-वीर विनोद छाबड़ा
तुम मुझे भूल
भी जाओ तो ये हक़ है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...गायिका सुधा मल्होत्रा
ने ‘दीदी’ के लिए साहिर का लिखा यह गाना खासतौर पर कंपोज़ किया था। दिल की जिस गहराई
से साहिर ने ये लिखा था उतनी शिद्दत से इसे सुधा ने कंपोज़ किया था और इसकी रूह में
घुस कर मुकेश ने गाया भी था। सुधा को ये गीत बेहद पसंद था, दिल की अथाह गहराईयों तक।
बताया जाता है कि सुधा उतनी ही शिद्दत से साहिर को चाहती थीं जितना कि अमृता प्रीतम
को साहिर। ये बात और थी कि साहिर सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता को ही चाहते थे। यह गाना भी
शायद साहिर ने अमृता को ही ज़हन में रख कर लिखा था जिसे सुधा ने अपना बना लिया। मुझे
तो साहिर के रुमानियत से भरे तमाम नगमों में अमृता ही नज़र आती हैं। मजबूरियां कुछ ऐसी
थीं कि साहिर न अमृता से शादी कर पाये और न ही सुधा से। साहिर ने किसी और से भी शादी
नहीं की। और अमृता ने भी नहीं। वो सिर्फ और सिर्फ मां के लिये जीते रहे।
साहिर रुमानियत
के ही शायर नहीं थे। वो ताउम्र हक़ के लिए लड़े और जुल्म की मुख़ालफ़त की। साहिर लुधियाना
की एक मुस्लिम गुज्जर परिवार में जन्मे थे। उनका बचपन बेहद अजीबो-गरीब और संगीन हालात
में गुज़रा। मां-बाप में कतई पटरी नहीं खाती थी। बाप ने दूसरी शादी कर ली। वो साहिर
की मां को पूरी तरह से बरबाद करने पर अमादा थे। चाहे इसमें साहिर की जान ही क्यों न
चली जाये। लेकिन उनके इरादे कभी कामयाब नहीं हुए। साहिर की मां पूरी शिद्दत से अपने
हकूक़ और साहिर के हक़ और हिफ़ाज़त के लिये लड़ती रही।
साहिर की तालीम
और तरबीयत लुधियाना में ही हुई थी। 1943 में साहिर लाहोर चले गये। मगर अपने इंकलाबी
मिज़ाज और शायरी की वज़ह से पाकिस्तान की सरकार उनको शक़ की निगाह के देखने लगी। फिर उन्हें
पाकिस्तान का इस्लामिक माहौल भी पसंद नहीं था। उन्हें अपने हिंदू और सिख दोस्तों की
सोहबत बेहद याद आती थी। वो 1949 में वो आज़ाद ख्याल भारत आ गये। कुछ वक़्त दिल्ली में
गुज़ारा। फिर बंबई आ गये। सिर्फ़ शायरी से पेट नहीं भरता। लिहाज़ा फिल्मों की तरफ रुख
किया।
साहिर को
1949 में पहली फिल्म मिली ‘आज़ादी की राह’। उनके पूरे चार गाने थे इसमें। मगर बदकिस्मती
से न तो फिल्म को और न ही साहिर को त्वज़ो मिली। पहली कामयाबी ‘नौजवान’ (1951) में मिली।
इसका यह गाना बेहद कामयाब हुआ- ये ठंडी हवायें, लहरा के आयें...संगीत सचिन देव बर्मन
का था। सचिनदा और साहिर की जोड़ी हिट हो गयी। उसी साल गुरूदत्त की ‘बाज़ी’ में फिर साथ
रहा उनका। लेकिन ‘प्यासा’ में इसका दुखद अंत हो गया। दरअसल इस फिल्म की कामयाबी में
ज्यादा ज़िक्र साहिर के नग्मों का हुआ। सचिन के संगीत का नहीं। एक वजह और भी बतायी जाती
है। साहिर की शर्त होती थी कि उनको हर गीत का पारिश्रमिक लता मंगेशकर के मुकाबले एक
रुपया ज्यादा मिले। जिन्होंने साहिर को बहुत करीब से देखा है वो जानते थे कि ‘प्यासा’
में गुरूदत्त ने विजय नाम के जिस किरदार को जीया था वो साहिर के भीतर का शायर ही है।
उनके इस गाने ने वज़ीरे आज़म पं. जवाहरलाल नेहरू को भी हिला दिया था-
ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के
कहां हैं कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के?
