-वीर विनोद छाबड़ा
१९९१ की गर्मियां थीं। एक रात अचानक पेट में दर्द उठा। गैस होगी। ये सोच कर ठंडा
पानी पिया। मगर दर्द बढ़ता ही गया।
दर्द जब बर्दाश्त की हद से बाहर हो गया तो पत्नी को उठाया। अजवाइन, हींग, गरमपानी से सिकाई आदि
तमाम घरेलू उपाय किये। मगर सब बेकार।
पिताजी ने डॉक्टर की सलाह दी। लेकिन रात दो बजे कौन डॉक्टर मिलेगा? हमारी कॉलोनी इंदिरा
नगर को बसे यों तो बारह बरस हो चुके थे मगर स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल था। सिविल
हॉस्पिटल, मेडिकल कॉलेज या बलरामपुर ये सरकारी अस्पताल थे। आठ दस किलोमीटर से कम तो कोई नहीं।
प्राइवेट बहुत कम थे और उन पर ऐतबार भी नहीं था।
निम्न आय वर्गीय कॉलोनी थी। लिहाज़ा आसपास किसी के पास कार तक नहीं थी। ऑटो था नहीं।
टेम्पो दूर मिलते थे। स्कूटर पर बैठने की स्थिति में नहीं था। अड़ोसी-पडोसी आ गए तो
तरह-तरह के सुझाव भी आने लगे। एक साहब ने अपने तजुर्बे के आधार पर एलान किया - तुरंत
ले जाओ इन्हें अस्पताल। वरना सुबह तक के मेहमान हैं।
पत्नी ने रोना-धोना शुरू कर दिया। तभी महसूस हुआ कि दर्द कम हो रहा है। सबको धन्यवाद
दिया - कृपया अब जायें। अब मैं ठीक हूं। अब जाकर सोएं अपने घरों में। ज़रूरत हुई तो
फिर याद करूंगा।
और अगले पंद्रह मिनट बाद पता ही नहीं चला कि कभी दर्द था। सब नार्मल। शुक्र है।
खूब बढ़िया नींद आई। सुबह देर तक सोया भी। आराम से खाया-पिया।
डॉक्टर को दिखाया। उसने कहा - कुछ भी तो नहीं। गैस्टिक रही होगी। कुछ दवा दे दी।
हम भी खुश। दो दिन कुछ नहीं हुआ। डॉक्टर ठीक कहते थे कि गैस्टिक ही रही होगी।
लेकिन अगली ही रात फिर वही दर्द। बढ़ता ही गया। दो घंटा रहा और फिर चला गया। मानों
कुछ हुआ ही नहीं था।
अगली रात फिर वही हुआ। फिर डॉक्टर को दिखाया। वो बोले - गैस्टिक ही है। दवा बदल
दी है। थोड़ी तेज भी कर दी है।
मगर सब बेकार। आधी रात शुरू होते ही दर्द शुरू हो जाता था।
कई जगह से राय आई - किसी भूतनी का साया है। झाड़ फूंक करा लो।
बड़ी-बूढ़ियों को लगा जादू-टोना है। उतरवाना चाहिए। टिल्लू की दादी एक्सपर्ट है।
कइयों का उद्धार कर चुकी है।
इधर डॉक्टर परेशान। उसने किसी बड़े डॉक्टर को रेफर किया। एक्सरे हुआ। सब सही। इसके
बाद लखनऊ के दर्जन भर डॉक्टरों को दिखाया। कोई एसिडिटी बताता तो कोई हाइपर एसिडिटी।
नई-नई दवा दे देता। कोई वही दवा ब्रांड बदल कर देता।
लेकिन सब फेल हो गया। दर्द बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।
इस बीच महीना गुज़र गया। अब खाना भी अच्छा लगना बंद हो गया।
डॉक्टर से अनुरोध किया - अल्ट्रा-साउंड करा लें। कुछ तो पता चलेगा।
डॉक्टर ने कहा - ठीक है। लेकिन मेरा तीस साल का तजुर्बा कहता है। निकलेगा कुछ नहीं।
उस ज़माने में लखनऊ में चार-पांच जगह ही था अल्ट्रा-साउंड। इसे कराना भारी तोप माना
जाता था। किसी गंभीर बीमारी का सूचक भी। निराशावादी तो कहते - कर लो, जितनी सेवा हो सके।
ज्यादा दिन बाकी नहीं हैं।
खैर, अल्ट्रा-साउंड कराया। रिपोर्ट आई। डॉक्टर गंभीर हुआ - पैंक्रियास में हल्की सूजन
है। सर्जन को रेफर कर दिया है।
जान में जान आई। कुछ तो पता चला। अब ईलाज भी हो जायेगा। सर्जरी-फर्जरी जो होनी
है, हो जायेगी।
लेकिन अभी असली दर्द बाकी था। सर्जन के पास पहुंचे। जाने-माने थे। एफ.आर.सी.एस
और जाने क्या-क्या। उन्होंने ऐसा डराया कि वहीं जान निकलते-निकलते बची। इस प्रॉब्लम
के अस्सी फ़ीसदी केसेस में डेथ हुई है। इसके
लिए डॉक्टर मद्रास से आता है। महीने में एक बार। अभी परसों ही गए हैं।
हम भलभला कर रोये। कच्ची गृहस्थी। कौन संभालेगा?
