही में इसके संशोधित व पेपरबैक संस्करण के आने पर मैंने इसे पुनः पढ़ा। पुनः पढ़ने के पश्चात मुझे यह पहले से भी ज्यादा अच्छा लगा। अतः इस पर पुनः प्रतिक्रिया भी समीचीन प्रतीत होती है।

आगे बढ़ने से पूर्व इस बहुत लंबे उपन्यास के पात्रों के माध्यम से कथासार बताना जरूरी महसूस करता हूं।


प्रमुख निर्वासित पात्र भगेलू कुम्हार उर्फ भगेलू पांडे है। सुल्तानपुर में भयंकर अकाल पड़ने पर भगेलू रोजी रोटी की तलाश में गोसाईंगंज छोड़ने पर मजबूर होता है। वह हजारों अन्य मजलूमों की भांति उपनिवेषवादी ऐजेंटों का शिकार हुआ और कलकत्ता पहुंचा दिया गया। कलकत्ता में वह अपना नाम कुम्हार की जगह पांडे लिखा लेता है ताकि उसे पिछड़ी जाति का समझ कर नौकरी से महरूम न होना पड़े। वहां धोखे से उसे गिरमिटिया मजदूर बना के सूरीनाम पहुंचा दिया जाता है जहां वो अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों से कट कर ताउम्र निर्वासित जीवन जीने के लिये खुद को अभिशप्त पाता है।

सालों बाद। भगेलू पांडे का पोता रामअजोर पांडे बड़ा हुआ। वो अमेरिका में व्यापार करके ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहा है। अचानक रामअजोर को अपने पुरखों की जड़ों की तलाश करने की फ़िक्र हुई। वो भारत आकर लखनऊ आता है। यहां वो एक पत्रकार के माध्यम से सूर्यकांत नामक एक व्यक्ति की पैसों की एवज़ सेवाएं लेता है। रामअजोर की अपने पूरखों की जड़ों का पता लगाने की योजना पर सूर्यकांत काम शुरू कर देता है। 

इस सूर्यकांत की भी अपनी एक कहानी है। एक भयंकर आंधी तूफान की रात उसके पिता ने उसे और उसकी पत्नी गौरी को रंडी व बदचलन करार देकर घर से निकाल दिया था। तब उस रात उसके चाचा ने उसे शरण दी थी। इस तरह सूर्यकांत भी अपने परिवार के साथ लखनऊ में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा है। सूर्यकांत एक आदर्शवादी व्यक्ति है। उसे पर्यटन विभाग में नौकरी मिली थी। मगर इस विभाग की नौकरी वो इसलिये छोड़ दी थी क्योंकि विभाग के लिये मंत्री बृहस्पति संपूर्णानंद एक निहायंत ही भौंडी पुनरूत्थानवादी योजना पर हस्ताक्षर करना उसे गवारा नहीं था। अब रामअजोर के पुरखों की जड़ो के तलाश करने केे काम मिला तो उसे उसमें सृजनशीलता की भी अनुभूति भी प्राप्त होती है।

सूर्यकांत सुल्तानपुर अपने घर लौटता है। वो आड़े वक्त में काम आने वाले अपने चाचा से मिलता है। इस चाचा की भी एक कहानी है। चाचा अपनी पत्नी और बच्चों द्वारा अपमानित व प्रताड़ित होकर घर के पिछवाड़े एक झोपड़ी बनाकर स्वनिर्वासित जीवन गुजार रहे हैं।

चाचा के साथ सूर्यकांत गोसाईगंज पहुंचता है। गहन छानबीन करते हुए वे रामअजोर के पूर्वज के खून के रिश्तेदार जगदंबा कुम्हार के पड़पोते गिरिजाशंकर से मिलते हैं। गिरिजाशंकर का हुलिया भगेलू पांडे से काफी मिलता जुलता है। इस प्रकार अपने मिशन में सूर्यकांत सफल होता है।

