-वीर विनोद छाबड़ा
आज ०३ दिसंबर है। देवानंद
साहब को गुज़रे तीन साल हो गए हैं।
मैंने जब होश संभाला
था तो पाया कि देवानंद हमारे पिताजी की पीढ़ी के नायक थे। लेकिन उनकी सदाबहार इमेज की
कायल मेरी पीढ़ी भी हो गयी। मैंने १९६५ में उनकी पहली फ़िल्म देखी थी - तीन देवियां।
तभी से वो देवानंद से देवसाब हो गए और उनसे रश्क हो गया। तब मैं चौदह प्लस था। सोचता
था - बड़ा होकर मैं भी बनाऊंगा - चार देवियां।
देवसाब से रश्क का
एक और कारण था कि उनको पुरुषों से ज्यादा महिलाओं द्वारा पसंद किया जाना। सोलह साल
की भी और साठ वाली भी। सिनेमाहाल में मर्दों
से ज्यादा तो औरतों की तादाद देखी जाती थी। सुनते थे कि लड़कियों के तकिये के नीचे देवसाब
की तस्वीर होती थी।
ये भी सुना था कि देवसाब
का मशहूर एक्ट्रेस सुरैया से ज़बरदस्त इश्क चला था। मगर सुरैया की नानी तैयार नहीं थीं।
देवसाब ज्यादा इंतज़ार नहीं कर पाये और अपने बड़े भाई चेतन आनंद की खोज मोना उर्फ़ कल्पना
कार्तिक से ब्याह रचा लिया। लेकिन सुरैया ने उम्मीद नहीं छोड़ी। टूटे दिल के साथ ज़िंदगी
गुज़ारने का फैसला किया। उन्होंने मरते दम तक शादी नहीं की।
मैं ही नहीं सारा का
सारा पुरुष वर्ग देवसाब से डाह रखता था। शायद यही वज़ह थी कि उस ज़माने में देवानंद कट
हेयर स्टाइल के प्रति नौजवान के साथ-साथ दस-बारह साल वाले लड़के भी दीवाने थे। मैंने
एक मुद्दत तक उनकी स्टाइल को अपनाने की कोशिश की। मगर कम्बख़्त उनकी मानिंद बाल ही नही
सेट हो पाये।
कई नायिकाओं का कैरियर
बनाने का श्रेय देवसाब को जाता है। ज़ीनत अमान हालांकि ओपी रल्हन की खोज थी। परंतु उसे
ज़मीन से आसमान पर बैठाने का काम देवसाब ने किया। 'हरे रामा हरे कृष्णा
में' वो देवसाब की बहन थीं। इसके बाद कलाबाज़, डार्लिंग डार्लिंग,
वांटेड आदि कई फिल्मों में दोनों नायक-नायिका रहे। लेकिन बात कुछ हज़म नहीं हुई।
उन दिनों पचास की उम्र में आम तौर पर कलाकार चरित्र भूमिकाओं में देखे जाते थे। या
ये भी कह सकते हैं कि डाह के कारण बदहज़मी हुई। लेकिन जब 'देस परदेस'
में वो ५५ की पिता समान उम्र में १७ की टीना मुनीम से इश्क फरमाते देखे गए तो उनके
घनघोर दीवानों को भी उलटी हो गयी। उनके बारे में उन दिनों ये जोक मशहूर हो गया। फिल्म
की नायिका के बेटी हुई। देवसाब बधाई देने के साथ एग्रीमेंट भी लेते गए, १६ साल बाद बनने वाली
फिल्म की नायिका की भूमिका के लिए नवजात बेटी को साइन करने के लिए। इससे देवसाब की
चिरयुवा छवि छिन्न-भिन्न हो गयी।
नाई की दुकान में दीवारों
पर देवानंद, दिलीप कुमार, राजकपूर और अशोक कुमार
की पत्रिकाओं से कटी तस्वीरें चस्पी होती थीं। दो राय नहीं कि हॉट फ़ेवरिट में देव पहले
पर होते थे और दिलीप कुमार दूसरे पर।
मेरे दिल में दिलीपसाब
बसते थे। मगर देवसाब बहुत पीछे नहीं थे। मैंने दिलीप और देव को एक साथ 'इंसानियत'
(१९५५) में देखा था। बड़ी धुंधली सी याद है। इसमें एक जिप्सी बंदर कमाल का था। तब
