- वीर विनोद छाबडा
आज 6 फरवरी है। आज
से ठीक सौ बरस पूर्व कविवर प्रदीपजी का उज्जैन में जन्म हुआ था। उन्हें याद करना इसलिए
भी जरूरी है क्योंकि वो आज भी प्रासांगिक हैं।
दे दी हमें आज़ादी बिना
खड्ग बिना ढाल....आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की...हम लाये हैं तूफानों
से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों
संभाल के...(जागृति) बिगुल बज रहा आज़ादी का गगन गूंजता नारों...(तलाक़) देख तेरे संसार
की हालत क्या हो गयी भगवान...(नास्तिक).
पचास के दशक के अंत में
जब होश संभालना सीखा था तो कानों ने यही गीत गूंजते सुने। किसने गाये? किसने लिखे? ये बहुत महत्वपूर्ण
नहीं था। निर्विकार भाव से सुना। लेकिन कानों को भले लगे। थोड़ा बड़े हुए। पाठ्य पुस्तकों
में पढ़ा। शिक्षकों, माता-पिता और बड़े-बुजुर्गाें
के मुंह से सुना। अपने मुल्क के बारे में जाना। जाना कि हम गुलाम भी थे। तन पर एक लंगोटी
बांधे एक गांधी बाबा आया। उसके हाथ में थी एक सोटी। समंदर की लहरों पर राज करने वाली
मजबूत अंग्रेज़ी हुकूमत की २०० साल की गुलामी से हमें आज़ादी दिलायी। और फिर यह भी पता
चला कि आज़ादी के बाद इस मुल्क को इसी के बंदों ने छीलना और अंदर से खोखला करना शुरू
कर दिया है और इसकी भी बाआवाज़-ए-बुलंद मुख़ालफत करने वाला कवि प्रदीप है जो उक्त गीतों
का रचियता है। इस इल्म के बाद तो बस कानों में इन गीतों के बोल पड़ते ही भुजाएं फड़कने
लगीं। चेहरा गुस्से से सुर्ख होने लगा।
चलो चले मां सपनों के गांव
में कांटों से दूर कहीं फूलों की छांव में... यह गाना सुनते तो कानों को बड़ा भला लगता
नींद सी आ जाती। पता चला यह भी प्रदीपजी हैं।
१९६२ में चीन ने पीठ में
छुरा घोंपा। मुल्क घायल हुआ। तब प्रदीपजी ने जोश भरने के लिये लिखा ‘ऐ मेरे वतन के
लोगों...’ इसे लता जी ने जोश भरने के लिये जब लालकिले की प्राचीर से गाया
तो पूरा मुल्क एकबद्ध हो गया। प्रधानमंत्री नेहरू तक रो दिये।
इस गीत को लिखने की प्रेरणा
प्रदीपजी को चीन के विरूद्ध युद्ध में शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भट्टी
के बलिदान से प्राप्त हुई। प्रदीपजी का संगीतकार चितलकर रामचंद्र से गीत-संगीत के मामले
में एक लंबा सहयोग रहा है और गहरी मित्रता भी। स्वाभाविक था कि इसका संगीत चितलकर को
ही तैयार करना था। लेकिन इसे आवाज़ देने के लिए आशा भोंसले चितलकर की पहली पसंद थी।
मगर प्रदीप को लगा लता सर्वश्रेष्ठ होंगी। चितलकर और लता की उन दिनों अनबन थी। प्रथमतः
लता ने मना भी कर दिया। मगर जब प्रदीपजी के कहने पर उन्होंने इस गीत को सुना तो वो
तैयार हो गयीं। और इस प्रकार इतिहास बना। इधर आशा का दिल टूट गया। विद्वानों के विचार
से यदि प्रथम पसंद आशा ने इसे गाया होता तो ज्यादा बेहतर होता।
उज्जैन के एक कस्बे में
जन्मे रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी कवि सम्मेलनों में खूब अच्छा गाते थे। अच्छी लोकप्रियता
मिली। उनका नाम बहुत लंबा था। शुभचिंतकों के कहने पर उन्होंने अपना उपनाम रखा प्रदीप।
इस नाम से वो इतना विख्यात हुए कि मूल नाम कहीं गुम हो गया। लखनऊ विश्वविद्यालय में
शिक्षा के दौरान उन्हें बांबे टाकीज़ के हिमांशु राय ने कंगन’ फिल्म के गाने
लिखने का अवसर दिया। फिर सूनी पड़ी है सितार मीरा के जीवन की...कंगन (१९३९) के लिए लीला
चिटणीस ने गाया। बड़ा मशहूर हुआ यह गाना। इसके साथ ही प्रदीपजी की फिल्मों में मांग
बढ़ गयी। वह सामान समेट बंबई आ गए। ‘न जाने आज किधर मेरी नाव
चली रे...(झूला) अशोक कुमार ने गाया इसे।
प्रदीपजी की मांग बढ़ती
जा रही थी। प्रदीपजी को असली पहचान मिली १९४३ में रिलीज़ ‘किस्मत’ से। इसमें उनका
लिखा - आज हिमाला की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनियावालों
हिंदुस्तान हमारा है...अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना द्वारा गाया देशभक्ति से ओतप्रोत
