Monday, October 20, 2014

लखनऊ की मेट्रो! वाह!!

-वीर विनोद छाबड़ा

अच्छी खबर है। लंबे अरसे तक लटकने के बाद लखनऊ शहर में मेट्रो रेल का काम आख़िरकार शुरू हो गया है। बेशक विकास के मार्ग पर एक ऊंची और लंबी छलांग है ये।

बंदे को तो उस घड़ी का शिद्द्त से इंतज़ार है, जब मुंशीपुलिया से अमौसी एयरपोर्ट तक का मौजूदा २२ किलोमीटर का दो घंटे का उबाऊ और थकाऊ सफ़र महज़ आधे-घंटे में सकून के साथ एसी में तय होगा।


मगर अचानक बंदा असहज होता है। शरीर दुखता है। नाना प्रकार की असाध्य व्याधियों से पीड़ित है। मालूम नही कि नसीब में अगला पल हो हो। ये भी एक सच है कि अपने शहर में शुभ कार्यों में पलीता लगाने तथा बाधाएं खड़ी करने की एक लंबी परंपरा है। मगर वो आशावादी है। वो फैसला करता है कि वो मेट्रो में ज़रूर बैठेगा।

बंदा आंख बंद करता है.....

खुद को ख्यालों में तामीर टाइम मशीन में बैठा पाता है। बटन दबाते ही २०१९ में पहुंचता है।

सामने का नज़ारा ४४० वोल्ट करंट का झटका देता है। मेट्रो चली ही नहीं। बस आधे-अधूरे कुछ खंबे खड़े हैं। जिस रास्ते मेट्रो नहीं गुजरनी है वहां के लोग नाराज हैं। उनको अपनी वीवीआईपी छवि धूमिल होती दिखती है। ज्यादा वक्त दफ्तर की बजाय सड़क पर धरना-प्रदर्शन में गुजरता है। ट्रैफिक दिन भर पटरी से उतरा दिखता है।

शासन में ऊंचे ओहदे वाले फाइलों पर अड़ेंगे लगवा रहे हैं। ठेकेदारी के लिए माफियाओं में मार-काट मची है। कहीं कोर्ट कास्टे है, तो कहीं नींव की खुदाई में गहरा कुआं मिला।

एक विस्फोटक समाचार यह है कि एक खास इलाके में चहल-पहल भरा भूमिगत बाजार मिला। बिना रिसर्च-डिज़ाईन का ये गै़र-कानूनी अजूबा देख विशेषज्ञ हैरान-परेशान हैं। अतिक्रमणकारियों  विस्तारवादियों ने ज़मीन के ऊपर कब्ज़े नहीं मिलने से क्षुब्ध होकर ज़मीन के नीचे जुगाड़ कर लिया है। चार मंज़िले तक भवन बने हैं।

बंदे को बरसों पुराना आर.के.लक्ष्मण का कार्टून याद आया। १९६९ में चांद पर धरती का पहला शख़्स नील आर्मस्ट्रांग उतरा। वो ये देख गश खा गया जब उसने देखा कि वहां पहले से ही एकपप्पू दा ढाबा मौजूद है। दो बंदे भी साथ थे। पूछा- 'भाई, तू कब आया?' जवाब मिला- 'आफ्टर पार्टीशन।'

बंदे को ये नज़ारा बेहद नागवार लगा। वो टाईम मशीन को पांच साल और आगे खिसकाता है.....


एक अलग नज़ारा। सरकार ने दबंगई दिखाई। मुखिया डबल दबंग है। कमिटमेंट के बाद अपनी भी नहीं सुनता। हंटर ले जुट गया।

और देखते ही देखते मेट्रो सरपट दौड़ पड़ी। मगर खाली-खाली।

एसी-लो-फ्लोर बसों को फेल कर चुके और मुफ्त सस्ती सवारी के आदी शहरवासी पैसा खर्च कर मेट्रो में बैठने को तैयार नर्हीं।

दबंग सरकार मेट्रो में जनता को खींचने का निराला तरीकाखोजती है। टमाटर-प्याज़ की कीमत ३०० रुपये प्रतिकिलो कर दी गयी। अब हर पांच किलोमीटर के टिकट के साथ सौ ग्राम टमाटर-प्याज़ फ्री।

ट्रिक क्लिक हुई। टिकट के लिए सुरसा की आंत की मानिंद लाईन सुबह से ही लग गई। मेट्रो ने शानदार स्पीड पकड़ी…… 

तभी किसी ने झटका दिया।

बंदा बजरिए टाईम मशीन वर्तमान में लौटा। वो बेहद संतुष्ट आत्मविभोर है।

उसने वो सब देख लिया जो दस-पंद्रह साल बाद होना है।

सपना कैसा भी हो, अंत भला हो तो सब भला।

वाह मेट्रो! वाह!!


-वीर विनोद छाबड़ा २१-१०-२०१४ मो.७५०५६६३६२६

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