-वीर विनोद
छाबड़ा
अच्छा सिनेमा देखने
वालों को ‘तीसरी क़सम’(1966) ज़रूर याद होगी। इसे
गीतकार शैलेंद्र ने प्रोड्यूस किया था। निर्देशन बासु भट्टाचार्या का था। प्रसिद्ध
लेखक फणीरेश्वरनाथ रेणु की रचना ‘मारे गए
गुल्फाम’ पर आधारित थी
यह फिल्म। शैलेंद्र का सपना था।
शैलेंद्र भले बहुत
प्रसिद्ध गीतकार थे और अनन्य मित्र राजकपूर के अलावा तमाम निर्माता-निर्देशकों की
पहली पसंद। मगर फिल्म बनाना हमेशा बहुत ही मुश्किल रहा है। ये बात फिल्म लाईन से
रोटी-रोज़ी का जुगाड़ करने वाले शैलेंद्र से बेहतर भला कौन समझ सकता है? और फिर गीतकार की
हैसियत ही कितनी होती है?
मगर ये ऐसा कीड़ा है। एक बार काट ले तो कोई ईलाज नहीं।
शैलेंद्रजी पर तो मानो
भूत चढ़ा था। सपनों में खोये थे... सब तो अपने ही हैं। फिल्म बन जाने दो। पैसे की
बात बाद में। देखना, सब यही कहेंगे।
लेकिन ये सपनों की नगरी है प्यारे। जितने चाहे देखो, एक से एक हसीन सपने।
एक ठोकर पड़ेगी। नींद खुल जायेगी। भूल जाओगे सपना। याद करोगे उस गंदी बस्ती को जहां
से तुम आये हो। शैलेंद्र के साथ भी यही हुआ। लेकिन वो पीछे नहीं हटे। फिल्म तो बन
कर रहेगी। बैंक खाली किया। दोस्तों-यारों से मदद मांगी। थोड़ी बहुत ही मिली। फिल्म
फ्लोर पर जाने के लिए तैयार हो गयी।
राजकपूर साहब की हां
चाहिए थी। यों तो वो मुद्दत पहले से तैयार थे। फिर भी एक औपचारिक हां तो ज़रूरी थी।
शैलेंद्रजी पहुंचे राजसाहब के दरबार। शैलेंद्र ने उन्हें वादा याद कराया।
राजसाहब बोले - ‘‘हां, बिलकुल याद है। मगर
पहले यह तो बताओ प्रोजेक्ट क्या है?
बजट कितना है? मेरी फीस
कितनी है? साईनिंग
एमाउंट कहां है? एग्रीमेंट
फार्म कहां है?’’
शैलेंद्रजी के हाथों
से तोते उड़ गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें और क्या बताएं। वो जो सोच
कर आए थे वैसा तो यहां कुछ नहीं घटा। बल्कि सवाल पर सवाल। खैर, शैलेंद्रजी ने
जैसे-तैसे हिम्मत बटोरी - ‘‘ये रहा
एग्रीमेंट फार्म। जो आपकी फीस हो इसमें भर दीजिए। और हां ये रहा आपका साईनिंग
एमाउंट।’’ यह कहते हुए
शैलेंद्रजी ने जेब में हाथ डाला। जितना भी जेब में पैसा था निकाल कर रख दिया।
राजकपूर साहब ने
शैलेंद्रजी को सर से पांव तक घूर कर देखा। फिर मुस्कुराए। शैलेंद्रजी के कंधे पर
हाथ रखा। सामने रखे मुडे-तुडे़ रुपयों में से एक रुपया उठाया और बोले - ‘‘दोस्त, यह रहा मेरा साईनिंग
एमाउंट और यही मेरी फीस भी है।’’
यह कहते हुए राजसाहब ने शैलेंद्रजी को सीने से लगा लिया।
शैलेंद्र जी के गले से
आवाज़ नहीं निकली। सिर्फ आंसू थे आंखों में।
आगे इतिहास गवाह है कि
राजसाहब ने ‘तीसरी कसम’ में जो पावरफुल
परफारमेंस दी थी वो उनके कैरीयर की सर्वश्रेष्ठ में से एक थी।
‘तीसरी कसम’ ने 1966 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म
का नेशनल एवार्ड जीता। लेकिन फिल्म बाक्स आफिस पर बुरी तरह नाकाम रही।
शैलेंद्र बुरी तरह टूट
गए। बाजार का उधार चुकाना मुश्किल हो गया। वो गहरे अवसाद में चले गए। बोतल का सहारा
पकड़ लिया। अंततः को वो दुनिया से कूच कर गए। सिर्फ 43 साल उम्र थी उनकी।
सब कुछ सीखा हमने न
सीखी होशियारी, सच है दुनिया
वालों हम हैं अनाड़ी....।
संयोग से जिस दिन यानि
14 दिसंबर को
उनका देहांत हुआ उसी दिन उनके प्रिय मित्र राजकपूर का जन्मदिन होता है।
सुना है राजकपूर साहब
ने उस दिन से जन्मदिन मनाना छोड़ दिया था।
नोट - यह किस्सा कुछ
दिन पहले अन्नू कपूर ने मस्ती चैनेल पर सुनाया था।
---वीर विनोद छाबड़ा
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