-वीर विनोद छाबड़ा
बरसों पहले की बात है। शायद १९८३ की। छह साल बाद दिल्ली आया था, एक ऑफिस के काम से।
इस बीच १९८२ के एशियाड खेलों ने दिल्ली की हुलिया ही बदल डाली थी।
बहरहाल सुबह पहुंचते ही सबसे पहले मैंने दफ्तर का काम निपटाया। दोपहर ढल गयी। शाम
होने वाली थी।
बड़े चाचाजी मॉडल टाउन में रहते थे। रास्ते में किंग्सवे कैंप पड़ा। यहां मेरे कज़िन
राजू का प्रेस था। सोचा यहीं रुक लेता हूं। कुछ सरप्राइज भी हो जायेगा।
दिल्ली के साथ-साथ मेरी हुलिया भी काफी बदल चुका था। चेहरे पर घनी काली दाढ़ी थी।
पगड़ी रख लूं तो शर्तिया सरदार वीर सिंह दिखूं। कभी-कभी तो आईने में खुद को देख कर कन्फ्यूज़
हो जाता था। पत्नी के मायके वाले तो डर ही जाते थे।
शर्तिया राजू भी चकरा जायेगा। लेकिन चाचाजी तो पहचान जायेंगे। उनकी गोद में खेला
हूं।
छह बज रहा है। आठ बजे तक प्रेस बंद हो जाता है। राजू के साथ घर चला जाऊंगा। इस
बीच कुछ गप्पें-शप्पें हो जाएंगी। ये सोच कर मैं बस से उतर लिया।
प्रेस पहुंचा। दिल्ली वालों की आदत है और खासियत भी। मिलते दिल खोल कर हैं, ज़बरदस्त जफ्फी के साथ।
और वही हुआ। राजू पहचान नहीं पाया। परिचय दिया तो वही दिल्ली स्टाइल गले लगाना
और गर्मागर्म जफ़्फ़ी भी।
पांच मिनट गप्पें-शप्पें मारी ही थीं कि राजू को कहीं से फ़ोन आया। बोला - भापाजी ज़रूरी काम आन पड़ा है। बस गया और आया। ये
कहते-कहते उन्होंने स्कूटर उठाया और फुर्र।
दिल्ली वालों की 'ये गया-वो आया' घंटे भर से कम की तो होती नहीं।
राजू को गए अभी दस मिनट भी न गुज़रे होंगे कि एक स्मार्ट लड़की दाखिल हुई। सीधे अंदर
प्रेस में चली गयी। थोड़ी देर में वापस आई और टेबुल पर रखे काग़ज़ उलटने-पलटने शुरू किये।
फिर कुर्सी खींच कर बैठ गयी। कागज़ पर कुछ लिखा और फिर अंदर प्रेस में चली गयी। ऐसा
उसने तीन-चार बार किया। फटाफट कुछ प्रूफ भी पढ़े।
आखिर कौन है ये लड़की? किस अख्तियार से इतनी बेतकल्लुफ़ हो सब देख-पढ़ रही है? हो सकता है चाचाजी
ने कोई कर्मचारी रखी हो।
फिर अचानक मुझे लगा कहीं देखी हुई है। मैंने उसे कनखियों से घूरा। कहां देखी होगी? दिल्ली तो मेरे लिए
अजनबी शहर है। हो सकता है, लखनऊ की हो। पर लखनऊ में कहां देखा होगा?
तरह-तरह के सवाल मेरे ज़हन में गश्त कर रहे थे।
मैंने खुद को झिंझोड़ा - इतने सीरियस क्यों हो भाई? होगी कोई।
मैं सड़क की तरफ देखना शुरू कर देता हूं।
अचानक वो बोली - देखिये अगर आप राजू का वेट कर रहे हैं तो वो देर से आएंगे। आप
कल आ जाएं।
मुझे गुस्सा आया। इस लड़की को हमारा रिश्ता नहीं मालूम। लेकिन इसके साथ ही मुझे
उससे बात करने का मौका भी मिल गया। मैं तनिक बनावटी सख्त लहज़े में बोला - नहीं मैं
मिल कर जाऊंगा। मुझे उनके साथ घर जाना है।
वो तनिक चौंकी। मुझे घूरते पूछा - घर? आप रिलेटिव हैं उनके?
तब मैंने उसे तफ़सील से बताया कि मैं कौन हूं और इस वक़्त यहां क्यों हूं।
मेरी बात सुन उसने सॉरी बोला। मुस्कुराई। और उठ कर बाहर चली गयी। दो मिनट बाद जब
वो वापस आई तो साथ में ट्रे उठाये एक लड़का था। दो कप चाय और कुछ बिस्कुट थे।
सोचने लगा दिल्ली की लड़कियां लखनऊ वालों से ज्यादा एडवांस और फॉर्मल होती हैं।
इससे पहले कि आगे कुछ सोचता कि राजू आ गया
- सॉरी भापाजी, देर हो गयी।
फिर उस लड़की की और देखा - भापाजी को चाय-वाय पिला दी। चलो अच्छा किया। प्रेस बंद
करने का टाइम भी हो गया है। तुम भापाजी के साथ ऑटो में घर चलो। मैं प्रेस बंद कर स्कूटर
से आता हूं।
ये सुनते ही मुझे काटो तो खून नहीं - मैं इसके साथ जाऊं? मगर ये है कौन?
इतने में पीठ पर जोर से एक धौल पड़ा - दाढ़ी वाले बकरे!
ये सुनते ही मैं उछल पड़ा - छिपकली।
अब उसके बाद का नज़ारा मैं आपको क्या बताऊं।
दरअसल वो मेरी कज़िन सिस्टर थी। बचपन में वो दुबली पतली थी। इसलिए मैं उसे 'छिपकली' कह कर चिढ़ाता था और
बदले में उसने मेरी छेड़ डाली थी - 'दाड़ी वाला बकरा' । हम दोनों ने एक-दूसरे को पिछले छह साल से नहीं देखा था। पिछली बार देखा था तो
तेरह-चौदह साल की थी। दुबली पतली छिपकली की तरह। और अब वो उन्नीस-बीस की थी। हट्टी-कट्टी।
हम एकबारगी एक-दूसरे को पहचान ही नहीं पाये। बाद में वो मुझे उस वक़्त पहचान गयी, जब मैंने बताया कि
मैं लखनऊ से आया हूँ। लेकिन उसने जान-बुझ कर नहीं बताया। मेरा इम्तिहान ले रही थी कि
मैं उसे कब पहचानता हूँ। और मैं फेल हो गया था।
आज भी जब वो मिलती है तो उस किस्से को याद कर हम खूब हंसते हैं।
-वीर विनोद छाबड़ा
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