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वीर विनोद छाबड़ा
जब होश संभाला तो
दिलीप कुमार, राज कूपर और
देवानंद की त्रिमूर्ति को राज करते हुए पाया हिंदी स्क्रीन पर। लाखों प्रशंसकों के
साथ-साथ मैं भी इनका जबरदस्त फै़न था। अपने-अपने कारणों से तीनों ही दिलों पर राज
करते थे। मेरे लिए दिलीप कुमार नंबर एक थे तो देवानंद ज्यादा पीछे नहीं। राजकपूर
भी बेहतरीन एक्टर थे लेकिन उससे कहीं ज्यादा सुपर्ब प्रोड्यूसर-डायरेक्टर।
मुझे उनकी सबसे पहली
फिल्म ‘बूट पालिश’(1954) याद आती है। हमारे
स्कूल में दिखायी गयी थी। ये बात 1958 की है। सुना
था राजकपूर बहुत बड़ा एक्टर है। वो भी इस फिल्म में काम करता है। लेकिन निराशा हुई
जब पूरी फिल्म में सिर्फ़ एक बार दो मिनट के लिए उन्हें देखा और वो भी सोते हुए।
बहरहाल, मैं ‘नन्हें मुन्ने बच्चे
तेरी मुट्ठी में क्या है....’
गुनगुनाते घर आ गया। कुछ दिनों बाद पिताजी मुझे ‘छलिया’(1960) दिखाने ले गये। तब
जाना राजकपूर क्या है? मुझे याद है
जब राजकपूर को प्राण पीटते थे तो बहुत गुस्सा आता था लेकिन जब प्राण पिटते थे तो
मैं भी सीट से उछल-उछल जाता-‘मार साले को, और मार...।’ आने वाली कई बरसातों
में मैं कभी आंगन और कभी छत पर खूब नहाया - डमडम डिगा डिगा, मौसम भिगा भिगा, बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा हाय
अल्लाह....। आज भी जब कभी बरसात होती है और बच्चों को उछलते-कूदते मस्ती करते
देखता हूं तो जु़बां पर बरबस यही गाना आता है। आज की पीढ़ी को भी जब यही गुनगुनाते
सुनता हूं तो बड़ा फ़ख्र होता है, अपने अतीत
पे। आज 54 बरस बाद भी
बड़ी जान है इसमें।
मुझे राजकपूर बतौर
एक्टर भले उतना पसंद न हों मगर गानों में वो पूरी तरह छूबे दिखते हैं। इस कारण से
कि धुन बनने से लेकर रिकार्डिंग तक वो बराबर शरीक रहते हैं। वो अच्छे डांसर नहीं
थे लेकिन हौले-हौले उनका ठुमकना बहुत भाता था। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है
हिंदुस्तानी...’। श्री 420’(1955) का ये गाना मुझे इतना
अच्छा लगता है कि हिंदी सिनेमा के सारे गाने इस पर न्यौछावर हैं। कारण ये है कि हम
हिन्दोस्तानी
दुनिया में कितने ही बड़े तुर्रमखां क्यों न बन जायें मगर अपनी ज़मीन, अपनी संस्कृति और अपनी
पहचान नहीं भूल सकते, हमें फ़ख्र है
अपने खून पर और भारतीय होने पर। तकरीबन हर गाने में वो दूसरों के मुकाबले बेहतरीन
हैं। कभी उनकी मस्ती भाती है- सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालो कि
हम हैं अनाड़ी....छलिया मेरा नाम छलना मेरा काम, हिंदु-मुस्लिम-सिख-इसाई
सबको मेरा सलाम....। तो कभी चुहलबाज़ी - तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, मगर किसी और को चाहोगी
तो मुश्किल होगी... मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का, बोल राधा, बोल संगम होगा कि
नहीं....। और कभी गंभीरता - मेरे टूटे हुए दिल से, कोई तो आज ये पूछे कि
तेरा हाल क्या है...।
भले ही मैं दिलीप
कुमार को एक्टिंग के मामले उनसे ज्यादा भाव देता हूं लेकिन ज़िक्र जब ऋषिकेष
मुखर्जी की ‘अनाड़ी’(1959) या उनकी अपनी ‘आवारा’ और ‘जिस देश में गंगा बहती
है’(1961) का होता है तो
राजकपूर यकीनन टाप पर मिलते हैं। इसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर भी
मिला। वो भारत के चार्ली चैप्लिन थे। मगर यह इल्ज़ाम सरासर गलत है कि राजकपूर
सिर्फ़ अपने ही प्रोड्यूस फिल्मों में बेहतर परफार्म करते हैं। छलिया, अनाड़ी, तीसरी क़सम, दिल ही तो है, फिर सुबह होगी, परवरिश, शारदा, मैं नशे में हूं, दो जासूस वगैरह तमाम
फिल्में गवाह हैं कि राजकपूर अपने बैनर की बरसात, आवारा, जागते रहो, श्री 420, चोरी चोरी, जिस देश में गंगा बहती
है, संगम, और मेरा नाम जोकर की