डॉक्टर बोले - खबराओ नहीं। अभी मैं दवा दे रहा हूं। रात ज्यादा दर्द में खाना।
फिर सुबह आना, खाली पेट। एंडोस्कोपी होगी। पेट में अल्सर भी हो सकता है।
खैर रात जैसे-तैसे काटी।
सुबह डॉक्टर ने एक इंजेक्शन दिया। दस मिनट बाद पूछा - कुछ चक्कर महसूस हुआ? नींद आ रही है?
मैंने कहा - कतई नहीं।
कुछ देर और गुज़री। कुछ फर्क नहीं पड़ा। बिलकुल चैतन्य। डॉक्टर हैरान। घंटे बाद एक
इंजेक्शन फिर लगाया। कोई असर नहीं।
डॉक्टर ने पूछा - व्हिस्की-शराब वगैरह पीते हो? और कितनी?
मैंने कहा - डॉक्टर साब, ईमानदारी के बात यह है कि पीता तो हूं। लेकिन अपने पैसे की कभी नहीं पी। फ्री की
पीता हूं। रिश्तेदारों-दोस्तों की शादी में। एक-दो पैग असर नहीं करते। चार के बाद थोड़ा
सरूर चढ़ता है। इसलिए थोड़ी ज्यादा हो जाती है। लेकिन कभी बहका नहीं। घर अपनी टांगो पर
आता हूं, स्कूटर चला कर। पत्नी और बच्चों को बैठा कर। कभी एक्सीडेंट नहीं हुआ। साल में तीन-चार
बार ही मिलते हैं फ्री में पिलाने वाले।
डॉक्टर हंसा - तुम जैसों के कारण ही तो हम चल रहे हैं।
बहरहाल डॉक्टर ने गले में कुछ स्प्रे करके अल्ट्रा साउंड किया। ढेर सारा एसिड निकला।
इसके अलावा डॉक्टर को कुछ न दिखा।
डॉक्टर ने कहा - दवा लिख रहा हूं। पांच दिन बाद आना। उम्मीद है ठीक हो जाओगे। मगर
याद रखना, नो दारू, नो सिगरेट और सिर्फ उबला भोजन, फैट फ्री ठंडा दूध। अपने लिए नहीं फैमिली के लिए जीना सीखो।
उस रात एक मुद्दत बाद बहुत अच्छी नींद आई। कतई दर्द नहीं हुआ। छह महीने तक दवा
खाई। साल भर तक उबला भोजन किया। वो दिन है और आज का दारू नहीं पी। हां एक गलती हुई।
सिगरेट ज़रूर फिर शुरू कर दी। कुछ साल बाद आत्म मंथन किया और फिर वो भी छोड़ दी।
अब तो बिन पिए ही मज़ा आता है। पीने वालों से भी बहुत ज्यादा।
कुछ दोस्त कटाक्ष भी करते हैं - दारू नहीं, सिगरेट नहीं। तंबाखू-शंबाकू
नहीं, कोठा -शोठा भी नहीं। ज़िंदा क्यों हो मेरे भाई?
एक दोस्त अक्सर कहता था - यार, असली पियक्कड़ तो तुम हो जो फ्री में महफ़िल का हर पल एन्जॉय करते हो। सोचता हूँ
मैं भी छोड़ दूं।
लेकिन वो सोचता ही रहा गया। बेवक़्त ऊपर निकल गया। वही नहीं कई दोस्तों को शराब
ही ऊपर ले गयी।
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-वीर विनोद छाबड़ा,
०२-०१-२०१५
D
- २२९०, इंदिरा नगर,
लखनऊ - २२६०१६
मो. ७५०५६६३६२६
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