Wednesday, January 28, 2015

मां - पल पल दिल के पास।

-वीर विनोद छाबड़ा  
२८ जनवरी २००१। चौदह साल पहले। आज ही का दिन था वो।

मां बिस्तर पर लेटी है। कराह रही है, उसके बदन में भयंकर पीड़ा है। ऐसी स्थिति पिछले एक महीने से है। डॉक्टर की बताई दवा देते है तो थोड़ी देर के लिए दर्द कम हो जाता है।
डॉक्टर ने कह दिया है- सेवा करो, जितनी कर सकते हो। ईश्वर के कमाल के बारे में कुछ कह नहीं सकता।

सेवा तो कर ही रहा हूं। पिछले करीब पांच बरस से। पैरालिसिस अटैक था वो। आधे जिस्म पर। चेहरे पर नहीं। फीज़िओ ने खड़ा कर दिया। थोड़ा चलने-फिरने लायक बना दिया। उनका अपना १०० किलो से ज्यादा वज़न मूवमेंट में आड़े आता था। मां अजीबो-गरीब बातें भी करती कभी-कभी। बिलकुल बच्चों की तरह।


इस बीच पिताजी का देहांत हुआ। बामुश्किल संभाला मां को।

तीन साल बाद मां को दूसरा अटैक आया। इस बार चेहरे का कुछ हिस्सा अटैक की जद में आया। फिजियो ने फिर मेहनत की।

मां फिर उठ बैठी। परंतु पॉटी कुर्सी तक। मगर एक आंख खुली रह गई। बंद नहीं होती थी। हर वक़्त सुर्ख रहती थी। डॉक्टर ने पेपर टेप चिपकाने की सलाह और कुछ ड्रॉप्स लिख दिए।

मां सुबह-सुबह आवाज़ देती है। पत्नी और मैं सारे काम छोड़ कर लपकते हैं। पॉटी साफ़ करते हैं फिर धोई। सलाह देने वालों की कमी नहीं -'कोई नौकरानी या आया रख लो।' हम कहते - क्या सोचते हो? कोशिश नहीं की। पॉटी साफ करने के लिए कोई तैयार नहीं।' नहीं मिली तो क्या हुआ? हम तो हैं। हमें कोई उलझन नहीं है। मां ही तो है। बचपन में उसने हज़ारों दफ़े गूं-मूतर साफ़ किया है। अब मेरी बारी है। मैं अकेला नहीं। पत्नी भी साथ खड़ी है। हमारे लिए मां बच्चो के समान है। जैसे मां ने हम तीनों भाई-बहन को पाला है। अब हम उसे वही ट्रीटमेंट दे रहें हैं। नहलाते-धुलाते हैं। पाउडर-क्रीम और लिपस्टिक भी लगाते हैं। लंगोट भी सिलवाये हैं।

पिछला एक महीना बहुत भारी चल रहा है। हम पति-पत्नी बारी-बारी से रात भर ड्यूटी देते हैं। मां के वज़न पर कभी हम मज़ाक करते थे -मां तुझे लिफ्ट करने के लिए क्रेन करनी पड़ेगी। मां हंस देती थी -'भगवान ने चाहा तो ऐसा नहीं होगा।' अब मां बहुत कमजोर और हलकी हो गई है। हड्डियों का ढांचा भर रह गई है। मैं उसे गोद में भी उठा लेता हूं। पत्नी नीचे की पेशाब से भरी चादर हटा कर बदल देती है। ये कवायद दिन में कई बार करनी पड़ती है। दोपहर में पत्नी का साथ ऊपर रहने वाली छोटी बहन देती है। वो एक स्कूल में पढ़ाती है। उसे सुबह जल्दी जाना होता है।

मां की हालात बिगड़ती ही जा रही है। पिछले दस दिन से मां अपनी दिवंगत बहनों और ननदों का नाम लेकर कराहती है। कभी-कभी तो डरा भी देती है -'सरला कहां चली गयी। अभी तो बैठी थी।' कभी निर्मला तो कभी मोतिया तो कभी दर्शन का नाम लेकर कहती है -'खड़ी क्यों हो बैठ जाओ।' फिर मुझे कहती है - 'तुम्हारे पिताजी आये हैं। उनको बैठने दो।' मैं उठ कर दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता हूं। 

जनवरी का दूसरा पखवारा है। तेज़ सर्द हवाएं चल रही है। कभी-कभी लूज़ सिटकिनी वाली खिड़की अचानक फटाक से खुल जाती हैं। मैं डर जाता हूं। मेरी बगल से हवा का तेज झोंका सरसराता हुआ गुज़रता है। लगता है कोई गुज़रा है मेरी बगल से। मैं सर से पांव तक सिहर उठता हूं। पसीना-पसीना हो जाता हूं। लेकिन तुरंत गायत्री मंत्र जाप करके मन को मज़बूत बनाता हूं। ये मन का वहम है। सुना था ऐसी चलाचली की स्थिति में प्रियजन की आत्मायें विजिट करती हैं। ये पवित्र हैं। मरणासन्न को हौसला देती हैं। चुपचाप आती हैं और चली जाती हैं।