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं?
ताजमहल के बारे
में साहिर के ख्यालात दुनिया के बिलकुल फ़र्क थे। दरअसल वो फकीरों के मसीहा थे। मुफलिसी
को उन्होंने बेहद करीब से देखा था। रूमानियत में भी उनके इस ख्यालात का दीदार हो जाता
था। तभी तो उन्होंने लिखा था-
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्मे शाही में गरीबों का गुज़र क्या माने
सबत जिन राहों पर हैं सतबते शाही के निशां
उसपे उल्फ़त भरी रूहों का गुज़र क्या माने
ये चमननज़र, ये जमना का किनारा, ये महल,
ये मनक्कश दरा-ओ-दीवार, ये मेहराब, ये ताक
इक शहंशाह ने दौलत के सहारा लेकर
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
अब यह बात दीगर
है कि ‘ताजमहल’ के बेहतरीन गानों के लिये ही साहिर को बेस्ट गीतकार के फिल्मफेयर अवार्ड
से नवाज़ा गया था।
पांव छू लेने
दो फूलों को इनायत होगी
वरना इनको भी नहीं हमको भी शिकायत होगी....
जो वादा किया है वो निभाना पडेगा
रोके जमाना चाहे रोके खुदाई तुमको आना पड़ेगा...
जो बात तुझमें
है तेरी तस्वीर में नहीं...
साहिर सिर्फ़
नज़्मों और गज़लों में ही नहीं, ज़मीनी सतह पर जुल्म और हक़ के लिये लड़ते रहे। इसकी तमाम
मिसालें मौजूद हैं। हक़ के लिये लड़ाई का ही यह नतीजा था कि आल इंडिया रेडियो पर प्रसारित
होने वाले गानों में गायक और संगीतकार के अलावा गीतकार का नाम भी शामिल हो गया। इसकी
वजह से गीतकार को भी रायल्टी में से उनका हिस्सा मिलना शुरू हो गया था।
बी.आर. चोपड़ा
परिवार से साहिर के संबंध ताउम्र रहे। उनके लिये एक से एक यादगार गाने लिखे। औरत ने
जन्म दिया मरदों को...मैं जब भी अकेली होती हूं....न तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा...चलो
एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों...साथी हाथ बढ़ाना...ऐ नीले गगन के तले...ऐ मेरी
जोहरा जबीं...आदि।
यश चोपडा ने
जब बी.आर. कैंप से अलग होकर अपना प्रोडक्शन हाऊस बनाया तो उनके लिये भी साहिर पहली
पसंद रहे। साहिर ने उन्हें भी कभी निराश नहीं किया। एक चेहरे पर कइ्र्र चेहरे लगा लेते
हैं लोग...मैं पल दो पल का शायर हूं...आदि।
साहिर को सिपुर्द-ए-ख़ाक
हुए आज पूरे चैंतीस बरस चुके हैं। यों तो इस अरसे में कई यादें मिट जाती हैं। लेकिन
साहिर को भूलने के लिये सैकड़ों साल चाहिए। मोहब्बत और इंकलाब की एक साथ की शिद्दत से
हिमायत करने वाले को यूं भी भुलाया जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
मैने साहिर को
1973 में देखा था। वे पहली नान-मुस्लिम उर्दू राईटर्स कांफ्रेंस में शिरकत करने लखनऊ
आए थे। उनकी मसरूफियात इतनी ज़्यादा थीं कि बात नहीं हो पायी। महज़ हाथ मिला पाया था।
मगर इस बात का फ़ख्ऱ है कि मैंने साहिर को देखा ही नहीं, छूआ भी है। वो साथ में तीन
