-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा में राजकुमार
अपने असरदार डायलॉग और उनकी यूनिक डिलीवरी, चाल ढाल, पहनावे के और ऑफ स्क्रीन मुंहफट
कमेंट्स के लिए मशहूर रहे हैं। वो अक्सर अपने संवादों में 'जानी' शब्द का इस्तेमाल
करते थे। ये उनका तकिया कलाम ही नही पहचान भी बना।
उनका जन्म आज यानी ०८ अक्टूबर
१९२६ को लोरालई (बलूचिस्तान) के एक कश्मीरी पंडित परिवार में हुआ था। माता पिता ने
नाम रखा, कुलभूषण पंडित।
रोज़ी रोटी की तलाश उन्हें मुंबई
ले आई। पुलिस में सब-इंसपेक्टर भर्ती हुए।
सोहराब मोदी उनके व्यक्तित्व
से इतने प्रभावित हुए कि फिल्म ऑफर की। उन्होंने मना कर दिया। लेकिन बहुत दिन तक सिनेमा
से दूर नहीं रह सके। नौकरी छोड़ दी। रंगीली
(१९५२) की। चली नहीं। कुछ और फिल्में की। किसी ने ध्यान नहीं दिया।
एक दिन सोहराब मोदी फिर मिल
गए। उन्हें 'नौशेरवाने आदिल' दी। फिल्म चली और राजकुमार को लोग पहचानने भी लगे। ऑस्कर
के लिए नामांकित मेहबूब की 'मदर इंडिया' से वो स्थापित कलाकार की श्रेणी में आ गए।
लेकिन दर्शकों के दिल में राजकुमार
ने राज़ बतौर सह अभिनेता किया। श्रीधर की 'दिल एक मंदिर' (१९६३) में सर्वश्रेष्ठ सह
अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। सुनहरा दौर बीआर चोपड़ा की वक़्त (१९६५) से शुरू हुआ।
इसी फिल्म से उनका तकिया कलाम 'जानी' मशहूर
हुआ और वो ज़ोरदार व यूनिक संवाद अदायगी के लिए पहचाने जाने लगे। इस फिल्म में शानदार
परफॉरमेंस के लिए उन्हें एक और फिल्मफेयर अवार्ड मिला।
राजकुमार के संवाद फिल्म को
भी लिफ्ट करने लगे। कुछ मशहूर संवाद हैं - जिनके अपने घर शीशे के हों वो दूसरो पर पत्थर
नहीं फेंका करते चिनाय सेठ… छुरी बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं होती, हाथ कट जाए तो
खून निकलता है (वक़्त), लखनऊ में वो कौन सी फ़िरदौस है जिसे हम नहीं जानते (मेरे हुज़ूर),
न तलवार की धार से, न गोलियों की बौछार से, बंदा डरता है सिर्फ परवरदिगार से (तिरंगा),
आपके पांव बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जायेंगे। (पाकीज़ा),
जानी, हम तुम्हें मारेंगे, पर बन्दूक भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी और वक़्त भी
हमारा होगा (सौदागर), तुम्हारी हैसियत के ज़मींदार हमारी हवेली पे रोज़ सलाम करने आते
हैं (सूर्या). एक नहीं पूरी तीन पीढियां उनके संवादों की दीवानी रहीं।
राजकुमार दिलीप कुमार के ज़बरदस्त
फैन रहे हैं। दोनों ने 'पैगाम' (१९५९) की थी। हालांकि उम्र में वो दिलीप कुमार से छोटे
थे लेकिन फिल्म में बड़े भाई का रोल किया। फिर ३२ साल बाद सुभाष घई 'सौदागर' में उन
दोनों को साथ लाये। ये तब तक सदी का सबसे बड़ा और सनसनीखेज़ casting coup था। ज्यादातर
लोगों का ख्याल था कि फुटबाल साइज ईगो वाले साथ आ तो गए हैं मगर फिल्म का पूरा होना
मुमकिन नहीं है।लेकिन अंदेशे गलत हुए। फिल्म बनी और चली भी।
राजकुमार का फ़िल्मी सफर कुल
४० साल चला और इस दौरान उन्होंने लगभग ७५ फ़िल्में की। जिनमें ज्यादातर में वो भले हीरो
न रहे हों लेकिन आकर्षण का केंद्र वही रहे। उनकी कुछ अन्य यादगार फ़िल्में हैं - फूल
बने अंगारे, गोदान, दिल अपना और प्रीत पराई, ज़िंदगी, घराना, उजाला, ऊंचे लोग, हमराज़,
काजल, हीर रांझा, ३६ घंटे, लालपत्थर, मेरे हुज़ूर, पाकीज़ा, कुदरत, एक नई पहेली, नई रोशनी,
बुलंदी, मरते दम तक, जंगबाज़, महावीरा, नीलकमल, मर्यादा, हिंदुस्तान की कसम, वासना,
कर्मयोगी, धर्मकांटा, गलियों का बादशाह, साज़िश, एक था राजा आदि।
उन्होंने एक एंग्लो इंडियन
विमान परिचारिका जेनिफर से प्रेम विवाह किया था। बाद में उनका नाम गायत्री हो गया।
राज कुमार उर्दू के बहुत अच्छे ज्ञाता होने के साथ-साथ डिज़ाइनर कपडे पहनने के भी शौक़ीन
थे। ज़िंदगी के आखिरी दो साल उन्होंने बहुत कष्ट में गुज़ारे। उन्हें कैंसर हो गया था।
उनके अभिन्न मित्र दिलीप कुमार
को जब राजकुमार की बीमारी के बारे में पता चला तो उन्होंने फ़ोन पर खैर-सल्लाह पूछी।
राजकुमार ने उस गंभीर स्टेज पर भी अपनी यूनिक स्टाइल नहीं छोड़ी - जानी, हम राजकुमार
हैं। सर्दी-ज़ुकाम थोड़े ही होगा। हमें कैंसर हुआ है। इसके कुछ ही दिनों बाद ०३ जुलाई
१९९६ को वो परलोक सिधार गए।
-वीर विनोद छाबड़ा
08-10-2014 mob7505663626
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