-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने चश्मा १९६१ में धारण किया था। उम्र ११ ग्यारह साल और कक्षा - छह। पिताजी
बताते थे कि उन्हें भी इसी उम्र में और इसी क्लास में चश्मा लगा था। मुझे तसल्ली हुई
कि कोई अनहोनी नहीं हुई।
बहरहाल, जैसे ही मैंने चश्मा लगाया, एक नई दुनिया दिखी। एक अरसे से दुनिया धुंधली दिख रही थी। स्कूल के ब्लैक बोर्ड
पर लिखी इबारत पढ़ने में दिक्कत होती थी।
कई साल बाद मैंने नवभारत टाइम्स लखनऊ में इसी चश्मे पर एक कहानी भी लिखी थी। जिसमें
मैंने बताया था कि एक ज़हीन बच्चे को इसलिए कम नंबर मिले क्योंकि उसे ब्लैक बोर्ड पर
साफ़ साफ़ दिखाना बंद हो गया। बच्चे ने शर्म के कारण माता-पिता से बताया नही। लेकिन उसके
शिक्षक ने यह बारीकी पकड़ ली। उसके माता-पिता को स्कूल में बुला कर बात की। माता-पिता
मानने के लिए तैयार नहीं थे - हाय! लोग क्या कहेंगे? इतनी छोटी सी उम्र में चश्मा? आगे क्या होगा?
लेकिन मास्टरजी ने अभिभावक को मना लिया। बच्चे को चश्मा लगा। और वो फिर से फर्स्ट
आने लगा।
जब मैंने कम उम्र में चश्मा लगाया तो मेरे माता पिता को तो कोई उलझन नहीं हुई हां
समाज और स्कूल में हाहाकार मच गया।
अक्सर कमेंट्स सुनने को मिलते - ओ,
चश्मुद्दीन। सबसे ख़राब तब लगा जब एक टीचर ने भी मुझे चश्मुद्दीन
कहा और किसी गलती पर पिटाई भी कर दी। इससे मेरा चश्मा टूट गया। विद्यांत कॉलेज में
मेरे मैथ वाले मास्टर जीडी बाबू पहले चश्मा उतरवाते थे और पिटाई करते थे। एक दिन पिटाई
करते हुए उनका ही पतले फ्रेम वाला चश्मा टूट गया। इस पर कुछ लड़के हंस दिए। जीडी बाबू
ने गुस्से में आकर उनकी भी ज़बरदस्त धुनाई कर दी।
अक्सर दबंग लड़के मेरा चश्मा मुझसे छीन लेते। मैं उनसे वापस लेने के लिए भिड़ भी
लेता। इस लप्पा -झप्पी में चश्मा टूट कर ही मानता।
चूंकि मैं क्रिकेट खेलने का शौक़ीन हुआ करता था इसलिए आये दिन चश्मा टूटता था। घर में डांट भी खूब
पड़ती। नाते रिश्तेदारों ने भी सुना तो बोले -हाय हाय! अभी से हाल है तो आगे क्या होगा।? डॉक्टरी और इंजीनियरिंग
में तो एडमिशन मिल नहीं सकता। नौकरी भी अच्छी नहीं मिलेगी और छोकरी भी।
जब मैं यूनिवर्सिटी में था एक दिन मैंने सुना कि लड़की मेरी मित्र से पूछ रही थी
- आज तेरा चश्मुद्दीन नहीं दिखा?
उन दिनों चश्मे का नंबर भी बड़ी तेज़ी से बढ़ा। फिर २३-२४ की उम्र आते-आते स्थिर हो
गया।
नंबर इतना ज्यादा हो गया कि फ्रेम भी मोटा लेना पड़ा। चश्मे का वज़न बढ़ गया। चश्मा
बनाने वाले को भी खासी दिक्कत होती थी।
२००४ में जाकर मेरा चश्मा उतरा। उस वक़्त माइनस १२-१३ की रोशनी हुआ करती थी। महसूस
हुआ कि मुझे दिखना कम हो रहा है। टेस्ट कराने डॉक्टर के पास गया तो पता चला कि दोनों
आंख में मोतिया बिंदु लटक रहा है और फ़ौरन की ऑपरेशन की दरकार है। मैंने डॉक्टर के सलाह
पर अमल किया।
ऑपरेशन के बाद बाहर निकला तो एक नयी दुनिया को इंतज़ार करते पाया। सब कुछ बड़ा साफ़
सुथरा और चमकता हुआ।
लेकिन विचित्र बात यह हुई कि दूरदृष्टि तो ठीक हो गयी, मगर नज़दीक के लिए डॉक्टर ने +१.२५ का चश्मा रिकमेंड कर दिया।
जब तब उतारना-चढ़ाना होता है। जिस दिन चश्मा जेब में रखना भूल गए तो बड़ी उलझन होती है।
इसलिये तीन सेट बनवाये। लेकिन आजकल एक ही है। एक चोरी हो गया और एक बंदर ले गये।
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-वीर विनोद छाबड़ा 23-03-2015
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