Monday, March 2, 2015

बस ७२ बाद नो एंट्री!

-वीर विनोद छाबड़ा
ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है। यही पंद्रह-सोलह साल पहले की बात है। एक मित्र के छोटे भाई की बारात में गोरखपुर जाना हुआ। हम चार बंदों का ग्रुप था उसमें।  
भाड़े की प्राइवेट बस। दो वाली सीट पर तीन और तीन वाली पर चार बैठे। कुछ बीच कॉरिडोर में अटैचियों पर बैठा दिए गए। दस-बारह तो छत पर चढ़ा दिए गए। बस चलता तो एक-आध को ड्राइवर की गोद में भी बैठा देते।

रवानगी से पहले गिनाई हुई। बस में ठूंसे और कार में दूल्हा सहित बैठे हुओं को शामिल कर कुल ७२ बंदे। गोरखपुर तक दो जगह बस रूकी। एक बार चाय-नाश्ते के लिए और दूसरी बार भोजन के लिए। दोनों ही बार गिनाई हुई। ठीक है, भाई ७२ ही हैं। यह सुनने के बाद ही बस आगे बढ़ती।

यह गिनती वाला बंदा हमें कुछ संदिग्ध लगा। हर बार वर पक्ष का एक बंदा उसकी मुट्ठी में कुछ रख देता। वो थोड़ा ऐंठते हुए उसे स्वीकार करता।

हमने अनुमान लगाया कि शायद उसकी मुट्ठी में कुछ रकम रखी जाती है जो उसे कम लगती है। लेकिन वर पक्ष का वो बंदा उसे किसी आश्वासन पर मना लेता है। ऐसा क्या है और क्यों है? यह कहानी हमें शुरू में ठीक-ठाक समझ नहीं आई। जैसे जैसे बस आगे बढ़ी। हम समझ गए। दाल में कुछ काला ज़रूर है।

खैर हम गोरखपुर पहुंचे। फिर गिनाई हुई। गिनने वाला वही बंदा। पूरे ७२ पाये गए। जनवासे में ठहराया गया। कुल ७२ पलंग। ७२ तकिये और ७२ दरियां और ७२ चददरें ओढ़ने के लिए। गर्मी के दिन थे। इससे ज्यादा की ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन यह ७२ के तिलिस्म का पता नहीं लग रहा था। और मज़े की बात यह कि गिनने वाला वही बंदा और साथ में वर का भी वही। हर बार की तरह ७२ से वो खुद को अलग रखता जबकि वर पक्ष को गिन लेता।

अब थोड़ा-थोड़ा तिलिस्म का भेद समझ आने लगा कि गिनाई वाला यह बंदा वधु पक्ष से है। और उसकी ड्यूटी थी कि बारात में ७२ से ज्यादा कुछ नहीं हो, न बंदा और न आइटम। वर पक्ष का बंदा उसकी मुट्ठी बंद कर मुंह में बार-बार ७२ की संख्या डलवा रहा था। यों भी जब हमने वर पक्ष के विगत इतिहास जब हमने विहंगम दृष्टि डाली तब भी हम इसी नतीजे पर पहुंचे। 

नाश्ता आया। समोसे ७२, पेस्ट्री ७२, बिस्कुट बड़ा नमकीन ७२, चाय ७२ शक्कर और बिना शक्कर दोनों मिला कर।

बारात रवाना हुई। नाचते-कूदते हम द्वार पर पहुंचे। द्वार इतना छोटा था कि बाराती एक-एक करके भीतर पहुंच पा रहा था। एक, दो, तीन.इक्कीस अड़तालीस ... पचपनबासठ सत्तर, इकहत्तर, बहत्तर। बस।

इसके आगे नो एंट्री। वधु के पिता एंट्री पॉइंट पर दीवार बन खड़े हो गए।


वर के पिता भागे भागे आये  - श्रीमन यह क्या करते हैं आप? नाक कटवाएंगे क्या हमारी?

वधु के पिता बोले - महोदय, यह आप जानें। आपको मुंह-मांगी रकम दी है। हर आइटम दिया है। सोना भी और चांदी। नाते रिशतेदारों और प्रजा के लिए कपडे-लत्ते भी। बारातियो के लिए भी अलग से दिया है। एक गरीब शिक्षक हूं। हर चीज तय हिसाब से हो रही है। बाराती भी पूरे ७२ तय हैं। इससे ज्यादा एक भी नहीं। अगर ७२ से ज्यादा बारातियों की एंट्री चाहते हो तो प्रति प्लेट ७२ रुपया एक्स्ट्रा पेमेंट आप करेंगे मैं नहीं। पड़ता खाता हो तो ठीक नहीं तो आपकी मर्ज़ी। याद रखें कि मैं उनमें से नहीं जो पगड़ी उतार कर पैरों पर रख दूं। मेरी बेटी गुणी है। कई लड़के मिलेंगे। लेकिन मेरी बेटी और और आपका बेटा एक-दूसरे को चाहते हैं। इसलिये अब तक खामोश रहा। आपकी डिमांड्स के बारे में जब मेरी बेटी को पता चलेगा तो वो न भी कर सकती है। और कदाचित आपका बेटा भी आपको रिजेक्ट कर दे।

ड्रामा शायद ज्यादा खिंचता। कुछ बीच-बचाव वाले आगे बढ़े। जाम क्लीयर हुआ। सुख से शादी हो गयी। वापसी पर बस में उतने ही लोग बैठे जितनी सीटें थीं। बाकी लोग ट्रेन से। हम ट्रेन से लौटे। सुना वधु के पिता ने यह ड्रामा वर की सहमति से रचा था ताकि कंजूस पिताश्री की आंखें खुल जायें। ड्रामा सफल रहा। थोड़ा फिक्शन डाला है। एक  टेलर मेड कहानी सी लगेगी। परंतु सच यही है।

तब मुझे साठ-सत्तर के दशक की कई फ़िल्में याद आयीं थीं जिनमें कुछ ऐसी ही कहानी होती थी और ऐसे ही किरदार। फिल्म के आख़िरी सीन में आंखों का खुलना और फिर हैप्पी 'दि एंड'
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- वीर विनोद छाबड़ा 02/03/2015 

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