सूर्यकांत जब भगेलू पांडे के पुरखों का पता लेकर लखनऊ पहुंचता है तो पता चलता है कि ढोंगी मंत्री संपूर्णानंद बृहस्पति के उस सतयुग प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल चुकी थी, जिसको भोंड़ा कह कर सूर्यकांत ने नौकरी पहले ही छोड़ दी थी। उसे तब और हैरानी होती है जब भगेलू पांडे यह कहता है-’’ जब मैंने प्रोजेक्ट की मंजूरी की खबर पढ़ी तो मुझे लगा कि मेरे बाबा कभी सूरीनाम गए ही नहीं।’’

निर्वासन में कई पात्र हैं और हर पात्र एक निर्वासन में जीने के लिये अभिशप्त है। ये लंबा उपन्यास दो पात्रों के मध्य संवादों के माध्यम से उस काल की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्थिति का वर्णन और उसकी विवेचना करता हुआ निर्बाध रूप से एक निर्वासन से दूसरे निर्वासन की यात्रा करता हुआ आगे बढ़ता रहता है।

मुझे सूर्यकांत के चाचा से संवाद अत्यंत रुचिकर लगते हैं। चाचा की बलवंतकौर से बेहद मोहब्बत है। लेकिन कभी व्यक्त नहीं कर पाये। 1984 में सिक्ख विरोधी दंगों में बलवंतकौर का परिवार सुलतानपुर से भटिंडा निर्वासित हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे मानव जाति के बेगानेपन और निष्ठुरता का शिकार होकर पंछी भी कहीं और निर्वासित होने के लिये बाध्य होते हैं।

चाचा एमरजेंसी में आमजन पर किये जा रहे बेपनाह जुल्मों के चश्मदीद गवाह ही नहीं स्वंय को उसका शिकार भी रहे हैं। वो इस बारे में जगह जगह टिप्पणी करता है। एक जगह वो कहते हैं - ‘‘सुलतानपुर शहर के लोगों ने अपने बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों का तब तक मुंडन नहीं कराया जब तक मुल्क में एमरजेंसी लागू रही।’’

चाचा की भतीजे सूर्यकांत से बात-चीत करते हुए की गयी एक और टिप्पणी दिलचस्प और काबिलेगौर है- ‘‘मेरे भतीजे, ताज्जुब की बात बिलकुल नहीं है। दरअसल औरत, जाति और धर्म इन तीनों के नाम पर बुज़दिल, नरमदिल और नेकदिल भी खौफ़नाक बन जाता है।’’

चाचा एक दार्शनिक के रूप में एक बार नहीं बार बार सामने आते हैं। एक अवसर पर सूर्यकांत पूछता है - ‘‘आप नयेपन के विरोधी क्यों हैं?’’ इस पर चाचा कहते हैं - ‘‘यकीन मानो मेरी बात का। मैं बिलकुल पुरातनपंथी नहीं हूं। न ही मैं इसका कायल हूं कि सुंदरता सिर्फ पुराने में ही बसती है। लेकिन मैं क्या करूं? इन दिनों के वर्तमान के हर मंज़र को देखकर, इसकी हर ध्वनि को सुनकर मेरा माथा फटने लगता है। महसूस होता है कि संसार इतना बदसूरत कभी नहीं रहा होगा। मैं सोचते हुए थर्रा उठता हूं कि ज़माना इसी रफ़्तार से चलता रहा तो हमारा आने वाला संसार कितना घटिया और भयंकर होगा।’’

नयेपन पर एक और जगह सूर्यकांत से बात करते हुए चाचा ग़ौरतलब टिप्पणी करते हैं- ‘‘कौन ऐसा होगा जिसे बच्चे, कोंपले और ताजा खिले फूल अच्छे नहीं लगेंगे। लेकिन कल्पना करो कोई शिशु अपने से बड़ों को गालियां बकना शुरू कर दे या दौड़ा-दौड़ा कर पीटना शुरू कर दे तो वह सुंदर लगेगा या तरस खाने योग्य?’’ चाचा आगे फिर कहते हैं- ‘‘देखो सूर्यकांत मुझे नयेपन से बिलकुल परहेज़ नहीं है। तुम भूले नहीं होगे। मैंने हमेशा उसे गले लगाया। दरअसल, मुझे बस नयेपन का अहंकार और उसकी बेमुरुव्वती असहाय हो गयी। मुझे नफ़रत हो गयी उससे। मेरी दिली ख़्वाहिश ऐसे समय में रहने की थी जहां नये पुराने दानों की सुंदरताएं एक दूसरे को मजबूती प्रदान करें।’’

