-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ का अमीनाबाद बाज़ार।
इसकी टक्कर के अनेक बाज़ार शहर के कई हिस्सों में विकसित हो चुके हैं। तमाम शॉपिंग माल्स
भी उग आये हैं। अब यहां दूर-दूर इलाकों से खरीदार नहीं आते। उन्होंने अपने इलाके के
बाजार आबाद कर लिए हैं। लेकिन बावजूद इसके अमीनाबाद में आज भी उतनी ही भीड़ है जितनी
कि कल थी और पच्चीस-तीस साल पहले भी। वज़ह है कि आज भी यहां बारगेनिंग यानी भाव-ताव
का खेल खूब है। सड़क पर लगी गुमटियों और ठेलों पर लगा सौ का सामान २० की बोली से शुरू
होता है और ४०-५० में फ़ाइनल होता है।
कई बरस पहले की बात।
मैं पत्नी के साथ शॉपिंग
के लिए गया। हालांकि उनका ऊपरी तौर मकसद मुझे ये सिखाना था कि शॉपिंग और बारगेनिंग
कैसे की जाती है? लेकिन दरअसल मक़सद स्कूटर पर मुफ्त ढुलाई और डोसा खाना होता था।
बहरहाल स्कूटर स्टैंड
पर खड़ा कर मैं उनके साथ चला। चप्पल वाली गली में घुसे। यहां दोनों तरफ सैंडिल-चप्पल
की गुमटियों की लंबी कतारें। फुटपाथ पर भी तमाम सजी थीं। पत्नीजी एक गुमटी पर रुकीं।
दर्जन भर सैंडिल निकलवायीं। नहीं पसंद आई। अगली गुमटी। वही कहानी। तीसरी और चौथी भी।
दसवीं गुमटी। मैं पस्त हो चुका था। थोड़ा थोड़ा हांफ भी रहा था। पत्नी के चेहरे पर थकान
का चिन्ह दूर-दूर तक नहीं। मगर शुक्र है इस दसवीं गुमटी पर आधी दुकान पलटवा देने के
बाद पत्नी को एक अदद सैंडिल पसंद आ गयी।
दुकानदार बोला - १००
रूपए। असली माल। पांच साल की गारंटी मुफ्त में।
मेमसाब बोलीं - २०
से ज्यादा एक पैसा नहीं।
दुकानदार बुरी तरह
झल्ला गया - वाह मैडम जी वाह! एक तो आधा घंटा ख़राब किया और अब १०० के माल २० लगा कर
माल की बेइज़्ज़ती कर रही हैं। चलिए आगे बढ़िए। दूसरी दुकान देखिये।
मुझे गुस्सा आया। कुछ
सुनाने का मूड भी बनाया। किस कदर बदतमीज़ी से बोल रहा है ये नालायक। लेडीज़ से ऐसे बात
की जाती है। लेकिन पत्नी ने हाथ दबा दिया
- जाने भी दो। देखना अभी ये खुद ही खुशामद करेगा।
और सचमुच। हम अभी दो
कदम आगे बढ़ कर अगली दुकान पर पहुंचे ही थे कि पीछे से आवाज़ आई - अरे बहिन जी आप तो
नाराज़ हो गयीं। चलिए ८० दीजिये।
पत्नी वापस पलटीं
- नहीं ये ज्यादा है।
दुकानदार - अरे आप
कोई नई तो हैं नहीं। हरदम यहीं तो आना होता है। आपसे कभी प्रॉफिट नहीं लिया। भाई समझ
कर दो पैसे पेट भरने के लिए ज़रूर मांग लिए।
बात अब रिश्ते पर आ
गयी।
पत्नी बोलीं - नहीं
भैया ४० से ज्यादा तो एक पैसा नहीं।
दुकानदार ने हथियार
डाल दिए - अच्छा चलिए हटाइये। न मेरी और न आपकी। ५० ही दे दीजिये, इस भाई को। घर का मामला
है।
दुकानदार ने फ़ौरन उसने
सैंडिल पैक कर दी।
पत्नी ने ४० पकड़ाते
हुए चल दी - ले भैया।
दुकानदार कुछ न बोला।
उसने गिने भी नहीं। वो गिनते हुए देख भी चुका था। उसे पक्का मालूम था ४० से ज्यादा
एक छदाम नहीं मिलेगा। गर्दन झटक कर दूसरे ग्राहक से निपटने लगा।
पत्नी खुश। मगर घंटा
भर जाया कर दिया।
सैंडिल ने पंद्रह दिन
में नमस्कार कर लिया।
इसके बाद मैंने शॉपिंग
पर जाना तो बंद नही किया पर साथ चलना बंद कर दिया। एक स्थान तय हो जाता। एक घंटे बाद
यहीं मिलेंगे। मगर पत्नी दो घंटे से पहले कभी नहीं लौटीं। उसे विश्वास है रात भर भी
खड़े रहना पड़े तो ये पतिव्रता और संस्कारों का मारा पति जाएगा नहीं।
बरसों गुज़र गए। अब
हम अमीनाबाद नहीं जाते। भीड़, ट्रैफिक जाम। भाव-ताव से मिला फायदा - ज़ीरो।
थोड़ी दूर भूतनाथ बाजार
में शॉपिंग होती है। पत्नी अकेली या बच्चों के साथ जाती है। मेरी ज़रूरत नहीं पड़ती।
पत्नी को शॉपिंग के बाद गोलगप्पे भी खाने हैं जो मेरे होते हुए इतनी आसानी से संभव
नहीं।
मेरे एक क़रीबी रिश्तेदार
दुकानदार ने अपने २५ साल के तजुर्बे के आधार पर राज़ की बात बताई - हम ग्राहक का चेहरा
देख कर समझ जाते हैं कि ये कितना मार्जिन खायेगा। पहले से सोच लेते हैं ३०% ज्यादा
रेट बताना है। लेकिन कभी-कभी ग्राहक भी जिद्दिया जाता है और हम भी। ग्राहक को जाने
नहीं देते। घाटा खा जाते हैं। अगली बार सही। वो दस साल बाद भी आये, तो भी पहचान लेंगे।
अब मैं आपको अपना तजुर्बा
एक उदाहरण सहित बताता हूं।
एक गिफ्ट हाउस है।
मैं पहले से तय करके जाता हूं क्या आइटम लेना है। कितने तक की रेंज में चाहिए। ज्यादा
से ज्यादा हुआ पांच मिनट में आइटम सेलेक्ट। पांच मिनट में पैकिंग। दुकानदार से मुस्कुरा
कर कहा - तुम्हारा टाइम वेस्ट नहीं किया। कितना दूं?
दुकानदार भी मुस्कुराता
है - आपसे वाज़िब दाम लूंगा।
बरसों हो गए। दुकानदार
अच्छी तरह से पहचानता है। जो आइटम मैं बिना झिक-झिक किये १८० में लाता हूं पत्नी जी
कम से कम आधा घंटा खर्च कर २०० में लाती हैं।
जूता मैं बाटा से लेता
हूं - फिक्स्ड रेट। नो बारगेनिंग यानि भाव-ताव। पत्नी को बाटा इसीलिए पसंद नहीं।
ये मेरी ही नहीं,
तेरी-मेरी कहानी है।
-वीर विनोद छाबड़ा डी
- २२९०, इंदिरा नगर, लखनऊ - २२६०१० मो ७५०५६६३६२६
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