-वीर विनोद
छाबड़ा
आज 92 साल पूरे करके 93वें दाखिल हो रहे
दिलीप कुमार की फिल्मी ज़िंदगी का हर सफ़ा निराला है, अद्भुत भी। नायिकाओं
के बारे में खासतौर पर। उनके दौर की नायिकाएं दिलीप कुमार के साथ काम करने के लिये
तड़पा करती थीं। कई सफल हुईं और कई नाकाम। कुछ नायिकाओं के साथ उनकी दोस्ती मोहब्बत
की दास्तान बनी, कुछ के साथ
लुक्का-झुप्पी चली और कुछ के साथ लडाई-झगड़े हुए।
मधुबाला का मामला तो
कचेहरी तक जा पहंुचा था।
उनकी शुरू की नायिकाओं
में कामिनी कौशल हुआ करती थीं। दिलीप ने उन्हें ‘नीचा नगर’ (1946) में देखा और दिल दे
बैठे। उन दिनों कामिनी हिट नायिका थी और दिलीप की तीन फिल्में फ्लाप हो चुकी थीं।
रमेश सहगल की ‘शहीद’ (1948) में संयोग से एक साथ
काम करने का मौका मिला। कामिनी को भी युवा दिलीप और उनका रोमांटिक अंदाज भा गया।
दोनों दीवानावार प्यार करने लगे।
कामिनी शादीशुदा थी। उनके पति सूद साहब को ये कतई
पसंद नहीं था। वो दोनों का पीछा किया करते और अकेले रहने का कोई भी मौका नहीं देते
थे। लेकिन बाबजूद इसके शाट के बहाने कोई न कोई रास्ता तलाश लेते। कभी मचान और कभी
टीले की चोटी। ‘शहीद’ सुपर हिट हुई। साथ ही
दिलीप-कामिनी की जोड़ी भी। नदिया के पार, शबनम और आरजू तक दोनों का रोमांस खूब चला। लेकिन एक सुबह
दोनों ने पाया कि ये ठीक नहीं है। इसका कोई भविष्य नहीं है। कामिनी की शादी-शुदा
जिं़दगी में आग लग जायेगी। और दिलीप ये तोहमत दिल पर लिये समाज को मुंह नहीं दिखा
पायेंगे। लिहाज़ा दोनों अलग हो गये।
दिलीप कुमार ने नरगिस
के साथ सात फिल्में कीं - मेला,
अंदाज, जोगन, बाबुल, दीदार, अनोखा प्यार और हलचल।
शुरू में नरगिस-दिलीप को लेकर कुछ अफ़वाहें उड़ी मगर वहां कुछ था नहीं। वो दोनों
सिर्फ़ दोस्त थे। नरगिस तो राजकपूर के साथ थीं। यह बात महबूब की अंदाज़(1949) में ज़ाहिर हो चुकी थी।
इसमें दिलीप-नरगिस-राजकपूर का प्रेम त्रिकोण था। नरगिस ने राजकपूर को दिल दिया। और
दिलीप का किरदार दर्द लिए दुनिया से कूच कर गया।
दिलीप के दिल को अगला
पड़ाव मधुबाला की दहलीज़ पर मिला। दोनों ने साथ साथ तराना, संगदिल और अमर कर चुके
थे। ‘नया दौर’(1957) फ्लोर पर थी। मधु भी
जल्दी ही दिलीप के दिल के दरवाजे़ पर दस्तक देने लगी। दोनों बेसाख्ता मोहब्बत में
डूब गये। परंतु मधु के पिता अताउल्लाह खान इस रिश्ते के सख़्त खि़लाफ़ थे। उन्हें डर
था कि अगर कमाऊ चिड़िया हाथ से उड़ गयी तो दर्जन भर लोगों का परिवार कौन चलायेगा? इसी मुद्दे पर मधु
इमोशनल हो जाती और दिलीप कुमार से दूर जाने की कोशिश करती। लेकिन बेमुरुव्वत
मोहब्बत दूर होने न देती। मधु की हालत न जीने की थी और न मरने की। दिलीप भी कुछ
ऐसी ही परेशानी महसूस करते।
बी0आर0 चोपड़ा से ‘नया दौर’ की शूटिंग के अनुबंध
को लेकर अताउल्लाह खान का झगड़ा हुआ। मामला अदालत तक जा पहंचा। दिलीप ने बी0आर0 चोपड़ा के पक्ष में
गवाही दी।बताते हैं भरी अदालत ने दिलीप ने ऐलान किया कि वो मधुबाला से मोहब्बत
