-वीर विनोद छाबड़ा
जब-जब दीवाली
आती है। बचपन की एक घटना याद आती है। आत्मग्लानि से भर उठता हूं। खुद से सवाल करता
हूं - यार, ऐसा क्यों किया था तूने? अच्छे घर का था। परवरिश अच्छी थी। भोली-भाली और
भोंदू शक्ल पर रीझ कर सब बेसाख़्ता तुझसे प्यार करते थे। नालायक होने के बावजूद मेम
तुझे पास करती थी।फिर भी.…
ये बात सन १९६०
के आस-पास की है। हमारी रिहाईश आलमबाग के चंदर नगर में है। मेरी उम्र दस के आस-पास
है। घर के नीचे दुकानें हैं। वहीं सरदार संतोख सिंह का मोहन प्रोविज़न स्टोर भी है।
उनका बेटा मोहन उर्फ़ मोड़ी जनता स्कूल में मेरी ही क्लास में है।
दीवाली के दिन
हैं। सरदारजी ने दुकान के बाहर पटाखों का स्टाल लगाया है। दुकान पर मोड़ी बैठता है। मैं भी उसके पास जा बैठता हूं। बीच-बीच
में मोड़ी रोटी खाने या किसी और काम से उठता तो स्टाल का मालिक मैं बन जाता हूं।
एक दिन पड़ोस
का बंसा पटाखे उलटने-पुलटने लगा। मैंने मना किया - छेड़ो नहीं। फिर उसने नज़र बचा कर
पटाखों के दो पैकेट जेब में रख लिए। मैंने देख लिया। मैं बोला - निकाल।
लेकिन उसने होटों
पर उंगली रख कर मुझे चुप रहने के साथ-साथ आधा-आधा करने का इशारा भी किया। पता नहीं,
मैं क्यों और क्या सोच कर चुप रह गया।
बाद में उसने
मुझे एक पैकेट दिया। इसके बाद वो जब-तब आ जाता। मोड़ी की मौजूदगी में भी वो पटाखे गायब
कर देता। मुहं बंद रखने के बदले में आधे मेरे होते। दो-तीन दफे तो मैंने भी चोरी की।
अब मेरे पास
ढेर पटाखे हो गए। इतने तो मैंने कभी देखे भी नहीं थे। खूब मज़ा आएगा! ये न सोचा कि मां
पूछेगी कि कहां से लाया तो क्या जवाब दूंगा? इन्हें मैंने कबाड़ में झुपा कर रख दिए।
लेकिन बकरे की
मां कब तक खैर मनाती? बंसे को चोरी करते किसी ने देख लिया और शिकायत कर दी। बंसे की
पोल खुली तो मेरी भी। मैं और बंसा दोनों घर से फरार हो गए इस डर से कि पुलिस हमें पकड़
कर ले जाएगी और खूब पिटाई करेगी।
लेकिन घंटा बीतते
न बीतते मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैं घर पहुंच गया। घर में हुजूम था। मां, तमाम अड़ोसी-पडोसी और सरदार संतोख सिंह जी। सबने मुझे हैरत से देखा। नहीं मालूम था कि ऐसे में मुझे क्या
करना चाहिए था? बस सरदारजी के पैरों से लिपट गया। मैं ज़ार-ज़ार रोने लगा। सरदारजी ने
मुझे गोद में उठा लिया। मैंने छुपा कर रखे सारे पटाखे वापस कर दिए।
कई दिन तक मैं
घर से नहीं निकला था। दीवाली के दिन भी नहीं। इस डर से कि लोग मुझे पटाखा चोर कहेंगे।
उन दिनों पिताजी बाहर थे। लौट कर आये तो उन्हें सब पता चला। उन्हें बेहद दुःख हुआ।
मुझसे कुछ न कहा। मां से बोले - इस लड़के ने सिर शर्म से झुका दिया है। अगली सुबह पिताजी
ने हमें महीने भर के लिए भोपाल नानी के घर भेज दिया। जब हम लौट कर आये तो सब कुछ सामान्य
दिखा। मोड़ी मेरे साथ ही पढ़ता रहा। जब तक हम चंदर नगर में रहे वो मेरा दोस्त रहा।
आज चौवन साल
बाद भी उस घटना की फिल्म का प्रिंट बिलकुल ताज़ा है। आज भी शर्मिंदगी होती है। हर दीवाली
को दिल में टीस उठती है। नश्तर की तरह कुछ चुभता है।
-वीर विनोद छाबड़ा
२२-१०-२०१४ मो.७५०५६६३६२६
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