पेटी वाट 69 लाये थे। एक घूंट मारने को मौका भी मिला था।
पंजाबियत के
जज़्बे से भरपूर साहिर लुघ्यानवी का योगदान उर्दू अदब के लिए बेमिसाल है। मगर फिल्मों
में उनका जलवा भी उतना ही असरदार था। गल्ती न होगी अगर कहा जाए कि आम आदमी साहिर को
उनके फिल्म में हिस्सेदारी के लिए ही याद करता है। साहिर को भी शायद पसंद था कि फिल्मों
के ज़रिए दूर-दूर तक अवाम तक अपनी बात पहुंचाना ज्यादा असरदार माध्यम है। साहिर की नस
नस में मोहब्बत, विद्रोह और जोश लहू बन कर बहता था। कहते हैं साहिर फिल्म की कहानी
या सिचुुऐशन सुन कर गीत नहीं लिखते थे। उनके खजाने में बेशुमार गीत पहले से ही मौजूद
रहते थे। जिसमें फिल्मकार को उसकी ज़रूरत का ढेर सा सामान आसानी से मिल जाता था। वो
असल मायनों में मोहब्बत और अवाम के शायर थे।
...कुदरत ने
बख्शी थी हमें एक ही धरती, हमने कही भारत कहीं ईरान बनाया, तोड़ दे जो हरबंद वो तूफान
बनेगा, न तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...(धूल का फूल)...ओ
मेरी ज़ोहरा ज़बीं तुझे मालुम नहीं तू अभी तक हसीं और मैं जवां...(वक़्त)...एक अकेला
थक जाएगा मिल के बोझ उठाना ओ साथी हाथ बढ़ाना...तथा...ये देश है वीर जवानों का...(नया
दौर)...बाबुल की दुआएं लेती जा....(नील कमल) नीं मैं यार मनाड़ा नीं, भावें लोग बोलियां
बोलड़...(दाग़)... हटा दो, हटा दो मेरे सामने से ये दुनिया तुम हटा दो...जिन्हें नाज़
था हिंद पे वो कहां हैं...तथा...सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए...(प्यासा)...ये
इश्क इश्क है...न तो कारवां की तलाश है...(बरसात की रात), अल्लाह तेरो नाम...मैं ज़िंदगी
का साथ निभाता चला गया...(हम दोनों), संसार से भागे फिरते हो...(चित्रलेखा), तोरा मन
दरपन कहलाये...छू लेने दो नाजुक होंटो को...(काजल), तुझे चांद के बहाने देखूं...(नया
दौर), महफिल से उठ जाने वालों, तुम लोगों पर क्या इल्जाम...(दूज का चांद), कभी कभी
मेरे दिल में ख्याल आता है...(कभी-कभी)....
बड़ी लंबी फेहरिस्त
है जिसे यहां समेटना मुमकिन नहीं। अफसोस कि रूहानी मोहब्बत और जु़ल्म की मुख़ालफ़त करने
वाला ये मसीहा महज़ 59 साल की उम्र में गुज़र गया। उन्हें याद करते हुए बस यही कहने गाने
का मन कर रहा है-
मुझसे पहले कितने
शायर आये और आकर चले गये
कुछ आहें भर
कर लौट गये कुछ नगमे गाकर चले गये।
साहिर का जन्म
०८ मार्च १९२१ को लुधियाना में और इंतकाल २५ अक्टूबर १९८० को मुंबई में हार्ट अटैक
से हुआ था।
महेंद्र कपूर
ने उनके लिये बिलकुल सही कहा था - मैं नहीं समझता कि साहिर जैसा शख्स दोबारा कभी पैदा
होगा।
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-वीर विनोद छाबड़ा
25.10.2014 मो. 7505663626
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