-वीर
विनोद छाबड़ा
अब तक की ज़िंदगी में मिश्र लोग बहुत मिले। सब एक से बढ़ कर
एक, महान, इंटेलीजेंट, मनीषी, विदूषी। कुछ इनसे बिलकुल पलट। उनके सामने कई बार नतमस्तक होना पड़ा।
ऐसे ही एक मिश्र जी हुए हैं। अभी कुछ दिन पहले सरे राह चलते
टकराये थे। उन्हें देख कर एक वाक्या याद आया।
उन दिनों मैं इस्टैब्लिशमेंट में था। अक्सर अधिकारी हो या
कर्मचारी लोग झूठे बहाने गढ़ कर जीपीएफ एडवांस लिया करते थे।ये सिलसिला युगों युगों
से चल रहा है। और ये हर दफ़्तर में होता है।
उस दिन मिश्रजी ने भवन मरम्मत की ज़रूरत हेतु एडवांस का
फॉर्म जमा किया। मैंने फॉर्म चेक किया। दो महीने पहले ही उन्होंने इस मद में
एडवांस लिया था। नियमानुसार इतनी जल्दी दिया जाना संभव नहीं था। मैंने उन्हें
बुलाया। मज़बूरी बताई।
मिश्रजी भी ने भी मज़बूरी बताई। दो महीने पहले भवन की मरम्मत
में पैसा ज्यादा खर्च कर बैठे थे। पत्नी की फरमाइश के कारण किचन में टाइल्स ही
टाइल्स जो लगवाये थे। किसी से उधार लिए थे। अब वो तकादा कर रहा था। उसके पिताजी
बहुत बीमार थे। जल्द चुकता करना ज़रूरी था।
मैंने उनको सुझाव दिया - एक मेडिकल सर्टिफिकेट लगा कर बीमार
पत्नी के ईलाज के लिए एडवांस ले लो।
वो ऐसा पहले भी कई बार कर चुके थे। मेडिकल सर्टिफिकेट
बनवाना तो उनके बाएं हाथ का काम था। साले साहब डॉक्टर जो थे। खुश होकर बोले - हां, ये ठीक रहेगा।
मैंने कहा- और इस फॉर्म में करेक्शन कर दो - भवन मरम्मत के
स्थान पर पत्नी का ईलाज़। मेडिकल सर्टिफिकेट कल सेक्शन में जमा कर देना।
दूसरे दिन मिश्रजी की फाइल फेयर ड्राफ्ट सहित आर्डर एवं
हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत हुई।
इस्टैब्लिशमेंट में वर्क प्रेशर के कारण कई काम अधीनस्थों
पर विश्वास करते हुए करने पड़ते हैं। उस दिन भी यही हुआ। मैंने असिस्टेंट से पूछा -
गुप्ताजी, सब देख लिया है।
गुप्ता जी बोले - यस सर। आपको सिर्फ सिग्नेचर करना है।
मैंने सिग्नेचर कर दिए। मिश्र जी को बुला कर आर्डर थमाया।
कैश में भी बिलिंग के लिए कॉपी पहुंचा दी गयी।
थोड़ी देर बाद कैश सेक्शन के अधिकारी युसूफभाई का फ़ोन आया -
भाई जान, ये आर्डर ड्राफ्ट पढ़ कर ही
दस्तख़त किया है न?
दिल धड़का। ज़रूर कुछ गड़बड़ है। मैं बोला - हां। कोई परेशानी?
युसूफ भाई बड़ी जोर से हंसे
- आर्डर वापस कर रहा हूं। एक बार फिर पढ़ लें।
दो मिनट बाद ही आर्डर मेरे सामने रखा था। उसमें लाल इंक से
दो शब्द अंडरलाइन थी। मैंने पढ़ा। छपा था - पत्नी मरम्मत।
मैंने माथा ठोंक लिया। न ड्राफ्ट तैयार करने वाले ने ध्यान
दिया, न टाइप करने वाले ने, न सेक्शन ऑफ़िसर ने और न ही अंडर सेक्रेटरी यानि मैंने।
मिश्रजी भी अपनी प्रति लेकर चलते बने थे। सबसे महान योद्धा
तो वही थे। भवन मरम्मत में भवन काट कर पत्नी लिख चलते बने थे।
बहरहाल आनन-फानन में पिछला आदेश कैंसिल करके नया आदेश इशू
किया गया। और आइंदा के लिए सजग रहने के लिए अधीनस्थ स्टाफ़ को मुहंज़ुबानी ताक़ीद की।
और खुद को भी खूब डांटा।
मिश्र जी को किस्सा याद दिलाया तो बड़ी जोर से हंसे - जब
मैंने अपनी पत्नी को ये वाक्या सुनाया था तो उसने मेरी मरम्मत कर दी थी। भला कैसे
भूल सकता हूं। और याद है मेरा नाम ही पत्नी मरम्मत वाले मिश्रजी पड़ गया था।
मिश्रजी मेरी ही तरह रिटायर हैं और पत्नी सहित स्वस्थ हैं।
दोनों को किसी भी किस्म की मरम्मत की ज़रूरत पिछले कई साल से नहीं पड़ी है।
-वीर विनोद छाबड़ा 15 Jan 2015 mob 7505663626
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