Saturday, March 7, 2015

मैंने कब रोका?

-वीर विनोद छाबड़ा

सुबह ११.३० का समय। अभी-अभी एक बैंक वाले दोस्त का फ़ोन आया। बोला - ड्यूटी पर हूं। शाम को मिलने आऊंगा।

मैं चौंका - अरे वाह! बैंक खुला है। दो चार ज़रूरी काम हैं निपटा लूं। 

आनन फानन में तैयार हुआ। स्कूटर उठाई। इतने में मेमसाहब ने पीछे से आवाज़ लगाई। जो मैं नहीं चाहता था वही बात हो गई।

मैं ठहर गया। मेमसाहब ने पूछा - कहां जा रहे हो?

मैंने कहा - बैंक जा रहा हूं? उन्होंने हैरानी जताई - आज बैंकें खुली हैं क्या
मैंने कहा - हां।

उन्होंने मानवाधिकार आयोग के सदस्य के अंदाज़ से - क्यों खुली हैं? उनकी होली नहीं है क्या? सरकारी दफ्तर तो बंद हैं।

मैंने कहा - उनका छुट्टी का हिसाब-किताब अलग किस्म का है।

वही मानवाधिकार आयोग के सदस्य वाला अंदाज़  - क्यों वो इंसान नहीं हैं?

मैंने कहा - हैं पर उनका वेतन सिस्टम और सर्विस कंडीशन फर्क हैं।
उन्होंने पूछा - क्या फर्क है।

मैंने घड़ी देखी। टाइम बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। मैंने कहा - अभी लौट कर आता हूं, तब बताऊंगा। आज सैटरडे है। एक बजे बैंक बंद हो जायेगा।

उन्होंने शिकायत की - अच्छा यह बैंक सटरडे को हाफ डे क्यों करते हैं? बच्चे हैं क्या? हाफ डे!

मैंने विनती की - भागवान, जाने दो अभी। बाद में बताऊंगा।

उन्होंने आज्ञा देने वाले अंदाज़ में कहा - ठीक है, जाओ। मैंने कोई मना तो किया नहीं। लेकिन बैंक करने क्या जा रहे हो?

मैंने कहा - कुछ पैसा निकलवाना है।

उन्होंने हैरानी जताई - इत्ती जल्दी। अभी एक हफ्ते पहले ही निकलवाए थे। खत्म हो गए? कहां खर्च कर दिए?

मैंने कहा - अभी बताने बैठ गया तो बंद हो जायेगा बैंक। टाइम हो चला है। लौट कर सब बताता हूं?

उन्होंने आर्डर स्वरूप कहा - एटीएम से क्यों नहीं निकलवा लेते?

मैंने कहा - एटीएम कार्ड एक्सपायर हो चुका है।

उन्हें हैरानी होती है - यह एटीएम कार्ड भी एक्सपायर होते हैं क्या?
मैंने कहा - हां, भाई हां।

उन्होंने फिर एक प्रश्न दागा - तो दूसरा क्यों नहीं बनवा लेते? सारा दिन निठल्लों की तरह फेस बुक पर चिपके रहते हो।


मैंने आत्मसमर्पण किया - बनवा लूंगा। अब जाने दो। सिर्फ पंद्रह मिनट बाकी हैं। 

उन्होंने अहसान जताया - तो जाओ, मैंने कोई रास्ता रोका है क्या?

मैंने अगले ही क्षण स्कूटर स्टार्ट किया। एक्सीलेटर बढ़ाया ही था कि उन्होंने अपनी पुलिसिया आदत के अनुसार प्रश्न दागा - तो कब वापस आओगे?

मैं झुंझुला उठा - अरे भाई पहले जाने तो दो।

उन्होंने हैरानी जताई - अरे मैंने मना किया है क्या?

मैं चला ही था कि पीछे से बड़बड़ाना सुनाई दिया - इनका तो सारा खानदान ही ऐसा ही है। किसी के पास बात करने की फुरसत तक नहीं है।

आपके साथ भी ऐसा ही होता हैं? या मैं दुनिया का अकेला दुखी इंसान हूं?
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-वीर विनोद छाबड़ा ०७-०३-२०१५

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