Sunday, March 29, 2015

अथ श्री फ्रेंच कट कथा!

-वीर विनोद छाबड़ा
होता है ऐसा कि जब भी मैं कोई नया काम शुरू करता हूं कि विरोध के स्वर उठने लगते हैं।
अब हमारी फ्रेंच कट दाढ़ी को ही लीजिये। आईना देखा। नए रंग रूप और गेटअप में किसी हीरो से कम नहीं दिख रहे हैं हम।
लेकिन नहीं मालूम था कि दूसरों की नज़र में इसका ठीक उल्टा या इससे मिलती जुलती प्रतिक्रिया आनी थी। 
सबसे पहले तो गृहफ्रंट खुला। उगनी शुरू हुई नहीं कि मेमसाब बोलीं - ये क्या? साफ़ करो। कोई क्या कहेगा?
बेटी ऊपर से भले ही हमारी समर्थक दिखे लेकिन वोट देने के मामले में मां की ज़बरदस्त चमची।
हमने कहा - आज़ादी जन्मसिद्ध अधिकार है। हमें ज़िंदगी के आख़री २०-२५ साल अपनी तरह जीने दो।
मामला ज्यादा गर्म होने पर बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के समक्ष प्रस्तुत हुआ। आशानुसार  तीन-एक से ज़बरदस्त हार हुई।
लेकिन हम अडिग रहे। जनता की अदालत में जाने का फैसला किया। पहली प्रतिक्रिया मिली- अमां इस बुढ़ौती में। शर्म करो यार। ऐसे ही अनेक सज्जन मिले जिनके पेट मेरी दाढ़ी देखते ही ऐंठने लगे। 
एक साहब  ने कुछ भली बात करी - बहुत अच्छे लग रहे हैं। वेरी स्मार्ट।
हम हर्ष से उछल पड़े। लगा अच्छे दिन गए। मन हुआ इन्हें अभी पाव भर जलेबी तो खिला ही दूं।
लेकिन अगले ही पल उन्होंने जोड़ा - बिलकुल अमिताभ बच्चन स्टाइल।
तन बदन में आग लग गयी। मतलब मैं अमिताभ की नकल कर रहा हूँ। नकलची बंदर हूं। अब उनको क्या समझाऊं और बताऊं कि हम बहुत पुराने फ्रेंचकटबाज़ हैं। लेकिन बीच-बीच में चिकने होने की बीमारी सर उठाने लगती थी। अमिताभ बच्चन की दाढ़ी तब पैदा भी नहीं हुई थी। इसका सबूत भी है। एक पुरानी फाइल से बरामद तस्वीर। 
ये उन दिनों की बात है जब अपने शहर लखनऊ में चंद दाढ़ियां होती थीं। अमृत प्रभात में उन दिनों फीचर देख रहे विनोद श्रीवास्तव की टिप्पणी थी  - आर्ट्स कॉलेज के प्रिंसिपल आरएस बिष्ट, फोटोग्राफी के मास्टर पीसी लिटिल और थिएटर के चैंप कुमुद नागर के बाद तुम्हारी दाढ़ी देख रहा हूं।
सुनने में बहुत अच्छा लगा। लेकिन फिर ख्याल आया - इतने बड़े बड़े लागों की फेहरिस्त में मेरी और मेरी दाढ़ी की हैसियत क्या है? काट यार। और उसी पल सफाचट कर दी।
ज़िंदगी में दाढ़ी का आना-जाना दाढ़ी की पैदाईश से शुरू हो गया था। कभी अंग्रेजी की एडल्ट फ़िल्में देखने के चक्कर में और कभी यूनिवर्सिटी में लड़कियों को इम्प्रेस करने के लिए फुल दाढ़ी और कभी फ्रेंच कट रखी। और फिर एक सुबह साफ़ कर उन्हें चौंका दिया।
हमें तब बड़ी ख़ुशी हुई थी जब हमने नब्बे के दशक में लखनऊ के नवभारत टाइम्स में क़मर वहीद नकवी की फ्रेंच कट देखी। हमें फिर जुनून चढ़ा। लेकिन जब तक हमारी दाढ़ी कायदे से नमूदार होती नक़वी ही दिल्ली चले गए। हम तनहा गए। अपने ही लोगों के कमेंट्स सुनते सुनते परेशान हो गए। फिर काट दी। उनकी दाढ़ी आज भी है। टिकाऊ दाढ़ियों के सन्दर्भ में एक और पत्रकार बंधु राहुल देव की याद आती है। उनकी फ्रेंच कट नहीं फुल दाढ़ी है। जब नए आये थे तो काली थी। आज तक निरंतर है। भले ही सफ़ेद हो गयी हो।
मेरे एक मित्र हैं के.के.चतुर्वेदी। विद्वान हैं। जब उनके घर जाता हूँ कोई कोई उपन्यास या कहानी संग्रह पढ़ते हुए पाता हूं। जब तीस बरस पहले देखा था तो उनके दाढ़ी थी। अभी तक चल रही है। यों आज तक जितने भी दाढ़ी वाले मेरी नज़र से गुज़रे हैं सभी विद्वान हैं या विद्वता की किसी किसी श्रेणी से जुड़े हुए हैं। मुझे ऐसा लगता है दाढ़ी विद्वान होने की निशानी है। कुछ विद्वता से कोसों दूर शौकिया दाढ़ीवान भी देखे हैं। ये लोग बात चीत से जो एक्सपोज़ हो जाते हैं कि इनकी क्लास क्या है।      
ज्यादा सफेदी आने के बाद फ्रेंच कट के आने जाने का सिलसिला टूट गया। अरसा गुज़र गया। तकरीबन बीस साल।
फेस बुक पर आये तो तरह तरह की डिज़ाइन की दाढियों के दीदार हुए। हमारे अंदर सोया हुआ नौजवान अंगड़ाई ले कर उठ बैठा। हम फिर दाढ़ी वालों के मैदान में कूद पड़े। एक दिन मित्र उदय वीर के घर जाना हुआ। देखा हमारी तरह वो भी फ्रेंच कट में है।  हम उछल पड़े। अब दो बब्बर शेर हो गए। लेकिन उदय उदास हो गया - यार जल्दी से तस्वीर लेलो। हमारी दाढ़ी तो बस एक दो घंटे की मेहमान है। श्रीमतीजी आने ही वाली हैं। 
हम समझ गए वही घर घर की कहानी। हमारी फ्रेंच कट की पारी भी ज्यादा लंबी नहीं चली। कुल सात महीने ही कट पाये। बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर की चेयरपर्सन यानी हमारी मेमसाब की भूख हड़ताल के धमकी के समक्ष घबरा गए। हथियार डाल दिए। आज फ्रेंच कट कुर्बान कर दी। आखरी सांस तक फ्रेंच कट के साथ रहने का अरमान धरा रह गया। 
मेमसाब मारे ख़ुशी के उछल पड़ी - अब आदमी तो लग रहे हो।
यार आदमी पहले भी था। तुमने बंदर का चश्मा लगा रखा था। मिर्ची लग रही थी तुम्हें।
सही तो कहा है विद्वानों ने - आदमी आज़ाद पैदा होता है मगर फिर भी वो चारों ओर ज़ंजीरों से बंधा है।
लेकिन अभी मूंछे बाकी हैं। इसकी भी आने-जाने की एक अलग कहानी है, जो फिर कभी। 
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 -वीर विनोद छाबड़ा  डी - २२९०, इंदिरा नगर,लखनऊ - २२६०१६ दि.२९.०३.२०१५

मोबाइल ७५०५६६३६२६

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