यह गाना। अंग्रेजी हुकुमत की सेंसर ने इसे पारित करने से मना कर दिया। लेकिन द्वितीय
विश्वयुद्ध के संदर्भ में उन्हें समझाया गया कि इससे अंग्रेज़ कौ़म का सिर ऊपर होना
है। फिल्म रिलीज़ हो गयी। कलकत्ता में साढे-तीन तक चल कर इसने इतिहास रचा। बाद में जब
अंग्रेज़ बहादुर को इसके सही अर्थ की ख़बर हुई तो प्रदीपजी के नाम वारंट कट गया। उन्हें
कई महीने भूमिगत रहना पड़ा।
आज़ादी के बाद जागृति और
फिर नास्तिक में उन्होंने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत बेहद जज्बाती गीत लिखे तो उन्हें
देशभक्ति से ओतप्रोत गीतों का राष्ट्रभक्त कवि मान लिया गया। वा राष्ट्रकवि हो गये
वो। ठीक है वो राष्ट्रभक्त थे। लेकिन वो एक विधा में बंध कर रहने वाले नहीं थे।
याद होगा कि आजकल चर्चित
अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद गाना गाया
था। यह भी एक इतिहास है। इसके लिये उन्होंने प्रदीप का ही गीत चुना- इंसान का इंसान
से हो भाई-चारा, यही पैगाम हमारा....।
प्रदीपजी के गीतों के भीतर
भी बहुत दर्द है। ‘ऐ भारतमाता के बेटों, सुनो समय की बोली
को, फैलाती है फूट यहां पर दूर करो उस टोली को, कभी न जलने देना
उसमें भेदभाव की होली को जो बापू को चीर गयी याद करो उस गोली को... आती है आवाज़ यही, मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारों
से, संभल कर रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से... रोती सलमा, रोती है सीता, आज हिमालय चिल्लाता
है कहां पुराना वो नाता है, डस लिया सारे देश का ज़हरीले
नागों ने, घर को आग लगा दी घर के चिरागों ने.... आज हर आंचल को है खतरा, आज हर घूंघट को
है खतरा, खतरे में लाज बहन की, खतरे में चूड़ियां
दुल्हन कीं.... राम के भक्त, रहीम के बंदे, रचते आज फरेब के
फंदे... मन में थी अहिंसा की लगन, तन पे लंगोटी लाखों में
घूमता था लिये सत्य की सोटी, देखने में थी हस्ती तेरी
छोटी, लेकिन तुझसे झुकती थी हिमालय की भी चोटी, दुनिया में भी
बापू तू था इंसान बेमिसाल...। आज के हालातों के परिप्रेक्ष्य में प्रदीपजी के गाने
बेमिसाल हैं।
प्रदीपजी सिर्फ देशभक्ति
के गीतों में ही नहीं कमाल किया बल्कि भक्ति गानों में भी वो बेमिसाल थे - यहां वहां, जहां तहां मत पूछो
कहां कहां है संतोषी मां... मैं तो आरती उतारूं रे...। ‘जय संतोषी माता’ की बेमिसाल कामयाबी
के पीछे प्रदीपजी के गीतों का भी बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा तेरे द्वार खड़ा भगवान...दूसरों
का दुखड़ा दूर करने वाले.... ओ अमीरों के परमेश्वर...।
प्रदीपजी का यह गीत भी
बड़ा मशहूर हुआ था - अपना तो बारह महीनों दीवाला... और ‘संबंध’ के यह गीत - चल
अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा तू
चल अकेला... जो दिया था तुमने एक दिन मुझे वही प्यार दे दो, एक कर्ज़ मांगता
हूं, बचपन उधार दे दो...
प्रदीपजी ने लगभग १७००
गीत लिखे। इसमें ७२ फिल्मों में लिखे गीत भी शामिल हैं। स्वंय भी अनेक गीत गाये। सर्वाधिक
लोकप्रिय थे - देख तेरे संसार की हालात क्या हो गयी भगवान...(नास्तिक १९५४) और आज के
इस इंसान को क्या हो गया है इसका पुराना प्यार कहां खो गया है, कैसी यह मनहूस
घड़ी है, भाईयों में जंग छिड़ी है...(अमर रहे ये प्यार १९६१)। आज के दिन
और खासकर आज के मौहाल में प्रदीपजी को याद करना बहुत जरूरी है। यदि प्रदीपजी न होते
तो इतिहास ने बहुत कुछ खोया होता। प्रदीपजी वास्तव में किसी एक डोर से बंधे न होकर
राष्टीय कवि थे। उनका देहांत ११ दिसंबर १९९८ को हुआ था। भारत सरकार ने उनकी याद में
एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया है। और दादा साहब फाल्के पुरुस्कार से नही नवाज़ा है।
वस्तुतः वो भारत रत्न के भी सही हक़दार हैं।
-वीर विनोद छाबड़ा ०६-०२-२०१५
बहुत अच्छा लिखा है !
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास