-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ के गोलागंज मोहल्ले
के 'मिश्रा भवन' के प्रांगण में लगे कटहल के इस पेड़ से गहरी यादें जुडी हैं।
पहली बार इसे १९७१
में मैंने तब देखा था जब मित्र रवि प्रकाश मिश्रा मुझे अपना घर दिखाने लाये थे।
ढेरों कटहल लटक रहे
थे। मुझे डर लगा कि कोई टन्न से मेरी खोपड़ी पर न गिर पड़े। मिश्राजी के लाख समझाने पर
भी मेरा डर गया नहीं। और आजतक बरक़रार है।
इस कटहल के पेड़ के
कारण ही मिश्रा भवन 'कटहल वाली कोठी' भी कहलाता था।
चाय-शाय के बाद जब
मैं वापस होने को हुआ तो साइकिल के कैरियर पर एक मोटा और बड़ा सा कटहल बंधा हुआ पाया।
मैंने मिश्राजी की ओर 'ये क्या है' वाली दृष्टि से देखा।
वो प्यार से बोले
- मोमेंटो है। पहली दफे आये हो न।
उसके बाद भी कई दफ़े
मिश्राजी ने वापसी पर कटहल पकड़ाये।
मगर त्रासदी ये थी
कि मैं क्या मेरे पुरखों ने भी कोई कटहल नहीं खाया था। मेरा विवाह भी नहीं हुआ था।
अतः ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि जो बने खाना पड़ेगा। हमें कटहल पड़ोसियों में बांटने पड़ते
थे।
अरसा गुज़रा। हम लोगों
की नौकरियां लगीं। विवाह हुए।
मिश्राजी जी ने डिनर
पर बुलाया। डर लगा कि वापसी पर ग्यारह-इक्कीस की जगह कटहल का मोमेंटो न पकड़ा दें। नवेली
पत्नी क्या कहेगी? कटहल की सब्जी से भी डर रहा था। उन दिनों कई शादियों के डिनर
में कटहल सर्व होते मैंने देखा था और खास पार्टियों में भी। शायद शुभ माना जाता रहा
हो।
उन दिनों मिश्राजी
सपत्नीक किसी की घर भी जाते तो मिठाई-शिठाई की जगह चार-पांच कटहल के ले जाते। उनका
नाम कटहल वाले मिश्राजी पड़ गया। आगे चल कर वो कटहल वाले अंकल कहलाये।
मेरे घर तो बड़ा बोरा
भर लाये। बोले - इस बार पेड़ ने बहुत ज्यादा दिए हैं। आसपास भी खूब बांटा है।
मारे शर्म के मिश्राजी
को मैं ये न बता सका कि आपके घर से आये कटहल पसंद न होने के कारण पड़ोसियों में बांट
देते हैं। उस दिन भी यही हुआ। हमने अपने पड़ोसियों को बांट दिए।
दूसरे दिन मैं एक पड़ोसी
मित्र के घर गया। मित्र भोजन कर रहे थे। खाने-खिलाने के शौक़ीन।
मेरे न न करने के बावजूद उनकी मेमसाब ने एक कटोरी मेरे
आगे रख दी - ये सब्जी खाइये। हमारे तिरुवा
में खूब खाई जाती है।
मैंने बहुतेरा पूछा
- ये क्या है?
मगर उन्होंने बताया
नहीं। कहा - पहले खाइये और बताइये कैसा है स्वाद?
मैंने डरते-डरते एक
चम्मच मुंह में डाला। बहुत अच्छी लगी। दूसरा और तीसरा भी लिया। पूरी कटोरी चट कर दी।
थोड़ी और भी दी उन्होंने। मैंने पूछा - अब बताइये ये क्या था।
उन्होंने कहा - कटहल।
आपही के घर से तो आया है।
मुझे तो काटो खून नहीं।
नहीं, नहीं। उबकाई नहीं आई। बल्कि खुद को कोसा - यार इतना अच्छा होता
है कटहल। और मैं खामख्वाह ही इतने साल इससे डर कर भागता रहा। भले मुफ़्त के थे। लेकिन
दिए तो प्यार से थे। हम इन्हें पड़ोसियों को बांटते रहे! लानत है तुझ पर।
मैं फौरन घर आया। मेमसाब
को कहा - पडोसी के घर जाओ। कटहल बनाने की रेसिपी सीख कर आओ। और कोई कटहल बचा हो तो
उठाती लाना।
बहरहाल उस दिन के बाद
से मैं ज़बरदस्त कटहल प्रेमी हो गया। कटहल के कई और व्यंजन भी बनने लगे। खासतौर पर कटहल
कबाब बहुत अच्छा लगा। आये दिन बाज़ार से कटहल
आने लगा। लेकिन मेमसाब कहती ज़रूर थीं- अगर
मिश्रा जी के घर की तरफ जाना हो तो कटहल ज़रूर लेते आना।
उस दिन बाद मुद्दत
के मिश्रा भवन गया तो देखा कटहल का वो पेड़ मुस्तैदी से खड़ा है। एक भी कटहल नही दिखा।
कई बरस से इस पर कटहल बहुत कम हो रहे हैं। आसपास के ही लोग तोड़ कर ले जाते हैं।
इसकी उम्र पूछने पर
मिश्राजी ने बताया कि ८७ साल की उनकी बड़ी बहन हैं। वो इसी पेड़ की छांव तले खेलकर बड़ी
हुई हैं। इस हिसाब से सौ से तो ऊपर ही है।
मैं कुछ देर इसके नीचे
भी खड़ा रहा। आज मुझे डर नहीं लगा। अब किसी कटहल के टन्न से खोपड़ी पर गिरने का डर जो
नहीं है।
-वीर विनोद छाबड़ा 23 Jan 2015D-2290 Indira Nagar
Lucknow-226016 UP (India)
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