- वीर विनोद
छाबड़ा
ये बात फरवरी, १९७२
की है। मेरे मित्र रवि प्रकाश मिश्रा के बड़े भाई की शादी थी।
बड़े लोग थे। जमींदार, राय बहादुर, राय साहब जैसे ख़िताब उनके पुरखों
को मिले थे। लखनऊ के गोलागंज इलाके में बहुत बड़ी हवेली थी- मिश्रा भवन।
इसके प्रांगण में एक विशाल कटहल का पेड़ भी था। इसलिए इसे कटहल
वाली कोठी भी कहते थे। यह कोठी और पेड़ आज भी मौजूद है। अपने वैभवशाली अतीत की कहानी
सुनाने के लिए।
बारात ज़िला रायबरेली के भीतरगांव इलाके में जानी थी। ब्राह्मणों
की बारात थी। बड़े लोग, बड़ी बातें।
हम देख रहे थे और सुन भी रहे थे। हम दो-चार दोस्त ही बिना जनेऊ
वाले थे।
हम सब बस द्वारा शाम के वक़्त पहुंचे। एक सौ बीस किलोमीटर की
इस थकाऊ यात्रा के आखिरी बीस किलोमीटर कच्चा रास्ता भी तय किया। हड्डियां पुर्ज़ा पुर्ज़ा
हो गई। सबके नस भी चढ़ गयी कहीं न कहीं की। हम सब धूल से धुसरित। जैसे किसी ने ज़मीन
पर गिरा-गिरा कर पीटा हो, पछड़ा
हो। हम लोगों की सूरत तो कुछ ऐसी देखी मानो आटे के बोरे से ताज़े-ताज़े निकल कर आ रहे
हों। काले सूट झक सफ़ेद हो गए।
खैर, चाय-पानी
हुआ। बारात सज-धज के चली। चली क्या? वहीं
एक जगह खड़े-खड़े नाचे कूदे। द्वारचार हुआ।
अब बारी थी भोजन की। वधु पक्ष से संदेसा आया - जो शाकाहारी हैं
वो इस तंबू में जाएं और जो मांसाहारी हैं वो उस तंबू में।
ये सुनते ही मेरे जैसा नॉन-वेज भी पछाड़ खाकर गिरते-गिरते बचा।
यह तो अच्छा हुआ कि मित्र उदयवीर ने संभाल लिया।
ब्राह्मणों की बारात और मांसाहार! मैं तो हो गया अधर्मी। अब
तो ज़रूर नरक भोगना पड़ेगा। और अगले जन्म में शायद बकरा भी बनना पड़े। मानव योनि में जन्म
तो भूल ही जाओ।
मेरे साथ मित्र उदयवीर श्रीवास्तव, मोहन कुमार सेठ और मानू शुक्ला का भी यही हाल था। ब्राह्मण होने के नाते मानू के
तेवर कुछ ज्यादा ही तीखे थे। लेकिन कोई क्या कर सकता था। बड़े लोग बड़ी बातें।
लेकिन ये तो सेमी-फाइनल था। फाइनल अभी बाकी था।
बिना देर किये दो चार को छोड़ कर सब जनेऊ और बिना जनेऊ वाले मांसाहारी
तंबू में घुस गए। उदयवीर बराबर मेरे साथ लगा रहा कि कहीं दोबारा 'पछाड़' वाला अटैक न पड़े। हाथ से झलने
वाले पंखे का भी कहीं से वो इंतेज़ाम कर लाया। खैर इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। रात कैसे गुज़री? पूछिये मत। मच्छरों से कुश्ती लड़ते रहे।
उदय बोला - बड़े लोग बड़ी बातें। जैसे-तैसे सो जाओ।
लेकिन नींद कहां। रात भर शाल ओड कर सिगरेट पीते बाहर टहलते गुज़ारी।
राम-राम कर सुबह हुई। डर लग रहा था कहीं नाश्ते में मछली न परोसी
जाए। लेकिन शुक्र ऊपर वाले का। आगे सब ठीक ही रहा। शाम ढले हम लखनऊ लौट आये। घर आया
और सीधे बिस्तर पर। अगले दिन सुबह सूरज निकलने पर ही उठना हुआ।
जमींदार घरानों के रस्मो रिवाज़ के मुताबिक़ अगले शानदार पार्टी
और हवेली के बहुत बड़े हाल में मुज़रे का आयोजन हुआ। बड़े लोग, बड़ी बातें।
हमने ज़िंदगी में पहली दफे लाइव मुज़रे के दीदार किये। और तीन
बार पांच-पांच रुपये भी नज़र किये। मेरे लिए तो पंद्रह रूपए बड़ी बात थी। मगर हर बार
पांच का नोट देते हुए उस मुज़रे वाली सिकंदर जहां के हाथ का स्पर्श आज भी याद है। इस
स्पर्श के सामने पंद्रह रुपए कोई मायने नहीं थे।
आज लगभग ४३ बरस गुज़र चुके हैं। वक्त के थपेड़ों और देख-रेख के
अभाव के कारण वो हवेली - मिश्रा भवन - लगभग खंडहर में तब्दील हो चुकी है। मुज़रे वाला
हाल बेहाल है। मेरे मित्र रवि प्रकाश और बचे चंद और वारीसन उन खंडहरों की महफूज़ जगहों
में रहते हैं।
मेरा कभी-कभी वहां जाना होता है। मित्र मिश्रा जी नजीराबाद के
आलमगीर होटल की बिरयानी खाते मिलते हैं।
और मेरे मुंह से यही निकलता है - हे राम! लोग सही कहते हैं कि
ज्यादा गोश्त की खपत तो हिन्दुओं में होती है। मुस्लिम तो खामख्वाह ही बदनाम हैं।
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-वीर विनोद
छाबड़ा ०१-०४-२०१५ मो. ७५०५६६३६२६
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