Tuesday, February 10, 2015

हनुमानगढ़ जंक्शन से दिल्ली।

-वीर विनोद छाबड़ा

बात सत्तर के दशक के पूर्वार्ध की है। हनुमानगढ़ में ब्याही अपनी बड़ी बहन से मिलने गया था।

वापसी पर मुझे सादलपुर होकर जाने वाली ट्रेन में बैठा दिया गया। ट्रेन करीब घंटे भर विलंब से चली। और तीस-चालीस किलोमीटर आगे एतनाबाद स्टेशन पर रुक गयी। अचानक भगदड़ सी मची। यात्री उतर-उतर कर रेलवे लाइन क्रॉस कर दूसरे प्लेटफार्म की ओर भागने लगे।

माज़रा क्या है? पता चला कि पीछे से कोई एक्सप्रेस ट्रेन आ रही है जो इस ट्रेन को पछाड़ देगी। परिणामस्वरूप अब सादलपुर से दिल्ली का कनेक्शन नहीं मिलेगा। दूसरी ट्रेन दोपहर बाद दिल्ली पहुंचाएगी। मैंने भी भीड़ तंत्र को अपनाया। रेलवे लाइन क्रॉस करके दूसरे प्लेटफार्म की ओर भागा। देखा ट्रेन आ रही है और मैं अभी पटरी पर खड़ा हूं । मानो यमराज आ रहे हैं। किसी भलेमानुस ने मेरा हाथ पकड़ कर ऊपर खींच लिया। जान बची। उस भलेमानुस को थैंक्स कहना चाहा। लेकिन बेतरह भीड़ में वो गुम हो गया।

डिब्बों के बाहर लोग लटके हुए हैं। मैं २१-२२ साल का जवान। रिस्क लेने की उम्र। थोड़ी हिम्मत जुटाई। किसी तरह डिब्बे के फुटबोर्ड पर पैर रखने में सफल हुआ। एक हाथ में अटैची और दूसरे हाथ में हैंडिल। गेट पर लटका हुआ। अंदर और घुसने की जद्दो-जहद जारी रखी।

तभी ट्रेन सरकी। मुझे लगा अगर मैंने तुरंत हैंडिल न छोड़ा तो गयी जान। मैं ऐसा करने जा ही रहा था कि किसी ने मेरे हाथ से अटैची छीन ली। और किसी ने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। कोई चीखा भी -छोरे तैँने मरणा हे के। खैर जान में जान आई। लेकिन मेरा आधा जिस्म अभी भी बाहर लटका है। मैंने पूरी ताकत से खुद को अंदर की और ठेला। कोई दस मिनट के बाद मैं डिब्बे के अंदर धंस पाया। अब मैं सुरक्षित हूं। मैंने हैंडिल छोड़ दिया। जिसने हाथ पकड़ रखा था उसने भी छोड़ दिया।

वे सब भलेमानुस कौन थे? पता नही चल पाया। लेकिन मैंने महसूस किया कि मेरे पैर बामुश्किल डिब्बे के फर्श पर हैं। मैं भीड़ में फंसा हूं। जैसे-जैसे ट्रेन झटके खाते हुए आगे बढ़ी, वैसे-वैसे मैं भी भीड़ के साथ अंदर की ओर धंसने लगा। अब मैं गेट से दो फुट अंदर हूं। आगे और गुंजाईश नहीं है। रात गहरी होती जा रही है। और बालू उड़-उड़ कर डिब्बे के अंदर घुस रही है। कई लोगों को सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है। तभी मुझे अटैची का ख्याल आया। मैं इधर-उधर देखा। आस-पास खड़े लोगों से पूछा। एक बोला - मिल जाएगी। बस सादलपुर आड़ दे। ट्रेन रास्ते में दो-तीन जगह रुकी भी।

याद नहीं कितना बजा था जब सादलपुर पहुंचा। भीड़ छंट गई। अटैची एक बेंच के नीचे मिल गई। देखा दिल्ली जाने वाली ट्रेन सामने के प्लेटफार्म से सरक रही है। भागकर एक स्लीपर डिब्बे और चढ़ गया। साइड बर्थ पर लेटे एक सहयात्री ने टिकने भर का कोना दे दिया। कुछ यात्री सो रहे हैं और कुछ ऊंघ रहे हैं। जिन्हें ट्रेन में नींद नहीं आती वो मुझे घूर कर देखने लगे।

मैं समझ गया। फौरन टॉयलेट भागा। आईना देखा। सर से पांव तक बालू से सना हुआ। बिलकुल भूत। फौरन कंघी से बालों में से बालू झाड़ी। चेहरा धोया। कुछ गनीमत दिखने लगा। हनुमानगढ़ से सादलपुर के बीच ट्रेन बालू उड़ाती चलती है। बंद दरवाजे-खिड़कियों बंद करने के बावजूद बेहिसाब बालू अंदर घुस आती है। और मैंने तो खुले दरवाज़े के पास खड़े होकर यात्रा की है। खैर, अगली सुबह मैं सलामत दिल्ली पहुंच गया। लेकिन कान पकड़े कि ऐसी जोखिम भरी यात्रा दोबारा नहीं करूंगा।

दुर्घटना से देर भली!
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-वीर विनोद छाबड़ा 10 Feb. 2015 Mob 7505663626
D - 2290, Indira Nagar,
Lucknow -226016 (UP) India. 

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