करते हैं। नतीजा चोपड़ा के पक्ष में गया। असर यह हुआ कि मधुबाला ‘नया दौर’ से बाहर हो गयी और साथ
ही दिलीप की ज़िंदगी से भी। मधु ने किसी से कहा - ‘‘आपकी चाहत यहां थी।
मोहब्बत यहां थी। फिर आपने ऐसा क्यों किया? चोपड़ा साहब का साथ दे दिया।’’ मगर दिलीप दिल से नहीं
गये।
दिलीप भी मधु को नहीं भुला पाये। निजी जिंदगी प्रोफेशनल रिश्तों पर असर नहीं
डाले। इस बहाने ‘दोनों
मुगल-ए-आज़म’ करते रहे।
मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये...इस गाने में मधुबाला ने मानों दिल का हाल कह
डाला। एक और सीन था जिसमें दिलीप कुमार एक पंख मधुबाला के चेहरे से छुआ कर मोहब्बत
का इज़हार करते हैं। यह तस्वीर विश्व प्रसिद्ध लव सीन में शुमार की गयी।
मधु के दिल में एक
उम्मीद की किरण भी थी। मधु ने दिलीप कुमार को पैगाम भिजवाया - साहेब मैं आपसे शादी
करना चाहती हूं। बस एक बार आप अब्बू को सॉरी कह दें। अब्बू आपको गले लगा लेगें।
सारे शिकवे गिले जाते रहेंगे। घर के गोशे-गोशे में शहनाई गूंज उठेगी। आप सेहरा
बांध कर आयेंगे। मैं तो कबसे कबूल कहने को बेताब हूं।’’ मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
न दिलीप पीछे हटे और न मधु। ये नामुराद दिल होता ही ऐसा है। बात-बात पर टूटता है
और ज़िद्दी इतना कि पत्थर पिघल जाये मगर वो नहीं। दिलीप ने जब 1966 में सायरा बानो से
शादी की तो मधुबाला ने कहा- साहब मेरे हिस्से में थे ही नहीं। जिसका था वो ले गयी।
23 फरवरी1969 को जब मधु तमाम
दुख-दर्द और हसरतें लिये इस दुनिया से रुखसत हुईं तो दिलीप शूटिंग के सिलसिले में
बंबई में नहीं थे। जब लौटे तो सीधे मधुबाला की कब्र पर गये और...।
दिलीप के रिसते घावों
पर वैजयंती माला मरहम लगाते-लगाते उनके दिल पर काविज़ हो गयी। तब तक वैजयंती दिलीप
के साथ पैगाम, देवदास और
मधुमती कर चुकी थी। अफवाह थी दोनों के दिल काफ़ी करीब आ चुके हैं। इन अफवाहों को तब
दम मिला जब ‘नया दौर’ से मधु बाहर हो गयी और
दिलीप के कहने पर वैजयंती माला फिल्म के अंदर ही नहीं आ गयी बल्कि दिलीप कुमार के
दिल में पूरी तरह दाखिल भी हो गयी।
‘नया दौर’ की बेमिसाल कामयाबी के
बाद दोनों के रिश्तों मोहर लगा दी। पेंग आसमान छूने लगी। दिलीप की होम प्रोडक्शन ‘गंगा जमुना’(1961) भी वैजयंती की झोली
में जा गिरी। मगर जाने क्या हुआ कि दोनों के दिलों की दूरी बढ़ने लगी। दिलीप की
मुखालफ़त के बावजूद वैजयंती ने राजकपूर की पेशकश ’संगम’(1964) कबूल ली। वो सारा वक्त
उधर देने लगी। इसमें दिलीप की ‘लीडर’(1964) को दिया वक़्त भी
शामिल था। नतीजा यह हुआ कि ‘लीडर’ को अपेक्षित कामयाबी
नहीं मिली जबकि ‘संगम’ सुपर हिट हुई। इसके
साथ ही दिलीप-वैजयंतीमाला लव स्टोरी का दुखद ‘दि एंड’ हो गया।
त्रासदी तो यह हुई कि
वैजयंती को लेकर राजकपूर के घर में भी आग लगी। वैजयंती ने सबको हैरान करते हुए
अपने फैमिली डाक्टर चूनीलाल बाली से शादी कर ली। इधर 1966 में टूटे दिल दिलीप
कुमार ने अपने से आधी उम्र वाली 22 साल की
ब्यूटी क्वीन सायरा बानो से शादी कर ली। बाद में सायरा के साथ दिलीप ने बैराग, गोपी, सगीना और दूसरी पारी