दो दिन हुए दिल्ली से चाचाजी के दामाद यानी मेरे बहनोई आये थे। वो दिल्ली में नामी आई सर्जन हैं। मां को देखा और भलभला कर रो पड़े। मां का कराहना नहीं देखा गया उनसे। मेरा हौसला बढ़ाने आये थे। उलटे मुझे उनको संभालना पड़ा।
मेरे कई रिश्तेदार, हमदर्द पडोसी और मित्र सलाह देते हैं- भगवान से मां की मुक्ति की प्रार्थना करो।

मैं रो देता हूं। कभी गुस्सा भी होता हूं - जिसने मुझे कोख़ में रख नौ महीने कष्ट सहा, अपना दूध पिलाया। मेरे दुःख सुख में जाने कितनी रात जागी। कैसे कहूं भगवन उठा ले। अरे मैं तो दरख़्वास्त करता हूं -मुझे और शक्ति दे। मां की खूब सेवा करूं। शायद कोई चमत्कार हो जाए। लेकिन चमत्कार नहीं होता।

आज सुबह बीकानेर बड़ी बहन को फ़ोन किया - अब आ जाओ। माता जी को आखिरी बार मिल ले।

राजस्थान में चुनाव का दौर है। एक टेलीग्राम भेज दो। इसी आधार पर छुट्टी मिल सकती है। मैं दोपहर जीपीओ में टेलीग्राम देकर घंटे भर में वापस लौटा। घर के बाहर भीड़ देखी।

गयी मां। यही मुंह से निकला। मेरे लौटने का इंतज़ार नहीं किया। मेरे नसीब में नहीं था।

ढाई का टाइम है। दिल्ली भोपाल और बीकानेर फ़ोन कर दिया है। सुबह तक सब पहुंचेंगे।

इसी बहाने मुझे मां के साथ एक रात और काटने का मौका मिलेगा। मेरा फुफेरा भाई योगी, दोस्त सूरज और के.के.चतुर्वेदी मेरे बैठे हैं। पडोसी विजय भी बीच बीच में चक्कर लगा रहा है। उस रात पलक नहीं झपक सका। हम बातें करते रहते हैं। कभी-कभी हम लंबी चुप्पी साध लेते हैं।
इस बीच मैं मां को अपलक देखता हूं। सर से पांव तक ढकी है। आज कोई हलचल नहीं है। चुपचाप ज़मीन पर निस्तेज लेटी है। नीचे मोटा गद्दा दे दिया है और ऊपर रज़ाई। ताकि ठंड ने लगे। हंसी भी आती है। अब इनके लिए ठंड के क्या मायने। आज सर्द हवा तेज नहीं है। अगर बत्ती और धूप के धुंए से कमरा में धुंधलापन छा गया है।


मां के साथ बीता जीवन मन-मस्तिष्क में चलचित्र की तरह चल रहा है। मां सोलह साल की थी जब ब्याह हुआ था। चाचाजी बताते थे - गुड़िया की तरह छमछम करती लंबा घूंघट काढ़े आई थी तुम्हारी माताजी। तबसे जाने कितने तूफ़ान और मौसम देखे । आज़ादी का सुख नही बल्कि पार्टीशन की खूंरेज़ी त्रासदी देखी। किसी तरह छह महीने की बेटी को छुपा कर लाहोर से जलंधर पहुंची थी। मैं मां को माताजी कहता था और मेरे बच्चे अम्मा। वो मेरे पिताजी की शकुंतला थीं। प्यार से वो कुंतल कहते थे। उस दौर के जाने कितने हिंदी-उर्दू के साहित्यकारों ने उसके हाथ के मस्त आलू/गोभी पराठे खाए। फ़िराक़ गोरखपुरी साब कई दफे मेरे घर ठहरे। मां के हाथ बना खाना बहुत अच्छा लगता था उन्हें। जब लखनऊ से गुज़ारना होता था तो हफ्ता भर पहले चिट्टी आ जाती कि पंजाब मेल से गुज़रूँगा। शकुंतला के हाथ का बना खाना स्टेशन पर भिजवा देना। हमारे परिवार की सबसे दबंग महिला थीं। कल उसी मां को मुखाग्नि देनी है।

अचानक बाहर खट की आवाज़ होती है। अख़बार आया है। सुबह होने को है। इसी के साथ यादों का सिलसिला टूट जाता है। 

पड़ोस से जोशी जी और भटनागर जी के घर से चाय आ जाती है। और इसी के साथ अंतिम यात्रा का प्रोग्राम बनना शुरू हो जाता है।

-वीर विनोद छाबड़ा २९-०१-२०१५ mob 7505663626

No comments:

Post a Comment