-वीर विनोद छाबड़ा
मित्रों, जिसने लखनऊ नहीं देखा उसके दिमाग में लखनऊ की तस्वीर एक ऐसे शहर की है जहां लोग सफाईकर्मी से भी 'आप' कहके पेश आते हैं। जहां गंगा- जमुनी तहज़ीब और इल्मो अदब की नदियां कल-कल करके बहती हैं।
मगर लखनऊ को बहुत भीतर तक देखने वालों को मालूम है कि लखनऊ को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। खासतौर पर जब विभिन्न महकमों के मज़दूर/कर्मचारी संघठन वेतन/भत्ते बढ़ाओ और कहीं पुलिस के ज़ुल्म के विरुद्ध प्रदर्शन करने पर उतारू हो जाते हैं। या अपनी ताकत का जोर दिखाने के लिए राजनैतिक दल अपनी लव लश्कर सहित फ़ौज ले आते हैं। प्रदर्शनकारी सड़क पर उतर आते हैं। ऐसी स्थिति में घंटों जाम रहता है। कभी कभी प्रदर्शनकारी अचानक अराजक भी हो उठते हैं। किसी को भी लखनऊ आने से रोकना पप्रशासन के बस की बात नहीं। राजधानी है लखनऊ। अपनी बात सुनाने और कहां जाएं?
इस शहर का ट्रैफिक जुगराफिया कुछ इस किस्म से बना है कि किसी भी अहम जगह पर जाम लगने से उसके साइड इफ़ेक्ट पूरे शहर की गली-गली तक दिखते हैं।
नतीजा ये होता है कि बिजली की आवाजावी, पीने के पानी की किल्लत, नाकाफ़ी स्वास्थ्य सुविधाएं, बजबजाती नालियों, उफनाते सीवर, जगह-जगह फैली गंदगी और अवैध कब्जों से बदहाल आम आदमी की ज़िंदगी पूरी तरह नरक बन जाती है।
भरी दोपहरिया में स्कूल से लौटते बच्चे बिलबिला उठते हैं, गंभीर रूप से रुग्ण रोगी अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं। कभी कभी तो प्रसव पीड़ा से गुज़रती महिला बीच सड़क पर प्रसव का खतरा उठाने के लिए स्वयं को विवश पाती है। अपनी अंतिम यात्रा पर निकले जिस्म भी कराह उठते हैं - यहीं कहीं क्रियाकर्म कर दो। अब इंतज़ार बर्दाश्त के बाहर हो चुका है।
निर्दयी प्रदर्शनकारी आजू- बाजू से निकलने की कोशिश कर रहे गरीब रिक्शे और साइकिल वालों के पहियों की हवा निकाल देते हैं। स्कूटर/बाइक वालों की चाबियां छीन ली जाती हैं। कई की ट्रेन/बस/फ्लाइट छूट जाती है। कोई इम्तिहान देने जा रहा है तो कोई इंटरव्यू। किसी को मांगलिक कार्यक्रम में और किसी को गमी में जाना था। 'वन्स इन लाइफ टाइम' का ये मौका छूट गया है। सिवाए सर के बाल नोचने और जिम्मेदारों को भद्दी-भद्दी गालियां देने के सिवा वो कुछ नहीं कर सकता।
प्रशासन/शासन के सीने में भी दिल नहीं है। इन प्रदर्शनकारी कर्मचारियों/मज़दूर संघठनों के प्रतिनिधियों से वार्ता करके स्थिति को सुलझाने में किसी की रूचि नहीं है। जाओ नहीं मानते तुम्हारी मांग। सब बेजा मांगें हैं ये। जो चाहे कर लो। मुख्यमंत्री से शिकायत करो या प्रधानमंत्री से। बराक ओबामा से भी चाहो तो मिल लो। सुप्रीमकोर्ट चले जाओ। जाम लगाओ य घेराओ करो। या आत्मदाह। मेरी बलां से।
इधर प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधियों की भी कोई विशेष रूचि समस्या के समाधान में नहीं है। उन्हें अपनी नेतागीरी चमकानी है। समाज और शासन में हनक बढ़ानी है। इसी बहाने पर्दे के पीछे चल रही दुकान की बिक्री बढ़ जाएगी। कुछ फ्लैट और काम्प्लेक्स में दुकानें खरीद ली जायेंगी। बच्चों का भविष्य उज्जवल रहेगा।
और प्रदर्शकारियों का क्या जाता है? इसमें स्थानीय लोग कम हैं। प्रदेश के कोने-कोने से बसों और ट्रेनों में भर कर लाये गए हैं। इन्हें जेब से किराया नहीं देना होता है। खाना पीना और ठहरना भी फ्री है। इसी बहाने आउटिंग के साथ साथ लखनऊ घूमना भी हो जाता है। उनकी वज़ह से ट्रेनों और बसों में अन्य यात्रियों को उनकी वज़ह से कोई तकक़ीफ़ हुई है तो उनकी बलां से। शहर की पंगु जनसुविधाएं बिलकुल ठप्प हो जाएं तो उनके ठेंगे से।
कुल मिला कर ऐसी स्थिति पैदा करने में और फिर उससे छुटकारा पाने में किसी की रूचि नहीं है सिवाए लखनऊ वालों के। एक भुक्तभोगी बता गए हैं कि जल्दी ही लखनऊ वाले भी आदी हो जायेंगे। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हड़ताल करो या सड़क बंद करो, मेरे जूते की नोक पर।
लखनऊ के दिनांक २४-०९-२०१४ के नवभारत टाइम्स में छपी खबर और तस्वीर से उक्त कथन की पुष्टि होती है।
-वीर विनोद छाबड़ा २४ ०९ २०१४ मो. ७५०५६६३६२६
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ
आपसे अनुरोध है की मेरे ब्लॉग पर आये और फॉलो करके सुझाव दे