-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे एक निकटवर्ती
रिश्तेदार हैं। हर साल वो अपने जन्मदिन पर देवी जागरण का आयोजन करते हैं और तत्पश्चात
विशाल भंडारा।
भंडारा दो किस्म का
होता है। एक - भिखारियों के लिए और दूसरा - आमजन के लिए।
दोपहर में भिखारी और
शाम को आमजन। भिखारियों की संख्या २५१ तक लिमिट है। और आमजन कोई रोक-टोक नही। पांच
सौ तक को वो स्वयं न्यौता दे आते हैं मगर सात सौ से ज्यादा ही खा जाते हैं। पूरा मोहल्ला
जुटता और उनके बाहर से आये रिश्तेदार भी।
मगर अगले साल से उन्होनें
भंडारा बंद करने का फैसला किया है।
वो इसकी वज़ह बताते
हैं कि - यों तो भिखारी हर गली मोहल्ले अस्पताल मदिर के आसपास ढेरों की संख्या में
मिलते हैं। मगर इन्हें संगठित करके ढोकर ले आना एक टेढ़ी खीर है। इसके लिए भिखारियों
के ठेकेदार का सहारा रहा।
प्रति भिखारी की दर
१००-१२५ रूपए के आसपास होती है। ठेकदार की कमीशन अलग। ठेकेदार भिखारी से भी कमीशन मारता
है।
ठेकेदार भिखारियों
की संख्या में भी हेरा-फेरी करता है। २५१ की जगह १५० लाएगा और बताएगा पूरे ढाई सौ।
कई भिखारियों को कपडे बदल कर दो बार दिखा कर संख्या पूरी करने का दावा करता है।
अब ये तो संभव है नहीं
कि प्रत्येक भिखारी का चेहरा याद रखा जाए या उनके नाखुन पर जल्दी न मिटने स्याही वाली
लगा दी जाए। और फिर कई तो शक्ल से भिखारी ही नहीं दिखते। अंग्रेजी में बात करते हैं।
घोटाला ही घोटाला। इसीलिए बंद कर दिया।
रिश्तेदार का फ़साना
सुनकर मुझे अपना बचपन याद आता है।
अपने शहर लखनऊ के नाका
हिंडोला एरिया के सेंट्रल बैंक के बगल से हैदर कैनाल नाला बहता है। उस नाले पर बने
पुल पर एक कतार में दर्जनों भिखारी सुबह से शाम तक बैठे मिल जाते थे। इन्हीं भिखारियों
में मेरे हाथ से रोटियां और दाल बटवाती थी मां। ऐसा मेरी ही नहीं अन्य माताएं भी करती
थीं।
ये सिलसिला कई साल
तक चला था। फिर मां ने बंद कर दिया। भिखारियों की भूख बढ़ने की वज़ह से। वो रोटी के साथ-साथ
साधिकार नक़द की भी इच्छा करने लगे। और हष्ट-पुष्ट नकली भिखारियों की बढ़ती संख्या की
वज़ह से भी।
पिछली नवरात्र पत्नी
की ख़ुशी के लिए मैं मंदिर चला गया। बहुत भीड़ थी। मैं बाहर ही खड़ा रहा।
देखा, एक सज्जन कार से उतरे।
उनके हाथ में एक बैग था और उसमें ढेर सारे आलू-पूड़ी के पैकेट। वो वहां भिखारियों में
बांटने के लिए लाये थे। मगर मार खाते-खाते बचे। 'पहले मैं, पहले मैं' के चक्कर में भिखारियों
की भीड़ ने अटैक कर दिया। उस भीड़ में भी रिक्शेवाले और ठेले-खोमचे वाले भी शामिल थे।
बड़ी मुश्किल से मैंने और मेरे जैसे कुछ अन्य लोगों ने उन्हें बचाया।
अभी कल ही की बात है।
सुबह-सुबह कल्लू प्रोविजन स्टोर जाना पड़ा।
कल्लू एक भिखारी को
डांट रहा था - रोज़ सुबह सुबह बोहनी के टाइम क्यों चले आते हो?
भिखारी पूरे अधिकार
से कह रहा था - अरे भाई, हमें भी कोई शौक नहीं है कि सुबह-सुबह तुम्हारी सूरत देख कर
अपनी बोहनी ख़राब करें। मज़बूरी है कि चले आते हैं इसलिए कि सबसे पहले तुम्हारी ही दुकान
खुलती है। कित्ती बार तो कहा है। महीना बांध
क्यों नहीं देते ?
-वीर विनोद छाबड़ा ७५०५६६३६२६
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