सूर्यकांत की डायरी में दर्ज बीस ऐसे भूले-बिसरे शब्द पढ़े, जिन्हें सुने-कहे एक ज़माना गुज़र चुका है। इन्हें पढ़कर घर के आंगन में चिड़ियों के चहकने का अहसास होता है। कभी लगता है कि बागों में घुंघरू बांधकर मोर नृत्य कर रहे हैं। आप भी पढ़ें और अहसास करें- खोटना, पाथना, कथरी, तरई अजोर होना, थुर देना, भलमनई, जोरू हुर देना, नटई, नक्कटी, नोन, अंचरा, बंडी, दहीजरा, गदेली, नेवाड, बरवरी, बोडसी, मील, नीमर, किरिया, कठकरेज, घेर्राना, दईऊ, चोकरना, अन्निहार, डिकना, मलाईबरफ, खुशियाली, कोढ़िल्ला, सोहारी, पिसान, बिहान, लहुरा, लूगा, खरमिटाव, मटरमाला, छान्ह, मचिय, जागर, हेरना, भइया, बतास।

रामअजोर के पूर्वजों का वंशज गिरिजाशंकर सुलतानपुर में कामरेड कोमल की चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीता रहा है। वो कोमल से प्रभावित होकर वामपंथी विचारों की दीक्षा लेता है। फिर वो स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया की सदस्यता ग्रहण करता है और बाद में पार्टी की नौजवान सभा का सदस्य भी बनता है। एक जगह गिरिजाशंकर कहता है- ‘‘मुझे लगता है लेखक को गरीबों की भूख का अहसास ही नहीं है अथवा वह गरीबों को भूखा रखने वाली सरमायादार ताकतों का एजेंट है....अफ़साने से बाहर निकलकर देखिये तो पायेंगे कि प्रधानजी के घर से जितना झूठन गिरता है, जितना खाना फेंका जाता है, जितना उनके जानवर खा जाते हैं उतने में मेरे परिवार का पेट भर सकता है।’’ निर्वासन का यह भाग पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे इस उपन्यास के लेखक अखिलेश ने स्वंय इस कामरेड कोमल की चाय की दुकान पर बैठ कर राजनैतिक बहस मुबाहिसों में हिस्सा लेते हुए जनवादी एवं वामपंथी विचारों की दीक्षा ली है।

यहां पर अखिलेश एक ठोस सामाजिक राजनीतिक समझ के हिमायती दिखते हैं। और ‘निर्वासन’ नव उदारवादी वैश्वीकरण से उत्पन्न अपसंस्कृति से मोहभंग की महागाथा है। समाज के सामने उपस्थित सांस्कृतिक मूल्यों के ह्रास एवं विडंबनाओं से जूझने का आईना है। उपन्यास न तो पुनुरूत्थानवादी अवधारणा का पोषक है और न ही बर्बर आधुनिकता का हिमायती। इन दोनों ही अवधारणाओं का अंशतः निषेध करता है। लेकिन दोनों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश भी करता नज़र आता है। ताकि भविष्य के लिये एक सुंदर, सभ्य और सुसंस्कृत समाज का निर्माण किया जा सके।

अखिलेश के अद्भुत कथा शिल्प और निराले अंदाजे़बयां ने निर्वासन को कालजयी व क्लासिक स्तर तक पहुंचा दिया है। मुझे यकीन है भारतीय साहित्य में यह ‘निर्वासन’ मील का पत्थर साबित होने जा रहा है। और इसीलिये मुझे यह कहने में ज़रा भी झिझक और अतिश्योक्ति (इस बड़बोलेपन के लिये विद्वानों से क्षमायाचना सहित) नहीं लगती है कि अखिलेश मुझे दुधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, गालिब, दोस्तोवस्की व  तोलोस्ताय की कतार में खड़े होने के हक़दार नज़र आते हैं।
(शब्द संयोजन वीर विनोद छाबड़ा)
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- के0के0 चतुर्वेदी मो. 9452154034 दिनांक 28.09.2014

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