पिताजी की उंगली पकड़ कर देखने गया था। बाद में री-रन ये फिल्म और तमाम दूसरी फ़िल्में
देखीं।
एक ज़माने में देवानंद
हेयर स्टाइल के अलावा देवानंद कैप भी बड़ी मशहूर हुई। ये कैप 'ज्वेल थीफ़'
(१९६७) की देन थीं। ये वो दौर था जब देवसाब की फिल्मों का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार
रहता था।
जॉनी मेरा नाम (१९७०)
बहुत बड़ी हिट थी। लेकिन इस फ़िल्म के बाद से देवसाब की मशहूर हेयर स्टाइल काफी हद तक
छट गयी। उनके बाल पहले जैसे नहीं रहे। उनके प्रति दीवानगी में भी कमी आई। दरअसल एक
नई पीढ़ी आ चुकी थी जो धर्मेंद्र, जीतेंद्र, राजेश खन्ना की दीवानी
थी और अमिताभ बच्चन दस्तक दे रहे थे। इसके बाद हालांकि देवसाब ने कई फ़िल्में बनायीं
मगर अपने सुख के लिए। उनको लेकर दूसरों ने जो फ़िल्में बनाई भी तो उनसे प्रेम के कारण।
देवसाब ने ११४ फ़िल्में
की जिसमें ८२ में वो अकेले हीरो थे। यों तो मुझे देवसाब की ढेर फ़िल्में अच्छीं लगीं।
लेकिन खासतौर पर कालापानी, हम दोनों, असली नकली, मुनीमजी, जब प्यार किसी से होता
है, तेरे घर के सामने, तीन देवियां, गाइड, ज्वेल थीफ़,
जानी मेरा नाम और गैंबलर बहुत पसंद हैं। बतौर 'गाइड' के निर्माता देवसाब को पूरे विश्व में ख्याति मिली।
कई पुरुस्कारों से नवाज़ा गया। बेस्ट हिंदी फिल्म का नेशनल अवार्ड भी मिला। 'कालापानी' और 'गाइड' में उम्दा परफॉरमेंस
के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। फिल्मफेयर ने १९९१ में लाइफटाइम
अचीवमेंट का सम्मान दिया। भारत सरकार ने उन्हें २००१ में पद्म भूषण से नवाज़ा। फिल्मों
में अपूर्व योगदान के लिए सबसे बड़ा ईनाम दादासाहेब फाल्के अवार्ड है। देवसाब को इससे
२००२ में सम्मानित किया गया। अलावा इसके भी गिनती नहीं है उन्हें मिले सम्मानों की।
लेकिन देवसाब इतना ऊंंचे उठ चुके थे कि अक्सर अवार्ड छोटे लगे। ऐसा लगा कि सम्मानित
देवसाब नहीं बल्कि खुद अवार्ड हो रहे हैं।
मैंने उनकी कई फ़िल्में
कई-कई बार देखीं हैं। इनमें से 'हम दोनों' सबसे ज्यादा रिपीट
की है। मेरी याद में ये डबल रोल वाली पहली फिल्म थी। जब ये कलर में आई तब भी दो बार
देखी।
देवसाब ने ३५ फ़िल्में
प्रोड्यूस की और उनमें से १९ डायरेक्ट की। चाहे फिल्म चले या न चले, वो फ़िल्में बनाते ही
चले जाते थे। बिलकुल एक फैक्टरी की तरह। उनका कहना था कि फ़िल्में बनाने से उन्हें एनर्जी
मिलती है और यंग महसूस करते हैं। उन्होंने अपने बेटे सुनील आनंद को 'आनंद ही आनंद'
में लांच किया था। मगर ये सुपर फ्लॉप रही। इसके साथ ही सुनील के कैरियर पर भी स्टॉप
लग गया। सच ये था कि उसमें स्टार मटेरियल की एक बूद तक नहीं थी।
देवानंद साब के जन्म
२६ सितंबर १९२३ को हुआ था और देहांत ०३ दिसंबर २०११ को।
ज्वेल थीफ़ का आख़िरी
डायलॉग भी बहुत अच्छा लगा था - और एक था, ज्वेल थीफ़।
सचमुच दूसरा ज्वेल
थीफ़ पैदा नहीं हुआ और शायद होगा भी नहीं।
-वीर विनोद छाबड़ा/७५०५६६३६२६/०३-१२-२०१४
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