-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह किसी ने
झिंझोड़ कर उठाया। गर्मागर्म चाय और उतना ही गर्म समोसा। रात भर के भूखे थे। एक की जगह
तीन समोसे खाए। कुल्हड़ वाली कड़क चाय का ज़ायका ही निराला था। जब तक मिलती रही पीते ही
रहे।
और हां वो पाजी दलजीत
सिंह। सुबह-सुबह हमसे पहले उठ गया। नहा-धोकर और सजधज कर बैठा मुस्कुरा रहा था। तय प्रोग्राम
के अनुसार हममें से कोई नहीं बोला। फिर मेरी बगल में बैठ कर कोहनी मारने लगा। उसकी
आंखों और चेहरे पर वही भोलापन था जो शरारत करके कान पकड़ने वाले बच्चे के चेहरे पर होता
है। मुझे हंसी आ गयी। बाकी को भी। हम सबने उसकी प्यार से धुनाई की। उसे बताया कल रात
तेरे हम पे क्या गुज़री।
तभी राजनारायण आया।
हमने उसे बधाई दी। लेकिन थैंक्यू होने की बजाये वो नाराज़ निकला। उन्नाव कोई बड़ी जगह
तो थी नहीं। रात थाने की घटना की भनक पिताजी को हो गयी थी। हाई-अलर्ट जारी कर वो खसक
लिया।
अचानक ही लगा कि कई
जोड़ी आंखें हमें घूर रहीं हैं। हमारे सर शर्मिंगी से झुक गए।
दोपहर दो बजे रवानगी
हुई। मगर इससे पहले हमें ठंडाई पिलाई गयी। ठंडी-ठंडी। भांग मिली हुई। यह बात हमें मालूम
नहीं थी। मैंने तो पहली-पहली बार पी। दिमाग पर चढ़ गयी। मज़ा इतना ज्यादा आया कि पीते
ही गए थे। रुकने पर बामुश्किल माने थे।
अचानक नामालूम किसी
बात पर हंसी शुरू हुई। बार- बार सब हमें चुप रहने को कह रहे थे। मगर हम हंसते ही जा
रहे थे। तंग आकर एक जगह बस रुकवाई गई और हम पांचों को उतार दिया। कोई सुनसान जगह थी।
हमें तब भी चिंता नहीं
हुई - उतार दें । भूतनी वाले समझते क्या हैं? अरे बहुत दम है हममें।
दौड़ते हुए पैदल भी जा सकते हैं।
मगर थोड़ी देर में ही
पता चल गया कि कितना दम है हममें। जेबें कल थाने में हालांकि खाली हो चुकीं थीं। लेकिन
शुक्र था कि दलजीत पैंट की चोरजेब में पांच रूपए थे। उन दिनों के हिसाब से ठीक रकम
थी घर तक पहुंचने लायक। बस सरोजिनीनगर दिख जाए।
टाइम देखा तो चार बजे
थे। सूरज हालांकि ढलान पर था मगर गर्मी शिद्द्त की। तिस पर मई का महीना। थोड़ी-थोड़ी
दूरी पर चार-पांच घने पेड़ मिल जाते। थोड़ी देर सुस्ता लेते। प्यास बहुत लगने लगी। गला
सूखने लगा। सड़क किनारे जो भी गांव मिला और रहट देखी। प्यास बुझा ली।
अब भूख भी लगने लगी।
अब हम पूरी तरह निढाल हो चुके थे। लगा बस अब गिर ही जाएंगे।
तभी दुकानों का एक
छोटा सा झुरमुट दिखा। पता चला यह सरोजिनी नगर है। जान में जान आई। और कोलंबस को नई
दुनिया मिलने जितनी ख़ुशी हुई। मतलब ये कि हम लखनऊ पहुंच गए। यहां से लखनऊ रेलवे स्टेशन
बस १२-१३ किलोमीटर दूर। हम सब उसी के आस पास रहते थे।
एक ढाबे पर हमने जम
कर पानी पिया और बजट के दृष्टिगत चाय के साथ एक समोसा और एक बालूशाही भकोसी। ढाबेवाले
ने बताया सिटी बस आती ही होगी। सिटी बस से स्टेशन तक २५ या ३० पैसे किराया था। सांझ
होने को थी। तभी बस आ गयी।
आईंदा से कान पकड़े
उस बारात में नहीं जायेंगे जिसमें दलजीत होगा। अब यह बात दूसरी है कि इस कसम पर कभी
क़ायम नहीं रह पाये।
अब हम पांचो में दो
तो ऊपर जा चुके हैं। इसमें दलजीत भी है। १९८४ के दंगों में किसी ज़ालिम ने इस प्यारे
आदमी को छीन। एक का पता नहीं और एक अशोक मिलता है कभी-कभी। याद कर खूब हंसते हैं उस
बारात, दलजीत और ससुरी भांग को।
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-वीर विनोद छाबड़ा (समाप्त)
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