-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ शहर में इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित दो हॉस्पिटल हैं। फातिमा हॉस्पिटल
और सेंट जोसेफ़ हॉस्पिटल।
खूब भीड़ रहती है। कारण कई हैं।
नर्सिंग स्टाफ़ पूर्णतया केरल/तमिल/कर्णाटक का है। भाषा की समस्या के बावजूद
बेहतरीन स्टाफ़। बेटा पैदा हुआ हो तो उन्हें न मिठाई चाहिए और न इनाम के तौर
पर नकदी।
पैरामेडिकल में मिला-जुला है। सफाई और सिक्योरिटी पूर्णतया स्थानीय। मगर
इसके बावजूद हॉस्पिटल की सुथरी संस्कृति के दृष्टिगत उन्हें किसी किस्म की लालच
नहीं है।
डॉक्टर्स स्थानीय हैं। अच्छे हैं। इनमें कुछ प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते हैं।
लेकिन हॉस्पिटल के प्रति उनके सेवाभाव में कोई कमी नहीं है।
दोनों हॉस्पिटल में नर्सिंग ट्रेनिंग भी होती है।
डॉक्टर की फीस, भर्ती पर बेड चार्जेज पैथोलॉजी एक्सरे आदि के चार्जेज बाज़ार से काफ़ी कम।
यों फातिमा हॉस्पिटल किसी ज़माने में सर्वश्रेष्ठ जननी केंद्र था। अब भी है।
शहर के निम्न और मध्य वर्गीय परिवारों के बच्चे, जो अब जवान हो
चुके हैं, यही जन्मे हैं।
लेकिन पुराने डॉक्टरों के गुज़र जाने और बड़े-बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल्स खुल जाने
के कारण कुछ असर पड़ा है। अब सिर्फ बच्चा पैदा कराने के लिए दूर-दराज़ से लोग नहीं
आते।
मैं विगत १२ साल से वहां जा रहा हूं। कभी किसी ने नहीं कहा, इसाई बनने के लिए।
अब ये बात दीगर है कि उनके सेवा भाव के दृष्टिगत कोई इसाई बन गया हो।
शहर में तमाम इसाई मिशनरी स्कूल हैं। यहां एडमिशन के लिए मारा मारी कई साल से
है। मेरा तजुर्बा नहीं हैं, लेकिन मैंने नहीं सुना कि उन्हें 'फंड' के नाम पर कुछ चाहिए। या एडमिशन के लिए शर्त रखी हो कि पहले इसाई बनो।
ऐसे में मुझे यह बोल समझ में नहीं आते कि मदर टेरेसा के सेवा भाव का उद्देश्य
इसाई बनाना था।
-वीर विनोद छाबड़ा
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