-वीर विनोद छाबड़ा
चरण स्पर्श बड़ों के
प्रति आदर का प्रतीक है।
जब बड़े हुए तो माता-पिता
को बड़ों के चरण स्पर्श करते देखा। रूठने वालों को भी बड़ों के पैर छूते देखा। देखा-देखी
हम भी वैसा ही करने लगे।
तब हमें नहीं मालूम
था कि मुस्लिम समाज में ये प्रथा नहीं है। लेकिन हम उनके भी पांव छूते थे। माता-पिता
ने मना नहीं किया। और उन्होंने भले ही 'न न' की, लेकिन हम फिर भी छूते
रहे।
चिट्ठीपत्री में भी
सबसे पहले चरण स्पर्श या पांव लागी लिखा जाता था।
जब घर से बाहर दुनिया
में कदम रखा तो पता चला कि किसके छूने और किसके नहीं। कौन हिन्दू और कौन मुसलमान। लेकिन
जब किसी विद्वान से मिलना होता तो न हिन्दू न मुसलमान और न इसाई, हाथ खुद-बी-खुद पांव
छूने को बेताब हो जाते। और ये जज़्बा आज भी बदस्तूर कायम है।
हमारे खानदान में बेटियां
पांव नहीं छूती। बड़े बुज़ुर्गों ने सख्ती से मना किया है। हम तो बहुओं द्वारा पांव छूने
के भी विरुद्ध हैं। लेकिन वो मानती नहीं। शायद ज़माने के सदियों पुराने बंधन यह उन्हें
ऐसा न करने की इज़ाज़त नहीं देते।
हालांकि अब पूरी तरह
दंडवत हो कर चरण स्पर्श की प्रथा में थोड़ा सुधार हुआ है। कई घरों में तनिक झुक कर एक
हाथ आगे बढ़ाने तक सीमित रह गया है। अगर किसी कारणवश दूरी अधिक है ये कवायद दूर से प्रतीकात्मक
रूप ही अदा हो जाती है। और अगला इसे आदर दिया जाना मान लेता है।
लेकिन तब बहुत ख़राब
लगता है जब हम अपने किसी मित्र या रिश्तेदार के घर जाते हैं तो बहू हमारे चरण स्पर्श
करने के साथ-साथ सास-ससुर के भी चरण स्पर्श करती है।
एक बार बहू भूल गई
तो सास ने आखें तरेर कर उसे चरण स्पर्श करने का इशारा किया। थोड़ी देर बाद अंदर से आती
आवाज़ों से पता चला कि सास ने बहू को बहुत बुरी तरह डांटा - अगर दिन में दस बार मेहमान
आएंगे तो तुम्हें दस बार उनके और हमारे पांव छूने पड़ेंगे। बहू हो, बहू बन कर रहो। हमने
उन मित्र के घर जाना बहुत कम कर दिया है।
एक और दकियानूसी मित्र
हैं। उनकी बहू के पिता का स्वर्गवास हुआ था। चूंकि हमारा उनसे अच्छा संबंध था,
लिहाज़ा हम भी एक दिन अफ़सोस करने उनके साथ बहू के मायके चले गए। पर्याप्त समय बैठने
के पश्चात हमने आज्ञा मांगी।
मित्र बोले - मैं भी
चलता हूं।
मैंने हामी भर दी।
काफी देर हो गई। लेकिन वो इत्मीनान से बैठे रहे।
मैंने कहा - मुझे देर
हो रही है। घर मेहमान आने हैं। चलना है तो चलो।
वो बोले - हां,
चलता हूं अंदर संदेशा भिजवा दिया है। अभी बहू आती होगी।
हम बेसब्रे हो रहे
थे। और वो मेरा हाथ पकडे हुए थे। मुझे मालूम था ये बुढ़ऊ मेरे साथ लटकेगा क्योंकि अगर
हम चले गए तो उसे ऑटो या रिक्शे से आना पड़ेगा। पैसा खर्च होगा। यों कार से घर तक पहुंच
जाएगा बिलकुल फ्री। लेकिन ये समझ नहीं आ रहा था कि मित्र बहू का इंतज़ार क्यों कर रहे
हैं। घर के बाकी सदस्य भी तो वहां बैठे हैं।
खैर, बहू आई। मित्र ने उन्होंने
पैर आगे बढ़ाये। बहू ने यंत्रवत चरण वंदना की।
वंदना समाप्त होते
ही मित्र उठे। बहू की ओर देखा भी नहीं। आशीर्वाद तक नहीं दिया।
मित्र ने हमारा हाथ
पकड़ा और चल दिए।
हमने मित्र को हज़ार
गालियां सुनायीं। कम से कम मौका और स्थान तो देखा होता।
मगर वो हंसता रहा।
बोला - तुम पंजाबी लोग नहीं समझोगे। ये हमारे समाज की संस्कृति है, रिवाज़ है।
ये चरण-छुआई की रस्म
ऑफिसों में भी भरपूर पाई जाती है।
प्रशासन की सीट पर
तैनात हमारे एक अधिकारी मित्र तो बाकायदा जूते-मोज़े उतार इस अंदाज़ में बैठते थे कि
चारण भक्तों को तकलीफ न हो और वो भी बद्दस्तूर अपना काम करते रहें।
चरण स्पर्श बड़ों को
आदर देने का सूचक है, सुंदर भाव है। इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती। लेकिन दकियानूस
जब इसे दकियानूसी का लबादा ओढ़ाते हैं तो ख़राब लगता है।
और रही-सही कसर 'चारण भक्ति'
पूरा कर रही है जिसमें चापलूसी और भय की बू आती है। चरण स्पर्श करते हुए फोटो खिंचवाना
भक्तगण का नया शौक है। निकट भविष्य में ये
चारण भक्ति की इंडस्ट्री खूब फले-फूलेगी।
-वीर विनोद छाबड़ा १०-१२-२०१४
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