परफारमेंस के मुकाबले बाहरी फिल्मों में भी पूरी तरह ईमानदार रहे।
राजकपूर ने कुल 17 फिल्में प्रोड्यूस की, जिनमें 10 डायरेक्ट कीं। बाहरी
डायरेक्टर्स पर राजकपूर भरोसा कभी निष्फल नहीं गया। प्रमुख हैं राधू करमाकर, अमित माइत्रा-शंभु
मित्रा और प्रकाश अरोड़ा,
जिन्होंने क्रमशः जिस देश में गंगा बहती है, जागते रहो और बूट
पालिश जैसी बेहतरीन फिल्में डायरेक्ट कीं। राजकपूर उस पीढ़ी के हैं जिन्होंने आज़ादी
से पहले की गुलामी और बाद में आज़ादी का दौर देखा। हर हिंदोस्तानी की तरह उनके मन
में मुल्क को विश्व में एक मजबूत जनतंत्र बनाने का सपना था। आर्थिक तरक्की के
साथ-साथ अच्छी सामाजिक सोच भी डेवलप करनी थी जो तमाम कुरीतियों, घिसी-पिटी परंपराओं से
दूर हो, पढ़ी-लिखी और
सभ्य कौम कहलाये। उन्होंने इसे सपने तक सीमित नहीं रखा बल्कि एक ज़िम्मेदार नागरिक
की तरह आग, आवारा, श्री 420, जिस देश में गंगा बहती
है, जागते रहो, बूट पालिश आदि में इसे
साकार करने की कोशिश की।
राजकपूर को नदियों से
बहुत प्यार था। उनका ख्याल था कि नदियों के किनारे ही सभ्यताओं और संस्कृति ने
जन्म लिया, पली-बढ़ी और ये
नदियां ही जन-जन को जोड़ने का काम बेहतर तरीके से कर सकती हैं। यही कारण था कि उनकी
तमाम फिल्मों में किसी न किसी कारण से नदी का ज़िक्र ज़रूर मिला। बाज फिल्मों के
शीर्षक में ही गंगा है। जैसे ‘जिस देश में
गंगा बहती है’ और ‘राम तेरी गंगा मैली हो
गयी’। ‘संगम’ का आखिरी दृश्य
इलाहाबाद में संगम तीरे ही ख़त्म हुआ था। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ का नायक तो नदी पर बांध बनाते दिखता है। मगर ‘संगम’ में पहले वाले राजकपूर
नहीं दिखे। व्यापारी हो गए। प्यार-मोहब्बत तो शुरू से ही उनकी फिल्मों की मजबूत
दीवार होती थी लेकिन अब ये सब कुछ हो गया। शायद इसकी वजह आटोबायग्राफीकल ‘मेरा नाम जोकर’ की भारी नाकामी थी।
बात तो यहां तक पहुंची कि ‘आवारा’ को ‘धरम-करम’ में उलट दिया। ‘आवारा’ का पापी
जन्म से नहीं
करम से बनता है, मगर ‘धरम-करम’ का करम से नहीं जनम से
है। यह क्या हो गया राज साहब को?
बाबी, सत्यम शिवम सुंदरम
और राम तेरी गंगा मैली हो गई में आवारा और श्री 420 का राजकपूर ढूंढ़े
नहीं मिला। इस बीच ‘प्रेम रोग’ में ज़रूर पहले जैसे
ईमानदार और ज़िम्मेदार राजकपूर दिखे। इसके लिए उन्हें बेस्ट डायरेक्टर का फिल्मफेयर
भी मिला। बतौर डायरेक्टर उन्हें संगम,
मेरा नाम जोकर और राम तेरी... के लिए भी फिल्मफेयर मिले। राजकपूर भारतीय
सिनेमा के बड़े ‘शोमैन’ थे। जिस शान से वो बड़े
स्तर पर सोचते थे, उसी शान से
खर्च भी करते थे। बड़ी सोच,
बड़ा बजट।
राजकपूर का फिल्म के
साथ-साथ उसकी नायिका में भी टोटल इन्वाल्वमेंट रहता था। नायिकाएं भी उनके पीछे आंख
मूंद कर चलती। नरगिस से उन्हें बेसाख्ता मोहब्बत थी। वो भी उन्हें उसी शिद्दत से
चाहती थीं। मगर राजकपूर की शादीशुदा जिंदगी की कीमत पर नहीं। एक दिन ‘मदर इंडिया’ के सेट पर सुनीलदत्त
ने एक हादसे से उन्हें बचाया। वो उन्हीं की हो गयीं। टूटे दिल राजकपूर को
वैजयंतीमाला ने ‘संगम’ के दौरान संभाला। खबर
उड़ी कि राजकपूर के घर में इसे लेकर कोहराम मच गया है। वैजयंतीमाला ने अपने फैमिली
डाक्टर चूनीलाल बाली से शादी कर ली। राजकपूर के पद्मिनी से इश्क के किस्से भी उड़े।
लेकिन पद्मिनी इंकार करती रही।
कुल मिला मैं ‘जिस देश में गंगा बहती
है’ तक के राजकपूर
की गिनती हिंदी सिनेमा के महानतम फिल्मकारों में करता हूं। उसके बाद वो महान शोमैन
हैं, जिसमें संयोग
से ‘मेरा नाम जोकर’ जैसा क्लासिक और ‘प्रेम रोग’ जैसी संवेदनशील फिल्म
भी शामिल है।
राज साब आज होते तो ९१वां
जन्मदिन मना रहे होते।
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-वीर विनोद
छाबड़ा 14-12-2014
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