-वीर विनोद छाबड़ा
ये रूमाल भी अजीब शै है जनाब। इसके बिना काम नहीं चलता। बड़ी फ़ज़ीहत होती इसके बिना।
आज सुबह घर से निकलने को हुआ। पहले तो खुद तलाशा। नहीं मिला। यह नामाकूल ज़रूर किसी
कपडे के गट्ठर के नीचे दबा होगा या किसी कपडे के साथ चिपक कर चला गया। अपने अटैची में
भी झांका। वहां भी नदारद। ना चाहते हुए मेमसाब को गुहार लगानी पड़ी - मेरे रुमाल कहां
हैं? एक भी नहीं दिख रहा।
दिवाली की ६० मिनट वाली चटाई फट पड़ी -मुझसे पूछ कर लाये थे? अपने कपडे खुद क्यों
नहीं संभाल रखते? कल रूमाल किसने धोये थे? खुद न? सूखने किसने डाले? खुद न? तो फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हो?
मैंने कभी तुम्हारे रूमालों हिसाब रखा क्या? हर महीने दर्जन भर
खरीदते हो तो जाते कहां हैं?
मैं समझ गया कि बिच्छू के बिल में हाथ डाल दिया है। मदद तो करेंगी नहीं, उल्टा उलटे-पुल्टे
सवाल पूछ कर ब्लडप्रेशर ही बढ़ाएगी। ऐसे मौके पर पत्नी से हारने का भी सुख अलग है। बेहतर
है बाज़ार से नये खरीद लूं। ऐसा एक बार नहीं दर्जनों बार हो चुका है। हर महीने छह रूमाल खरीदता हूं। महीना खत्म होते न होते एक भी नहीं
दिखता। छोटा आइटम है। बह जाते हैं। मुझे याद है मेरे पडोसी का सीवर चोक हो गया था।
सफाई कराई तो दर्जनों रुमाल फंसे हुए निकले।
कुछ अरसा पहले बंदरों को ले जाते देखा था। न जाने यह क्या करते होंगे रूमालों का? बहरहाल तबसे कमरे में
सुखाने लगा।
लेकिन गायब होने का सिलसिला रुका नहीं। तमाम पैंटों की जेबें भी झाड़ डालीं। वहां
भी नहीं दिखते। यों रुमालों से अपनी दोस्ती बड़ी प्यारी है। जब छोटे होते थे तो अक्सर
नाक बहा करती थी। मां स्कूल जाते वक़्त एक अदद जेब में ठूंस देती थी। लेकिन मुझे याद
है कि कमीज़ से नाक पोंछते हुए लौटता था। तब मां
बक्सुए से रुमाल जेब से टांग दिया करती थी।
ये मां भी एक अजीब शै है इस दुनिया में। बहुत प्यार करने वाली इतना। फ़्लैश बैक
में जब भी जाओ बाट निहारती मिलेगी। और यह एक पत्नी है हर कदम पर रास्ता रोके मिलेगी।
शादी के एक दो-महीने तक तो दफ़तर जाने से पहले सब आइटम चेक करेगी - सबसे पहले रुमाल।
फिर पर्स, कंघी वगैरह।
उस पुराने ज़माने में साल में एक मज़ेदार इवेंट होता था। बड़ी बहन की कुकिंग के एग्जाम
में ढेर सामान ढोने के लिए मेरी बुकिंग रहती। उसमें दर्जन भर रेशमी रुमाल भी होते थे।
जब बहन एग्जाम वापस आती तो एक दो ही बचते। आधा दर्जन तो एग्जाम टीचर रख लेती। एक-दो
प्रिंसिपल।
याद पड़ता है पुरानी फिल्मों में भी रुमाल का महत्व रहता था। १९६१ में रेशमी रुमाल
नाम से एक फिल्म भी आई थी। इसमें मनोज कुमार और शकीला हीरो-हीरोइन थे। राजेश खन्ना
की अनुरोध में एक खूबसूरत गाना था - आती जाती खूबसूरत सड़कों पे इतफ़ाक से.…इसी में आगे था - किस
कदर यह हंसी ख्याल मिला है राह में,
एक रेशमी रुमाल मिला है जो गिराया है किसी ने जानकर, जिसका हो ले जाए वो
पहचान कर, वरना मैं रख लूंगा उसको अपना मान कर, किसी हुस्न वाले की निशानी मान कर...
मैं आज तक नहीं समझ सका कि यह गिरने वाला रुमाल रेशमी ही क्यों है? नायिका का ही क्यों
होता है? नायक के ही हत्थे क्यों चढ़ता है?
याद आ रहा जासूसी फिल्मों में रहस्य का पर्दाफाश करने में रुमाल
की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
एक ज़माना में हम गली-गली भटके थे कि शायद किसी हसीना का रुमाल मिल जाए या किसी
हसीना का रेशमी रुमाल ही बन जाएं या रुमाल पर तकरार हो जाए । लेकिन अपना नसीब इस मामले
में खोटा रहा।
हम तमाम उम्र यह भी नहीं समझ सके कि लेडीज़ और जेंट्स रुमाल अलग-अलग आकार और डिज़ाइन
के क्यों रहे है?
बहरहाल आजकल पार्टी में जाते वक़्त रुमाल भूल जाना कोई परेशानी की बात नहीं। नैपकिन
तमाम मिलते हैं। चाहे हाथ पोंछिए या नाक या कुछ और। चाहें तो दस पंद्रह जेब में भी
रख लीजिये। कुछ समय पहले बड़े रेस्तरां में कॉटन के नैपकिन मिलते थे। मैं कई सज्जनो
को जेब रख घर ले जाते देखा है। अच्छा भला रुमाल था कल तक। पता नहीं कब हैंकी हो गया।
लेकिन अगर ऑफिस में बॉस के सामने छींक आ गयी और जेब में रुमाल न हुआ तो? बड़ी विकट स्थिति पैदा
होती है बिन रुमाल के।
सुना है रुमाल गिफ्ट करने वाला आइटम नहीं। प्यार में कमी आती है।
हम ख्यालों की दुनिया से बाहर निकलतीं हैं श्रीमती जी - देखो, यह फटा पुराना मैला
सा तुम्हारा रुमाल है?
मैंने कहा - ऐसा वर्णन मेरे ही रुमाल का हो सकता है। कहां मिला?
मेमसाब ने खुश होकर कहा - वो ट्रंक के नीचे। चूहा घसीट कर ले जा रहा था। टार्च
फेर कर देखना। वहां और भी कई होंगे। मेरी मां कहती थी कि चूहों को आदमियों के पसीने
वाले बदबूदार और मैले रुमाल बहुत पसंद होते हैं।
समझ नही आता कि पत्नी की माता दामाद के संदर्भ अच्छा क्यों सोच सकती।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी० २२९० इंदिरा नगर
लखनऊ - २२६०१६
दिनांक २१-०३-२०१५ मोब ७५०५६६३६२६
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