-वीर विनोद छाबड़ा
आलू का नाम आते ही कुछ लोगों को लालू प्रसाद यादव की याद आती होगी। जब तक है समोसे
में आलू तब तक रहेगा देश में लालू। यह बात लालू खुद कहते फिरते थे।
अब आलू तो अपनी जगह है। मगर लालू शनै शनै विस्मित हो रहे है।
बहरहाल यहां मक़सद लालू जी को याद करने का नहीं बल्कि उसके सेवन से है।
कुदरत ने भी आलू नाम की क्या दमदार चीज़ बनाई है! स्वाद के मामले में खुद में बेजोड़
तो है ही, हर जगह फिट होने में भी अव्वल है। मटर, गाज़र, बैंगन, मैथी आदि छत्तीस किस्म के व्यंजन बताये जाते हैं जो जिनकी जोड़ी आलू के साथ खूब
जमती है।
हमारे जैसे लोग लौकी के नाम पर पलटी मारते हैं। मगर आलू के साथ मिला कर लबर-लबर
खाते हैं। बड़ा टेस्टी है जी! कई लोगों को मट्टन के साथ आलू की जोड़ी बनाते देखा है।
आलू के बिना तो समोसे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यों मैंने कीमा समोसा भी खाया
है। इसके अलावा भी कई किस्म के समोसे खाये हैं और सुने हैं। लेकिन आलू के साथ समोसा
नंबर वन है। कई मित्रों को समोसे का खोल उतार सिर्फ आलू खाते हुए ही देखा है।
इमरजेंसी के दिनों में समारोहों में अन्न के दुरूपयोग को रोकने की खातिर कुछ बंदिशें
थीं। लेकिन आलू हीरो नंबर वन था। तमाम बंदिशों के ऊपर। कदाचित इमरजेंसी लगाने वालों
की भी पहली पसंद आलू ही था। आलू और पूड़ी का संगम तो हर रेलवे स्टेशनों, बसस्टेशन और बीच बिज़ी
बाज़ार में बड़ी सामान्य सी घटना है।
व्यक्तिगत तौरपर आलू मुझे बहुत पसंद है। मेमसाब को भी आलू के व्यंजन बनाना आसान
लगते हैं। लेकिन हमने आलू के व्यंजनों के प्रति
अपनी आसक्ति उनके समक्ष कभी ज़ाहिर नहीं होने दी। वरना हमारा और आलू का मिलन बाधित ही
रहता। समारोहों में पहला अटैक आलू टिक्की पर होता है। एक से मन तो कभी भरा नहीं। कटलेट्स
और फिंगर चिप्स दूसरी पसंद हैं। अंतता होता यह है कि पेट भर जाता है। अक्सर खाने की
प्लेट उठाने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती।
आलू संग दोस्ती बचपन से ही है। मां ढेर आलू उबाल देती थी। स्कूल जाने में देर न
हो। इसलिए मां उबला आलू फोड़ कर ज़रा सा घी/सरसों का तेल और प्याज का चोखा बना रोटी संग
बांध देती थी। कभी मां घर पर न हुई तो आलू चोखा हम लोग खुद ही बना लेते।
आज भी जब कभी भूख लगती है तो एक उबला हुआ आलू और थोड़ा से नमक। भरपूर चार्जिंग हो
जाती है। और वो आलू के पराठे! उसके ऊपर थोड़ा ताज़ा निकला सफ़ेद मक्खन। भाई वाह, भाई वाह। आज भी वो
खुशबू और स्वाद याद है। खाते तो आज भी भरपूर हैं मगर वो ताज़ा सफ़ेद मक्खन और मां के
हाथ की प्रिपरेशन याद आती है तो आंखें में नमी महसूस होती है।
विदेशी अंकल भी जब भारत लैंड किये तो सबसे पहले आलू ही उनको दिखाई-सुझाई दिया।
आज बच्चा-बच्चा उन्हें अंकल चिप्स पुकारता है।
हमारे घर में तो सूखे चिप्स हर समय मौजूद रहते हैं। मेहमानों के सामने भी पेश करते
हैं। मुझे याद आता है कि अस्सी के दशक के अंत में पडोसी मुल्क पाकिस्तान में चुनाव
की सरगर्मियां चल रही थीं। सत्ता के दावेदार बेनज़ीर भुट्टो और और नवाज़ शरीफ़ के बीच
हिंदुस्तानी आलू को लेकर कई बार गर्मागर्म बहस भी छिड़ी। नवाज़ अवाम से पूछते थे - क्या
हमारे बच्चे हिंदुस्तानी आलू खा कर जवान होंगे?
यह भी बता दूँ कि आलू कई लोगों की छेड़ भी होती है। जैसे पाकिस्तान के भूतपूर्व
कप्तान इंजमाम। उन्हें ९० के दशक में कनाडा में भारत के विरुद्ध चल रहे एक मैच में
किसी ने आलू कह दिया। बल्ला लेकर दौड़े थे उस पर। बचपन में मेरे एक दोस्त की छेड़ भी
आलू थी। बहुत नाराज़ होता था। उसने मारे गुस्से में आलू ही खाना छोड़ दिया। लेकिन जब
वो मेरे साथ बड़ा हो गया तो उसे आलू कहना सबने बंद कर दिया और उसे आलू खाना शुरू कर
दिया।
कई बार सोचता हूं कि आलू न होता तो क्या होता?
यारों ज़िंदगी बड़ी बदरंग सी होती। है न?
-वीर विनोद छाबड़ा १६-०३-२०१५
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