-वीर विनोद
छाबड़ा
वो महिला कपडे की दुकान में घुसी।
दुकानदार गुरबचन सिंह जी ने स्वागत किया - आओ बहन जी। बैठो… उधर नहीं
इधर बैठो… यहां ऐ.सी. की ठंडी-ठंडी सोणी हवा मिलेगी…हां हुक्म
करो जी। क्या दिखाऊं। सूट, साडी, लहंगा… ओये छिंदे कुछ ठंडा-शण्डा लेकर आ भाई।
नहीं नहीं…मुझे कुछ ब्लाउज पीस चाहिए
- महिला ने तनिक झेंपते हुए कहा।
कोई नहीं जी। ओ तुस्सी उधर साड़ी-ब्लाउज कार्नर चले जाओ… ओ छोटे
बहन जी दी सेवा कर छेती - गुरबचन सिंह जी बेहद
विनम्रतापूर्वक बोले।
छोटे ने बहनजी को हाथ जोड़ नमस्ते की। आदरपूर्वक बैठाया। फिर
एक नहीं दर्जनों पीस दिखाए। कार्नर में रखे सारे शेल्फ पलटवा दिए।
पूरे-पूरे पैंतालीस मिनट खा गयीं वो महिला। मगर उस महिला को
कुछ भी पसंद नहीं आया। किसी का रंग उसके दिमाग में बैठे रंग से मेल नही खा रहा तो
किसी की क्वालिटी ख़राब। किसी की शेड फ़र्क। और किसी की दाम ज्यादा।
एक पीस तो ऐसा था जिसे उनकी पड़ोसन कल ही खरीद कर लायी है। उसे तो कतई नहीं खरीदना है।
छोटे का दिमाग ख़राब हो गया। अब घंटा भर लगेगा। सारे पीस तह कर
सही जगह पर लगाने में।
लेकिन गुरबचन सिंह जी का दिमाग कतई गर्म नहीं हुआ। बर्फ की तरह
ठंडा रहा। खड़े होकर महिला को विदा किया - आप आती रहा करें जी। आप ही की दुकान है। पैसों
की फ़िकर तो कभी करना न जी। बीस-तीस हज़ार तक का समान तो जब चाहो ले लो जी। पैसा किधर
नहीं जाता। आ जायेगा देर सवेर।
उस महिला न कहा - जी शुक्रिया। वाहे गुरु जी की कृपा से पैसे
की कमी नहीं है। बस यूं ही पसंद नहीं आया। दिल की चीज़ मिली नहीं।
छोटे को हैरानी हुई - बाऊ जी, आप कैसे इतने ठंडे रहते हो? मुझसे
तो बिलकुल बरदाश्त नहीं होता जी। मेरा बस चले तो ऐसों को आइंदा दुकान में घुसने न दूं।
गुरबचन सिंह जी बोले - छोटे, अभी तू छोटा है। तभी तो तू पिछले बीस साल से सेल्समेन है। मुझे देख सेल्समेन से
मैनेजर और मैनेजर से पार्टनर। मीठी वाणी का दम है ये। और मेरा एक्सपीरियंस कहता है
वो लेडी फिर आएगी। ज़रूर आएगी। क्यूंकि, वाहे
गुरू जी की सौं, पूरी मार्किट में मुझ जैसा मिट्ठा
बोलने वाला दूजा नहीं मिलना।
और वाकई! वो महिला पौने घंटे बाद पलट कर आई। और बोली - दे ही
दीजिये। अभी एक ही चाहिए। हालांकि दिल वाली चीज़ तो नहीं मिली। जैसा मैं चाहती हूं उससे
थोड़ा फर्क शेड है। चला लूंगी किसी तरह।
गुरबचन जी ने मुस्कुरा कर अभिवादन किया और छोटे ने फौरन उनकी
पसंद का पीस पैक करके दे दिया। गुरबचन जी ने वही चिरपरिचित अंदाज़ में मुस्कुरा कर दोबारा
आने का अनुरोध किया। जवाब ने उस महिला ने आश्वासन दिया कि जरूर आएगी वो। अपनी दुकान
छोड़ कर पराई दुकान क्यों जाऊंगी भला।
गुरबचन सिंह जी की मीठी वाणी ने अनगिनित परमानेंट ग्राहक बनाये
हैं।
ग्राहक भी ये सोच कर आते हैं- काके क्लॉथ हाउस थोड़ा महंगा ज़रूर
है, लेकिन क्वालिटी बहुत अच्छी है।
सामान भले न लो। मगर फिर भी मुस्कुरा कर विदा करते हैं। चाय-पानी अलग से मिलता है।
मिट्ठा तो खैर बोलते ही हैं। ये कोई कम है। आजकल के ज़माने में दो मिट्ठे बोल बड़े भले
लगते हैं कानों को।
बड़े-बुज़ुर्ग सही कह गए हैं - सच बोल के जग जीतो और कौड़ा (कड़वा)
बोल कर सौ दुश्मन बनाओ।
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-वीर विनोद
छाबड़ा २३-१२-२०१४ / मो.७५०५६६३६२६
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