में ‘दुनिया’(1984) की।
हरनामसिंह रवैल की‘संघर्ष’(1968) साईन करके साधना ने
दिलीप कुमार के साथ के काम करने की दिली ख्वाईश पूरी की। मगर पहले ही दिन एक शाट
की शूटिंग को लेकर विवाद हो गया। नतीजा साधना बाहर और वैजयंती माला अंदर। उन दिनों
का सबसे बड़ा तहलका था यह। दो बिछुड़े दिल साथ साथ? उधर ‘राम और श्याम’(1967) के लिये भी वैजयंती ने
दिलीप के साथ हां कर दी। लेकिन राम जाने क्या हुआ कि ‘राम और श्याम’ के सेट पर निर्देशक से
विवाद के कारण वैजयंती बाहर हो गयी। और ‘दिल दिया दर्द लिया’(1965) की वहीदा आ गयी। बताया जाता है कि इसके पीछे दिलीप का हाथ
था। लेकिन रवैल ने ‘संघर्ष’ को बचा लिया। ‘मेरे पास आओ नज़र तो
बचाओ...’ गाने का
फिल्मांकन देखने वालों का कहना था कि दोनों ने बड़ी शिद्दत से लव सीन किये। इनके
पुराने इश्क की याद ताज़ा हो आई।
वहीदा ने दिलीप के साथ
‘आदमी’(1968) की। जब दिलीप ने अपने
अभिनय की दूसरी पारी शुरू की तो यश चोपड़ा की ‘मशाल’(1984) में उनके साथ एक बार फिर
वहीदा ही थी।
बताते हैं दिलीप कुमार
की फिल्म में नायिका उनकी पसंद से ही रखी जाती थी। वो फिल्म की कहानी के अनुसार तय
करते थे कि कौन सी नायिका उनको सूट करगी। मगर इसके पीछे डर यह नहीं होता था कि
नायिका उन पर भारी न पड़ जाये। मीना कुमारी के साथ उनकी फुटपाथ, यहूदी, आज़ाद और कोहिनूर में
उनकी जोड़ी पसंद की गयी। निम्मी के साथ भी उड़न खटोला, दीदार, अमर, आन और दाग में उनकी
जोड़ी ने दर्शकों को खूब लुभाया। बीना राय ‘इंसानियत’(1955)
में थी। मगर इस फिल्म में वो दिलीप की नहीं देवानंद की नायिका थी। आन(1953) में महबूब को अपनी
पसंद नादिरा के लिये दिलीप को मनाने में मेहनत करनी पड़ी। बंगाल की सुचित्रा सेन को
देवदास(1955) की पारो के
लिये दिलीप कुमार बिमल राय को न नहीं कह सके। नूतन और नंदा की दिलीप कुमार के साथ
नायिका बनने की ख्वाहिश दिलीप की दूसरी पारी में पूरी हुई। सुभाष घई की ‘कर्मा’(1986) और बी0 गोपाल की ‘कानून अपना अपना’(1989) में नूतन को और बी0आर0 चोपड़ा की ’मजदूर’(1983) में नंदा को यह मौका
मिला। राखी को ‘शक्ति’(1982)में और रेखा की हसरत
देर से रिलीज़ ‘किला’(1998) में पूरी हुई। आशा
पारेख के अरमां पूरे होते-होते रह गये। नासिर हुसैन की ‘जबरदस्त’(1985) में वो दिलीप की पत्नी
थीं। मगर शूटिंग के दौरान जब दिलीप कुमार ने सामने खड़े कादिर खान को अपनी ही कापी
करते हुए पाया तो वह बिगड़ गये। दिलीप कादिर को बाहर करने पर अड़े रहे और नासिर
उन्हें रखने पर। नतीजा दिलीप खुद ही बाहर हो गये। और संजीव कुमार भीतर आ गये।
दिलीप कुमार की कई
नायिकाएं देविका रानी, नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी, बीना राय, सुचित्रा सेन, नूतन और नंदा अब इस
दुनिया में नहीं हैं। उन दिनों मोहब्बत के फसाने जमीं तक नहीं रहते थे बल्कि
अफसानों की शक्ल अख्तियार करते थे। दुआ है कि खुदा उन्हें उम्रदराज़ करे।
-वीर विनोद
छाबड़ा 11-12-2014
No comments:
Post a Comment